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सैयारा : दुनिया को उनसे ख़तरा है जो रो नहीं सकते

इन दिनों जीवन कुछ यूँ हो चला है कि दुनिया-जहान में क्या चल रहा है, इसकी सूचना सर्वप्रथम मुझे फ़ेसबुक देता है (और इसके लिए मैं मार्क ज़ुकरबर्ग या सिलिकॉन वैली में बैठे तमाम तकनीकी कीड़ों का क़तई कृतज्ञ नहीं हूँ!) यह फ़ेसबुक ही है जो मेरा दरवाज़ा खटखटाता है और चिट्ठी थमा जाता है।

पिछले दिनों एक नई चिट्ठी मिली है—‘सैयारा’!

पता चला कि एक नई फ़िल्म आई है, जिसे देख कुछ लोग रो रहे हैं; पर अफ़सोस कि यह बात मुझे पता चलने की तरह नहीं पता चली, यह बात पता चली मीम के ज़रिए, ज्ञान झाड़ने की ‘असाधारण प्रतिभा’ के ज़रिए।

एक फ़ेसबुकिया पोस्ट में ऊपर आपत्तिजनक वीडियो में वायरल हुए एक युवा जोड़े की तस्वीर थी और नीचे उस बिस्तर की जिस पर दोनों हमबिस्तर हुए थे। इस पोस्ट में ऐसा कुछ लिखा था कि ‘सैयारा’ देखकर रोने वाले कभी नहीं समझेंगे, वह सुख जो इनका वीडियो देखकर मिला।

एक और वीडियो दिखा जिसमें मैंने देखा कि थिएटर में फ़िल्म ख़त्म हो चुकी है, एक युवक अपनी सीट पर फफक-फफक कर रो रहा है और दूजा—शायद उसका मित्र—उसे ढाढ़स बँधा रहा है, पीछे बैकग्राउंड में एक बेहद वायरल आवाज़ आ रही है : इन बच्चों के लिए हम जो पेड़, पानी और ये जो ग्लेशियर बचा रहे हैं...

एक फ़ेसबुकिए मित्र (या कहिए एक छद्म बुद्धिजीवी) की भी एक पोस्ट दिखी जिसमें वह अपने ज्ञान का परचम लहराते हुए नज़र आए। उन्होंने फ़िल्म देख रो पड़ने वालों की हालत पर चिंता ज़ाहिर की थी और सुझाव दिया था कि अब यह बेहद ज़रूरी हो चला है कि विद्यालय-कॉलेजों में विद्यार्थियों को अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाना सिखाया जाए। मैंने उनकी पोस्ट को यूँ पढ़ा कि अब ज़रूरी हो चला है कि हमारे भीतर जो कुछ भी अब तक यांत्रिक होने से बचा हुआ है, स्कूल और कॉलेज उसका भी गला घोंट दें और हम चैट जीपीटी और डीपसीक और मेटा ए.आई. आदि-आदि के चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहन बन जाएँ।

मतलब वर्षों पहले पश्चिम से चला मशीनीकरण क्या इतना फैल चुका है कि अब रोना गुनाह हो चला है? रोना अज्ञानता का परिचय देने लगा है? रोना कुछ ऐसा हो चला है जिस पर हँसा जाए?

उन्नीसवीं शताब्दी का रूस : एक बूढ़ा-सा दिखने वाला एक बीमार लेखक अपने से पच्चीस बरस कम उम्र की अपनी दूसरी बीवी को अपने उपन्यास ‘ह्यूमीलिएटेड एंड इंसल्टेड’ का रफ़ ड्रॉफ्ट सुना रहा है; वह सुन रही है, सुबक रही है, रो रही है। वह बीमार लेखक फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की थे और वह युवती थी अन्ना; जिन्होंने बरसों बाद दोस्तोयेवस्की से मिलने से लेकर उनकी मृत्यु तक शॉर्टहैंड में लिखी अपनी डायरी को प्रकाशित करवाया।

इसी कड़ी में मुझे याद आ रहे हैं—फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की के पत्र तथा लेव तोलस्तोय के भी। दोस्तोयेवस्की उस समय लगभग पच्चीस बरस के रहे होंगे—युवा, कुछ-कुछ क्रांतिकारी टाइप, अभी उनको साइबेरिया के कारावास में नहीं भेजा गया है, अभी उनको गोली मारने के लिए उनके सामने एक सैनिक बंदूक़ लिए नहीं खड़ा है। उन्होंने एक उपन्यासिका लिखी है—Poor Folk—जो अभी प्रकाशित नहीं हुई है। वह एक रात उसे अपने दोस्तों को सुना रहे हैं और क़िस्सा ख़त्म होने तक कई लोग रो पड़ रहे हैं। वहीं तोलस्तोय, दोस्तोयेवस्की की मृत्यु पर एक पत्र में लिखते हैं कि उनकी मृत्यु से वह आहत हैं, जब उन्हें उनकी मृत्यु की ख़बर मिली तब वह खाना खा रहे थे और रो पड़े थे और वह अभी तक (पत्र लिखने तक) रो रहे हैं। (ज्ञात हो कि तोलस्तोय और दोस्तोयेवस्की कभी मिले नहीं!) 

रूसी लेखकों का ज़िक्र यहाँ इसलिए है, क्योंकि अब तक साहित्य के संसार में वैसा कुछ कभी नहीं रचा गया जैसा क्लासिकल काम रूसी साहित्य में है! इस बाबत कुछ लेखकों-आचोलकों के विचार देखिए—

वर्जीनिया वुल्फ़ : रूसी गद्य का मुख्य पात्र आत्मा है।

फ़्रांत्स काफ़्का : दोस्तोयेवस्की मेरे रक्त-संबंधी ठहरे।

फ़्रेडरिक नीत्शे : दोस्तोयेवस्की, एकमात्र मनोवैज्ञानिक जिससे मुझे कुछ सीखने की आवश्यकता है। 

विलियम फ़ॉकनर : दोस्तोयेवस्की मानव-जाति द्वारा उत्पन्न किए गए अब तक के सबसे महान् लेखक हैं।

जॉर्ज स्टेनर : हम सभी दोस्तोयेवस्की और तोलस्तोय की रचनाओं के महज़ फ़ुटनोट्स हैं।

अक्सर मन में एक प्रश्न कौंधता है कि पुनः कभी वैसा कोई उपन्यास या वैसी कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकी जैसा दोस्तोयेवस्की, तोलस्तोय, चेख़व, तुर्गनेव, लर्मन्तोव आदि रच गए? उत्तर कुछ-कुछ ऐसा मिलता है... क्योंकि हम रोना भूल गए, क्योंकि हमारी भावनाओं का ग्रॉफ नीचे सरक गया, क्योंकि हम मशीन बन गए। शायद ही अब कोई लेखक लिखता है कि न्यायालय में कोई अपनी दलीलें रख रहा है और इकट्ठी हुई भीड़ रो रही है... (ऐसा दोस्तोयेवस्की ने ‘द ब्रदर्स करमाजोव’ में लिखा है। वही ‘द ब्रदर्स करमाजोव’ जिसे सिग्मंड फ़्रायड अब तक की लिखी गई सबसे महान् किताब बताते हैं।)

अब आँसुओं की वो क़दर नहीं रही। कम-अज़-कम यह बात मैं गारंटी के साथ इस देश के उस भू-भाग पर रहने वाले लोगों के बारे में कह सकता हूँ, जिनके बीच मेरे अब तक के उनतीस वर्ष गुज़रे, जिनके बीच मैं बड़ा हुआ, जिनसे मैंने रो पड़ने के लिए ताने सुने, जिनके लिए रोने के कारण मज़ाक़ का पात्र बना—चाहे वह रोना किसी फ़िल्म को देखकर रहा हो या किसी दोस्त द्वारा तिरस्कृत किए जाने पर या प्यार में पड़कर किसी लड़की के लिए।

शायद हमारे यहाँ आँसुओं की वह क़ीमत कभी नहीं रही जो दोस्तोयेवस्की के वक़्त रूस में थी और शायद इसलिए ही हिंदी साहित्य क्लासिक, रूसी साहित्य की कानी उँगली के नाख़ून के बराबर भी नहीं ठहरता!

‘सैयारा’ या कोई भी फ़िल्म देख या कोई किताब पढ़ या जग की भाषा में छोटी-छोटी बात पर रो पड़ने वाले उन लोगों से बेहतर हैं, जो फ़िल्म देख या किताब पढ़ या तथाकथित छोटी-सी किसी बात पर नहीं रोते; और उन लोगों से लाख गुना बेहतर हैं जो किसी के आँसुओं का मज़ाक़ उड़ाते हैं। 

ऐसी चीज़ों पर रो पड़ने का अर्थ है कि रो पड़ने वाले का दिल नाज़ुक है (जिसका हमें ख़याल रखना चाहिए), इसका अर्थ है कि उसे ठेस पहुँची है (हमें उसे सँभालना चाहिए), इसका अर्थ है कि उसके दिल के तल में दुख की काई जमी है (जिसे हमें साफ़ करना चाहिए), इसका अर्थ है कि वह नादान है (हमें उसकी नादानी को बचा ले जाना चाहिए, क्योंकि नादानी ही हमें बनिया बनने से रोकती रही है।)

लोगों को लग रहा है कि दुनिया को ए.आई. से ख़तरा है (जो रो नहीं सकता, पर हँस भी तो नहीं सकता!) मुझे लग रहा है कि दुनिया को उनसे ख़तरा है जो रो नहीं सकते और उनसे और अधिक जो किसी के रोने पर हँस सकते हैं। 

मैं चैट जीपीटी से पूछता हूँ कि लोग फ़िल्म देखते हुए रो क्यों पड़ते हैं। अपने उत्तर के निचोड़ में वह कहता है : “लोग फ़िल्म देखकर इसलिए रोते हैं; क्योंकि वे किरदारों से जुड़ जाते हैं, उनका दर्द महसूस करते हैं और अपने ही भीतर दबी भावनाओं को बाहर निकालने का मौक़ा पाते हैं।”

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