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प्रेमचंद

1880 - 1936 | लमही, उत्तर प्रदेश

हिंदी कहानी के पितामह और उपन्यास-सम्राट के रूप में समादृत। हिंदी साहित्य में आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद के प्रणेता।

हिंदी कहानी के पितामह और उपन्यास-सम्राट के रूप में समादृत। हिंदी साहित्य में आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद के प्रणेता।

प्रेमचंद के उद्धरण

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पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा।

धर्म का मुख्य स्तंभ भय है।

स्त्रियों की कोमलता पुरुषों की काव्य-कल्पना है।

अतीत चाहे दु:खद ही क्यों हो, उसकी स्मृतियाँ मधुर होती हैं।

जो अपने घर में ही सुधार कर सका हो, उसका दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।

प्रेम जितना ही सच्चा, जितना ही हार्दिक होता है, उतना ही कोमल होता है। वह विपत्ति के सागर में उन्मत्त ग़ोते खा सकता है, पर अवहेलना की एक चोट भी सहन नहीं कर सकता।

स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रेम चाहता हूँ, जो दो स्वाधीन व्यक्तियों में होता है। वह प्रेम नहीं, जिसका आधार पराधीनता है।

प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, ख़ूँख़ार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।

आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है।

मक्कार आदमी को अपनी भावनाओं पर जो अधिकार होता है, वह किसी बड़े योगी के लिए भी कठिन है। उसका दिल रोता है मगर होंठ हँसते हैं, दिल ख़ुशियों से मज़े लेता है मगर आँखें रोती हैं, दिल डाह की आग से जलता है, मगर ज़ुबान से शहद और शक्कर की नदियाँ बहती हैं।

क्रोध अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं, वह मौन को सहन नहीं कर सकता।

ईर्ष्या से उन्मत स्त्री कुछ भी कर सकती है, उसकी आप शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।

आदमी अकेला भी बहुत कुछ कर सकता है। अकेले आदमियों ने ही आदि से विचारों में क्रांति पैदा की है। अकेले आदमियों के कृत्यों से सारा इतिहास भरा पड़ा है।

ख़ून का वह आख़िरी क़तरा जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।

मानव-प्रकृति को दवाब से कितनी घृणा है।

हिन्दुस्तान का उद्धार हिन्दुस्तान की जनता पर निर्भर है। जनता में अपनी योग्यता के अनुसार यह भाव पैदा करना प्रत्येक स्वदेशवासी का परम धर्म है।

जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए, उससे जितनी जल्दी हम अपना गला छुड़ा लें उतना ही अच्छा है।

जिसे संसार दुःख कहता है, वही कवि के लिए सुख है।

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किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणी मात्र का धर्म है।

पुरुष में नारी के गुण जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है, नारी में पुरुष के गुण जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है।

सच्चा दानी प्रसिद्धि का अभिलाषी नहीं होता।

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वफ़ा ही वह जादू है जो रूप के गर्व का सिर नीचा कर सकता है।

धर्म का मूल तत्त्व आत्मा की एकता है। जो आदमी इस तत्त्व को नहीं समझता, वह वेदों और शास्त्रों का पंडित होने पर भी मूर्ख है; जो दुखियों के दुःख से दुःखी नहीं होता, जो अन्याय को देखकर उत्तेजित नहीं होता, जो समाज में ऊँच-नीच, पवित्र अपवित्र के भेद को बढ़ाता है, वह पंडित होकर भी मूर्ख है।

जीवन की दुर्घटनाओं में अक्सर बड़े महत्त्व के नैतिक पहलू छिपे हुआ करते हैं।

गृहस्थी के संचय में, स्वार्थ की उपासना में, तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कार वालों को ही प्राप्त होता है।

स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान-पत्ते तक ही समाप्त नहीं हो जाती।

आशा निर्बलता से उत्पन्न होती है, पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है।

धर्म ईश्वरीय कोप है, दैवीय वज्र है, जो मानव जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है।

निराशा में प्रतीक्षा अँधेरी लाती है।

मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है।

दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है।

संपत्ति और सहृदयता में वैर है।

पसीने की कमाई खाने वालों का दिवाला नहीं निकलता, दिवाला उन्हीं का निकलता है जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे होते हैं।

स्त्रियों को अगर ईश्वर सुंदरता दे तो धन से वंचित रखे। धनहीन, सुंदर, चतुर स्त्री पर दुर्व्यसन का मंत्र शीघ्र ही चल जाता है।

क्या मैं अपने ही देश में ग़ुलामी करने के लिए ज़िंदा रहूँ? नहीं, ऐसी ज़िंदगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।

धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है।

मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।

ग़रीबी की ज़िल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में ज़िंदगी बसर की जाए। यह जानने-पहचानने वालों की कर्नाखयाँ और कनबतियाँ हैं जो ग़रीबी को यंत्रणा बना देती हैं।

पश्चात्ताप के कड़वे फल कभी कभी सभी को चखने पड़ते हैं

जन-समूह विचार से नहीं, आवेश से काम करता है। समूह में ही अच्छे कामों का नाश होता है और बुरे कामों का भी।

नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है। परीक्षा गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीज़ है, प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुंदर को सुंदर।

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है।

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जैसे ईख से रस निकाल लेने पर केवल सीठी रह जाती है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय से प्रेम निकल गया, वह अस्थि चर्म का एक ढेर रह जाता है।

परिहास में औरत अजेय होती है, ख़ासकर जब वह बूढ़ी हो।

अपमान को निगल जाना चरित्र-पतन की अंतिम सीमा है।

वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राण-पोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम वसंत समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू।

यह ज़माना ख़ुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भी पूछेगा।

वह ज़ेहन किस काम का, जो हमारे गौरव की हत्या कर डाले!

पुस्तक पढ़ना तो चाहते हैं, पर गाँठ का पैसा ख़र्च करके नहीं। जिनकी माकूल आमदनी है वह भी पुस्तकों की भिक्षा माँगने में नहीं शरमाते।

धन और धरती के बीच आदिकाल से एक आकर्षण है। धरती में एक साधारण गुरुत्वाकर्षण के अलावा एक ख़ास ताक़त होती है जो हमेशा धन को अपनी ओर खींचती है।

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