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भास

समादृत संस्कृत नाटककार। 'स्वप्नवासवदत्ता', 'प्रतिज्ञा यौगंधरायण', 'आविमारक' आदि कृतियों के लिए उल्लेखनीय।

समादृत संस्कृत नाटककार। 'स्वप्नवासवदत्ता', 'प्रतिज्ञा यौगंधरायण', 'आविमारक' आदि कृतियों के लिए उल्लेखनीय।

भास के उद्धरण

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अंधकार मानो अंगों पर लेप कर रहा है। आकाश मानो अंजन बरसा रहा है। इस समय दृष्टि ऐसी निष्फल हो रही है जैसे दुष्ट पुरुषों की सेवा।

मेरी बुद्धि धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर झूल रही है।

मधुर पदार्थ भी अधिक खा लेने पर अजीर्ण कर देता है।

अपराधी की पूजा तो केवल वध है।

स्त्रियों का लड़कियों में अधिक स्नेह होता है।

यज्ञ, विवाह, संकट और वन में स्त्रियों का देखना है |

दरिद्रता मनुष्यों के लिए उच्छ्वासयुक्त मरण है।

मनुष्य अपने ही दोषों से शंकित हुआ करता है।

अकुलीन कैसे इतना दयाशील होगा?

दुर्दशा शत्रुओं के मन में भी मंत्री भाव ला देती है।

धर्म ही मनुष्य के द्वारा यत्नपूर्वक साध्य है।

स्त्रियों के तो पति ही अवलंब होते हैं।

लड़की के विवाह के समय माताओं को बड़ा दुःख होता है।

अकेला दूसरे के घर में प्रवेश करे, द्वितीय आदमी से मंत्रणा करे, बहुत आदमी लेकर युद्ध करे, यही शास्त्र का निर्णय है।

प्रत्युपकारी मनुष्य विपत्ति में ही अपने कार्य का फल प्राप्त करता है।

देने पर (कन्यादान करने से) तो लज्जा आती है और विवाह कर देने पर मन दुखी होता है। इस प्रकार धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर माताओं को बड़ा कष्ट होता है।

साक्षियों के सामने धरोहर लौटानी चाहिए।

समय बीतने पर उपार्जित विद्या नष्ट हो जाती है, मज़बूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर पड़ते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर) सूख जाता है। किंतु हुत (हवनादि किया हुआ पदार्थ) या सत्पात्त को दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है।

रूप, गौरव का कारण होता है और कुल। नीच हो या महान उसका कर्म ही उसकी शोभा बढ़ाता है।

मार्गरूपी नदियों में अंधकार बह रहा है। गृह-माला तटों के समान प्रतीत हो रही है। दसों दिशाएँ अंधकार में डूबी हुई हैं। अंधकार को मानो नौका से पार करना होगा।

प्रियजनों में दृढ़ हुए प्रेम को छोड़ना कठिन है। बार-बार उसका स्मरण करने से दुःख नया-सा हो जाता है। इस दशा में आँसू बहाना ही एकमात्र उपाय है। इससे प्रिय जन के प्रेम से उऋण होकर मन प्रसन्न होता है।

गुणशीलता, तात्कालिक परिस्थिति तथा भविष्य का विचार करके शीघ्रता तथा दीर्घसूत्रता दोनों को छोड़कर, देश-काल के अनुकूल अपना कार्य करना चाहिए।

दोषों को भूलकर भाइयों पर केवल स्नेह करना चाहिए, बंधुओं से प्रेम स्थापित करना, लोक-परलोक दोनों के लिए लाभदायक होता है।

यह निद्रा नेत्रों पर टिकी हुई, ललाट प्रदेश से उतरकर उसी प्रकार मुझे सता रही है, जैसे अदृश्य और चंचल वृद्धावस्था मनुष्य की शक्ति को पराजित करके बढ़ती जाती है।

सर्वत्र उदारता से काम नहीं करना चहिए।

पुत्र के लिए माताओं का हस्त-स्पर्श प्यासे के लिए जल-धारा के समान होता है।

पशु-पक्षी भी उपकार मानते हैं।

कन्या का पिता होना बहुत वंदनीय है।

समय ही पतन का कारण है।

देवता भक्ति से संतुष्ट होते हैं।

सत्कारपूर्वक स्वीकार किया गया सत्कार ही संतोष उत्पन्न करता है।

जो अधीर और असमर्थ होते हैं, उनमें उत्साह उत्पन्न नहीं होता। प्रायः उत्साही पुरुष ही राजसंपत्ति का उपभोग करते हैं।

बिना जूठा किए कौन खा सकता है?

सुख की अवस्था से जो दरिद्रता की दशा को प्राप्त होता है, वह तो शरीर से जीवित रहते हुए भी मृतक के समान ही जीता रहता है।

मूल से वृक्ष उखाड़ देने पर डाल काटने में क्या परिश्रम है?

कार्य की सिद्धि होने पर लोग राजा के बल की प्रशंसा करते हैं और असिद्धि होने पर लोग मंत्री की बुद्धि को दोष देते हैं।

मृत्यु का समय जाने पर कौन किसको बचा सकता है? रस्सी के टूट जाने पर घड़े को गिरने से कौन रोक सकता है? इसी तरह मनुष्य भी वृक्षों के समान (जैसे वृक्ष समय-समय पर काटे जाते हैं और उत्पन्न हो जाते हैं) समय-समय पर मरते और उत्पन्न होते हैं।

समय की गति के अनुसार बदलने वाली जगत् की भाग्यदशा पहिए के अरों की भाँति (ऊपर-नीचे) होती रहती है।

मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है।

मनुष्यों के लिए तो माता अवश्य ही देवताओं की भी देवता है।

बिना हाथी पर चढ़े हुए हाथी के ऊपर की पताका हस्तगत नहीं हो सकती।

ज्ञानियों ने ज्येष्ठ भ्राता को पिता के समान कहा है।

अर्थ, प्राण, तपस्या का फल और सब कुछ देना सरल है किंतु धरोहर की रक्षा करना कठिन है।

महान बंधु-स्नेह की तुलना में शरीर का प्रेम तुच्छ होता है।

काल तो उपाय करने वाले से भी अधिक बलवान होता है।

सभी राजा राजकुमारी को उसी प्रकार चाहते हैं, जिस प्रकार मल्ल लोग विजय-पताका को चाहा करते हैं।

उदार जन का सेवक भी उदार ही होता है।

सर्वत्र सम्पत्तियाँ हों। सदा विपत्तियों का नाश हो। पृथ्वी पर राजा के गुणों से युक्त एक योग्य राजा हम पर शासन करे, यही कामना है।

कुलगत विरोध होने पर भी बालकों का अपराध नहीं माना जाता है।

मातृ-दोष से पुरुषों को दोषी नहीं गिना जाता।

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