रजनीगंधा का साड़ी दर्शन
शशांक मिश्र
02 अगस्त 2025
साड़ी का ज़िक्र होने पर दृश्य कौंधते हैं—किसी मंदिर में हवन में जाने से पहले खिड़की तीरे बाल बाँधती और माँग भरती माँ। महीनों बाद के मांगलिक कार्यक्रम के लिए हफ़्तों से तैयार हो रही माँ की स्पेशल साड़ी जिसमें अब फ़ॉल लगने का काम चल रहा है। साड़ी है तो चाँदनी चौक की गलियाँ आबाद हैं। साड़ी है तो ‘यहाँ पिको होता है’ तख़्ती लगी दुकानें हैं। ख़याल के कहीं पिछले छोर पर अपनी माँ की साड़ी पहने प्रेमिका की तस्वीर भी अटकी है।
…और साड़ी से याद आती हैं ‘रजनीगंधा’ की विद्या सिन्हा।
बासु चटर्जी की ‘रजनीगंधा’ फ़िल्म 1974 में आई थी। यह फ़िल्म लेखिका मन्नू भंडारी कृत ‘यही सच है’ पुस्तक पर आधारित है। इसमें अमोल पालेकर, दिनेश ठाकुर और विद्या सिन्हा की प्रमुख भूमिकाएँ हैं। इसमें दिल्ली है, मुंबई है और साथ ही हैं तमाम तरह की सुंदर साड़ियाँ। इतनी साड़ियाँ हैं कि उन्हें गिना नहीं जा सकता, सिर्फ़ मंत्रमुग्ध हुआ जा सकता है। ग़ौर करेंगे तो देखेंगे कि विद्या सिन्हा का किरदार फ़िल्म के लगभग हर नए सीन में नई साड़ी में हैं। यह दावा भी अकाट्य ही है कि विद्या ने फ़िल्म में कोई भी साड़ी रिपीट नहीं की। क़ाबिल-ए-ग़ौर यह भी कि बासु दा ने विद्या को पहली बार साड़ी के एक विज्ञापन में ही देखा था और कास्टिंग के लिए तुरंत उनका नाम नत्थी कर दिया था। फिर साड़ी की यह पहचान आजीवन विद्या के साथ रही।
सत्तर के दशक में जब ‘रजनीगंधा’ आई, तब हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री चकाचौंध से भर्रा रही थी। नायिकाएँ जेवरों से लदे गले और भारी-भरकम कढ़ाई वाली साड़ियाँ या अन्य पश्चिमी पोशाकों में दिखती थीं। भव्यता को चाव से अपनाने वाले ख़ास दर्शक वर्ग में फ़ैंटसी क्रिएट करने के लिए चमक-दमक भरे अन्य प्रयोग भी थे। लेकिन शायद यह भी है : जब ज़माने में आधुनिकता का उफान आता है, तभी सादगी भी आम लोगों तक अपनी मेड़ बढ़ाती है।
फ़िल्म में क्या है?
दीपा (विद्या सिन्हा) भैया-भाभी के साथ दिल्ली में रहती हैं। संजय (अमोल पालेकर) के साथ लंबे समय से रिश्ते में है। चाय पीती हैं। जब ख़ुश होती है तो पड़ोसी के बेटे बंटी को कहानी सुना देती हैं। संजय की ज़िंदगी नौकरी में प्रमोशन का इंतज़ार कर रही है, यूनियनबाज़ी है, दीपा के लिए शिशु हृदय जैसा कोमल प्रेम है और उसके घर जाते समय हाथों में रजनीगंधा के फूल हैं। फ़िल्म इतनी सहज है कि कहीं कुछ बहुत बनावटी नहीं लगता। कहानी बहती है। कहीं-कहीं फ़्लैशबैक में भी जाती है।
एक और ख़ास प्रयोग है जो बहुत जँचता है। यह किरदार के साथ-साथ आपको भी सोचने का मौक़ा देता है। सवाल उठने पर सीन बीच में फ़्रीज़ हो जाता है, दीपा अंतर्मन से जो बात करती है वो वाइस ओवर में चलता है।
‘विद्या की नेचुरलनेस’
विद्या ने ‘रजनीगंधा’ में वही किया जो इरफ़ान ने ‘पीकू’ में किया। यह कोई तुलना नहीं हुई, बस ‘एफ़र्टलेस उपस्थिति’ के दो मानक बिंब हैं। विद्या का किरदार ‘दीपा’ फ़िल्म में सामाजिक यथार्थ की प्रतिनिधि है। मॉडर्न लेकिन सिंपल, शिक्षित लेकिन पारंपरिक भारतीय महिला। दीपा के अतीत और वर्तमान में भावनात्मक द्वंद्व हैं, लेकिन फ़िल्म देखने जाने पर बाएँ हाथ में घड़ी, बालों में गजरा और आँखों पर सनग्लासेज़ भी हैं। कानों में कभी-कभार हल्के झुमके लेकिन ज़्यादातर छोटी इयररिंग हैं। माथे पर बिंदी और गले में कभी चेन या मोतियों की माला है। दीपा की नीली, सफ़ेद, ऑफ़-व्हाइट, पिंक, पीच, गहरी लाल या मरून साड़ियाँ सिर्फ़ रंग नहीं बयाँ करतीं, बल्कि उनका चयन समयबोध को भी दर्शाता है।
फ़िल्म में एक लंबा सीन है : दीपा मुंबई गई है। कॉलेज में लेक्चरर के लिए इंटरव्यू है। दोस्त के घर पर रुकी है। दोनों का कॉमन दोस्त और कॉलेज के दिनों का दीपा का प्यार नवीन (दिनेश ठाकुर) बड़ा मददगार बनकर उभरा है। अपना काम छोड़कर दीपा के लिए सिफ़ारिश के काम में लगा है। रह-रहकर कौंधता अतीत जड़वत दीपा को चेताता है।
दोनों एक दिन मुंबई घूमने जाने को हैं। सिगरेट के कश खींचता नवीन बाहर इंतज़ार कर रहा है। ड्रेसिंग के सामने पूरी तरह तैयार बैठी दीपा को कुछ सूझता है और फिर वह बदलकर नीली साड़ी में आती हैं, क्योंकि नीला रंग नवीन को बहुत पसंद था।
नवीन जब कहता है—“इस साड़ी में बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो” तो दीपा लजा जाती है। दीपा के दिल में मीठी, नर्म-सी नाज़ुक उमंग खिल उठती है।
दीपा की साड़ियाँ ‘रजनीगंधा’ की कहानी का अनकहा हिस्सा हैं। यह सिर्फ़ फ़ैशन स्टेटमेंट ही नहीं, मौन दर्शन के साथ-साथ सांस्कृतिक सुगंध का एहसास भी हैं। करकश आधुनिकता पर एक सधे हुए तमाचे की तरह हैं।
अंतर्मन की ख़ूबसूरती पर कविताएँ पटी पड़ी हैं, तमाम फ़िलॉसाफ़ियाँ गढ़ी जाती हैं, लेकिन ख़ुमार बाराबंकवी ने पहले ही कहा है—“हुस्न जब मेहरबाँ हो तो क्या कीजिए…” नारीवाद की बहस से परे, ‘माय लाइफ़, माय चॉइस’ से शिगूफ़े से दूर सुंदरता शायद सिर्फ़ साड़ी की मोहताज है।
देखा जाए तो श्री कृष्ण भी द्रौपदी की ‘अंतहीन साड़ी’ ही हैं।
‘रजनीगंधा’ फ़िल्म को यहाँ देखा जा सकता है : https://youtu.be/hb2pdPDO7DM?si=WggchO6EEtxkxJpQ
~~~
शशांक मिश्र को और पढ़िए : चंदर से गलबहियाँ नहीं, सुधा पर लानत नहीं | स्पर्श : दुपहर में घर लौटने जितना सुख
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
28 नवम्बर 2025
पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’
ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि
18 नवम्बर 2025
मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं
Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल
30 नवम्बर 2025
गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!
मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक
23 नवम्बर 2025
सदी की आख़िरी माँएँ
मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,
04 नवम्बर 2025
जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक
—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें