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सैयारा : अच्छी कहानियाँ स्मृतियों की जिल्द हैं

‘हम कोशिकाओं से नहीं, स्मृतियों से बने हैं।’ शिवेन्द्र का यह कथन, जो मैंने एक बार ‘सदानीरा’ पत्रिका में पढ़ा था, उस वक़्त केवल एक दिलचस्प विचार लगा था। मगर अब, इसका अर्थ मेरे लिए कहीं गहरा हो गया है। इसे पढ़कर भूल जाने के बाद, जब मैंने युवाल नोआ हरारी की ‘सेपियंस’ पढ़ी, जहाँ उन्होंने धर्म, सरकार, पैसा, और यहाँ तक कि शादी जैसी संस्थाओं को केवल ‘कल्पना की बुनी हुई कहानियाँ’ बताया, तब शिवेंद्र की बात मुझ पर और भी अधिक हावी हो गई। ये सारे विचार मेरे मन से विस्मृत हो चुके थे, जब अचानक बॉलीवुड की नई सनसनी ‘सैयारा’ का ज़िक्र हर तरफ़ सुनाई देने लगा।

फ़िल्म-ट्रेलर में बजते सुरीले संगीत और रोमांटिक ड्रामा की झलक ने मुझे सिनेमाघर में खींच लिया। यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि हॉल खचाखच भरा था। सिनेमा हॉल जाकर फ़िल्म देखने की आदत छूट-सी गई थी, पर यह भीड़ कुछ ख़ास होने का संकेत दे रही थी। फ़िल्म की शुरुआत थोड़ी साधारण-सी लगी—वही घिसी-पिटी मर्दानगी (मस्कुलानिटी) और हीरोइज़्म का ड्रामा, जो अस्ल ज़िंदगी से कोसों दूर होता है। थोड़ी उकताहट होने लगी, तभी वाणी बत्रा और कृष कपूर के बीच एक अजीब लेकिन बेहद दिलचस्प बातचीत शुरू हुई। उनके संवादों ने मुझे फ़िल्म से जोड़ लिया।

मेरा इस फ़िल्म को देखने-जुड़ने का एक मुख्य कारण है—इस सेमेस्टर में क्रिएटिव राइटिंग का पेपर पढ़ाना, जिसकी तैयारी के सिलसिले में मैं पटना में अपने दोस्त से मिला था। उन सत्रह दिनों की यात्रा में हमने क्रिएटिविटी पर अनगिनत बातें कीं, और ठीक वैसी ही बातचीत फ़िल्म के उस दृश्य में वाणी और कृष के बीच हो रही थी। यह हमारी पटना वाली चर्चा का ही एक प्रतिरूप था! फ़िल्म में नायिका वाणी बत्रा अपने जज़्बातों और एहसासों को शब्दों में ढालना चाहती है, लेकिन उसका दोस्त उसे एक बंद स्टूडियो में गाना लिखने को कहता है। वह झल्ला उठती है, ग़ुस्से में निकल जाती है, पर जाते-जाते क्रिएटिव राइटिंग पर एक गहरी बात कह जाती है—‘क्रिएटिव सोचने और लिखने के लिए वैसे ही माहौल और अनुभव की ज़रूरत होती है।’ यह बात जितनी साधारण लगती है, उतनी है नहीं। इस सीन ने मुझे बाँधे रखा और यहीं से फ़िल्म एक नई उड़ान भी भरती है।

स्मृतियों का खोना : ‘सैयारा’ का दार्शनिक आधार

‘सैयारा’ सिर्फ़ क्रिएटिविटी की कहानी नहीं है। यह वाणी बत्रा के जीवन से कहानियों के ग़ायब होने की मार्मिक दास्तान है—उन कहानियों का खो जाना जो ज़िंदगी को रंग देती हैं : ख़ुशी, उदासी, यादें, पुराने-नए रिश्ते। सब कुछ फीका पड़ जाता है, जीवन बेरंग हो जाता है। यह फ़िल्म इसी बेरंगपन से निकलने के संघर्ष, कशमकश और उहापोह से भरी है। एक पल आता है जब वाणी कृष से कहती है कि उस लम्हे को याद करो जो तुम्हारी ज़िंदगी को झकझोर देता है, उसे संगीत में ढालो और वही संगीत से तुम्हें जोड़ देगा। वह हर लम्हे को पकड़ने की जद्दोजहद करती है और उन्हें कहानियों में ढालने की दौड़-धूप करती है क्योंकि वह जानती है कि कहानियाँ कभी नहीं मरतीं, वे हमेशा ज़िंदा रहती हैं।

इस बात का दार्शनिक आधार बौद्ध दर्शन के ‘क्षणवाद’ में मिलता है, जहाँ हर पल बदलता है और उसे पकड़ने की कोशिश की जाती है। हिंदी के प्रयोगवादी कवि अज्ञेय की कविताओं में भी यही रहस्य छिपा है—पलों को जीना, उन्हें कहानी बनाना। फ़िल्म की कहानी ऐसी है जहाँ वाणी के जीवन से कहानियाँ उड़ जाती हैं और एक बड़ा सामाजिक विध्वंस नज़र आता है। तभी शिवेन्द्र की—‘हम स्मृतियों से बने हैं’ वाली बात याद आती है। हरारी की ‘सेपियंस’ वाली कल्पना और कहानियाँ सच लगने लगती हैं। जिनके इर्द-गिर्द हम अच्छी कहानियाँ नहीं बुन पाते, वे चीज़ें बिखर जाती हैं। रिश्तों में सुंदर कहानियाँ जोड़ते जाओ तो रिश्ता सुंदर होता जाता है, ख़राब कहानियाँ जोड़ो तो ख़राब और अंत में फ़िल्म एक सुखांत मोड़ पर ख़त्म होती है, जहाँ एक पल को कहानी के धागे से जोड़कर वे दोनों मिल जाते हैं। यह इस बात का सबूत है कि, स्मृतियाँ ही हमें परिभाषित करती हैं, हमें जोड़ती हैं, और हमें पूरा करती हैं।

अभिनय, संगीत और बॉक्स ऑफ़िस की धूम

मोहित सूरी की इस फ़िल्म ने—जो ‘आशिकी 2’ जैसे रोमांटिक ड्रामा के लिए जाने जाते हैं—नए चेहरों अहान पांडे और अनीत पड्डा की जोड़ी से चमक बिखेरी है। अहान का डेब्यू कृष कपूर के रूप में असाधारण भावनात्मक गहराई दिखाता है, जबकि अनीत की वाणी बत्रा में वह भूलने और याद करने का दर्द जीवंत हो उठता है। फ़िल्म का संगीत (सचेत-परंपरा, विशाल मिश्रा और तनिष्क बागची का) इसकी जान है—गाने जैसे ‘सैयारा’ और ‘तेरी यादें’ दिल को छू जाते हैं और लंबे समय तक ज़ेहन में रहते हैं। 18 जुलाई 2025 को रिलीज़ हुई यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर 400 करोड़ पार कर चुकी है, जो यश राज फ़िल्म की ताक़त का प्रमाण है, लेकिन इसका असली कमाल इसकी भावनात्मक गहराई और दार्शनिक संदेश में निहित है।
फ़िल्म ख़त्म होती है, लेकिन कहानियों का असर छोड़ जाती है। मेरा मानना है कि इसे एक बार ज़रूर देखिए—इसके शिल्प, संगीत और भावनाओं की अद्भुत बुनावट के लिए।

जेन-ज़ी के लिए ‘सैयारा’

अंत में सवाल : जेन-ज़ी के लिए इसमें क्या है? मेरे हिसाब से एक निश्छल प्रेम है, दो अधूरे लोगों का एक होकर पूरा होने का भाव है, विवाह जैसी संस्थाओं का एक सूक्ष्म अस्वीकार है, और सबसे बढ़कर, इसमें क्रिएटिव फ़्रीडम की बात है। शायद यही उन्हें खींचता है—क्योंकि आज की पीढ़ी कहानियाँ नहीं भूलना चाहती, बल्कि नई रचती है। फ़िल्म के बीच में सिनेमा हॉल से किसी ने आवाज़ दी थी, ‘सब पागल हो गए हैं!’ यह फ़िल्म प्रेम में इसी पागलपन और किसी की धुन में खो जाने की कहानी है। अगर आप ख़ुद को सामान्य समझते हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए नहीं है। यह फ़िल्म उन लोगों के लिए है जो इस दुनिया को एक बच्चे की तरह देखते हैं, जो हर पल में एक कहानी खोजते हैं और आपकी नज़र में पागल हैं।

क्या आप भी ऐसी कहानियों से बने हैं?

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