लक्ष्मीनारायण मिश्र के उद्धरण

स्त्री का हृदय सर्वत्र एक है; क्या पूर्व क्या पश्चिम, क्या देश क्या विदेश |

स्त्री किसी भी अवस्था की क्यों न हो, प्रकृति से माता है और पुरुष किसी भी अवस्था का क्यों न हो, प्रकृति से बालक है।

अपने धर्म की चिंता मनुष्य नहीं करता किंतु दूसरों के लिए वह बराबर धर्म बनाता चलता है।
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जाति पुरुष की होती है... कन्या की देह पर जाति का अवलेप नहीं चढ़ता। भाग्य जिस पुरुष के साथ जा लगे... उसकी जाति उस पुरुष की हो जाती है।
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देश की रक्षा राजा की सेना नहीं करती! देश की प्रजा करती है।
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साहित्य और कला की हमारी पूरी परंपरा में, जीव की प्रधान कामना आनंद की अनुभूति है।


धर्म कोई व्यक्ति नहीं बना सकता, प्रकृति बनाती है धर्म और प्रकृति के कर्म को जो तोड़ता है, वह अनाचारी है, वस्त्र उसके चाहे किसी रंग में रंगे हों।

न्याय तो होता है वास्तव में मनुष्य के हृदय में, और विचारक का काम करती है उसकी आत्मा।



लोकनिंदा भी कभी राजदंड से दबती है? दबाने पर तो ज्वालामुखी की तरह उसका विस्फोट होता है।
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जहाँ बुद्धि काम नहीं करती...पौरुष थक जाता है, वहाँ अंत में होनहार की आड़ ही काम देती है।
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राष्ट्र की रक्षा कोरे शास्त्र से नहीं हो सकती। शस्त्र रक्षित राष्ट्र में ही शास्त्र जन्म लेता है।
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