Font by Mehr Nastaliq Web
noImage

भास

भास के उद्धरण

श्रेणीबद्ध करें

अंधकार मानो अंगों पर लेप कर रहा है। आकाश मानो अंजन बरसा रहा है। इस समय दृष्टि ऐसी निष्फल हो रही है जैसे दुष्ट पुरुषों की सेवा।

मेरी बुद्धि धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर झूल रही है।

मधुर पदार्थ भी अधिक खा लेने पर अजीर्ण कर देता है।

अपराधी की पूजा तो केवल वध है।

स्त्रियों का लड़कियों में अधिक स्नेह होता है।

यज्ञ, विवाह, संकट और वन में स्त्रियों का देखना है |

मनुष्य अपने ही दोषों से शंकित हुआ करता है।

दरिद्रता मनुष्यों के लिए उच्छ्वासयुक्त मरण है।

अकुलीन कैसे इतना दयाशील होगा?

धर्म ही मनुष्य के द्वारा यत्नपूर्वक साध्य है।

दुर्दशा शत्रुओं के मन में भी मंत्री भाव ला देती है।

स्त्रियों के तो पति ही अवलंब होते हैं।

समय बीतने पर उपार्जित विद्या नष्ट हो जाती है, मज़बूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर पड़ते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर) सूख जाता है। किंतु हुत (हवनादि किया हुआ पदार्थ) या सत्पात्त को दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है।

देने पर (कन्यादान करने से) तो लज्जा आती है और विवाह कर देने पर मन दुखी होता है। इस प्रकार धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर माताओं को बड़ा कष्ट होता है।

साक्षियों के सामने धरोहर लौटानी चाहिए।

अकेला दूसरे के घर में प्रवेश करे, द्वितीय आदमी से मंत्रणा करे, बहुत आदमी लेकर युद्ध करे, यही शास्त्र का निर्णय है।

मार्गरूपी नदियों में अंधकार बह रहा है। गृह-माला तटों के समान प्रतीत हो रही है। दसों दिशाएँ अंधकार में डूबी हुई हैं। अंधकार को मानो नौका से पार करना होगा।

प्रियजनों में दृढ़ हुए प्रेम को छोड़ना कठिन है। बार-बार उसका स्मरण करने से दुःख नया-सा हो जाता है। इस दशा में आँसू बहाना ही एकमात्र उपाय है। इससे प्रिय जन के प्रेम से उऋण होकर मन प्रसन्न होता है।

दोषों को भूलकर भाइयों पर केवल स्नेह करना चाहिए, बंधुओं से प्रेम स्थापित करना, लोक-परलोक दोनों के लिए लाभदायक होता है।

यह निद्रा नेत्रों पर टिकी हुई, ललाट प्रदेश से उतरकर उसी प्रकार मुझे सता रही है, जैसे अदृश्य और चंचल वृद्धावस्था मनुष्य की शक्ति को पराजित करके बढ़ती जाती है।

देवता भक्ति से संतुष्ट होते हैं।

सत्कारपूर्वक स्वीकार किया गया सत्कार ही संतोष उत्पन्न करता है।

सुख की अवस्था से जो दरिद्रता की दशा को प्राप्त होता है, वह तो शरीर से जीवित रहते हुए भी मृतक के समान ही जीता रहता है।

बिना जूठा किए कौन खा सकता है?

समय की गति के अनुसार बदलने वाली जगत् की भाग्यदशा पहिए के अरों की भाँति (ऊपर-नीचे) होती रहती है।

ज्ञानियों ने ज्येष्ठ भ्राता को पिता के समान कहा है।

मूल से वृक्ष उखाड़ देने पर डाल काटने में क्या परिश्रम है?

मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है।

सभी राजा राजकुमारी को उसी प्रकार चाहते हैं, जिस प्रकार मल्ल लोग विजय-पताका को चाहा करते हैं।

भवितव्यता, सिद्धों के सुपरीक्षित वचनों का उल्लंघन नहीं करती।

अहा, पृथ्वी में कैसे रत्न छिपे पड़े हैं!

द्वेष या आदर मन की भावना से होता है।

ग्रीष्म काल में सबकी प्यास बुझाने में ही स्वयं सूखे हुए एक महान सरोवर की भाँति वह सबकी तृष्णा को शांत करके निर्धन हो गया है।

लोगों की दृष्टि में प्रभावहीन बनाने वाली दरिद्रता शंकनीय होती है।

दरिद्रता के कारण पुरुष के बंधुजन उसकी वाणी का विश्वास नहीं करते, उसकी मनस्विता हँसी का विषय बन जाती है, शीलवान की कांति भी मलीन हो जाती है, बिना शत्रुता के ही मित्र लोग विमुख हो जाते हैं, आपत्तियाँ बड़ी हो जाती हैं और जो पाप कर्म अन्य लोगों द्वारा किया हुआ होता है, उसे बी उसी का किया हुआ मानने लगते हैं।

अभी भी मेरा मन तो वहीं है। उसे मेरी प्रिया ने ऐसा रोक लिया है कि वह मेरी ओर देखता भी नहीं है।

Recitation