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कहाँ गए वे लोकगीतों वाले दिन

कभी-कभी मेरे मन में एक दृश्य उतरता है। दृश्य—घनघोर बारिश का। चारों तरफ़ पानी-ही-पानी। मैं अकेले किसी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हूँ और कोई पद सुन रहा हूँ—कोई सूफ़ी-संगीत। मुझे आश्चर्य होता है कि जब-तब मैं इस दृश्य की कल्पना में डूब जाता हूँ। इसका रहस्य मुझे स्वयं नहीं मालूम। क्या ऐसा इसलिए होता है कि शर्मा जी मुझे बचपन में पद सुनाते थे। वह संगीतज्ञ नहीं थे, लेकिन उनकी टेर में एक जादू था। बाद में जब होश सँभाला तो कभी-कभार कीर्तन या लड़कियों के विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को सुनकर विभोर हो जाया करता था। आज भी जब बेटी की विदाई या सिंदूरदान के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को सुनता हूँ तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं। स्त्रियाँ जब देर रात इन गीतों को गाती हैं और उन्हें सुनते हुए मैं वह दृश्य विजुअलाइज करने लगता हूँ। ध्वनि दृश्य उत्पन्न कर सकते हैं। भले ही यह बात विज्ञान की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हो, लेकिन भावनाओं और संवेदनाओं के तल पर मूर्त रूप ले लेती हैं।

मूल बात की ओर लौटता हूँ। तब आकाशवाणी के सुनहरे दिन थे—अस्सी का दशक। लगभग तब तक मोटे तौर पर रेडियो भी स्टेटस सिंबल हुआ करता था। गाँव में मुश्किल से एक या दो आदमी के पास रेडियो होता था। वर्ष 1984 में मेरे घर में दहेज़ के रूप में ही सही, पत्नी के साथ पाँच बैटरी वाला रेडियो एक सिको घड़ी के साथ आया। मैं कभी-कभी बहुत तेज़ आवाज़ में उसे बजाया करता था। शायद बाल-बुद्धि के कारण लोगों को दिखाता था कि देखो, मेरे पास रेडियो है। घड़ी तो गेंहू के खेत में सिंचाई करने के दौरान पानी में इस तरह भीग गई कि उसने साँस लेना ही बंद कर दिया। बेचारा रेडियो कभी रसद मिलती तो बजता अन्यथा कोने में गुमसुम पड़ा रहता। लेकिन जब भी वह बजता मैं उसे छाती पर रखकर सुनता रहता। कुछ निर्धारित कार्यक्रमों को तो मैं कभी नहीं भूलता। आकाशवाणी पटना के चौपाल, लोकगीत और अनंत कुमार का प्रादेशिक समाचार-वाचन मेरे लिए अविस्मरणीय है। इन प्रस्तोताओं की आवाज़ में जादू था। विविध भारती और फ़रमाइशी फ़िल्मी गीत भी ऐसे ही कार्यक्रम थे—जो बहुत प्रिय थे, पर जिसका जादू सर पर चढ़ कर बोलता था वह था लोकगीत। जहाँ तक मैं याद कर रहा हूँ—विंध्यवासिनी देवी, सुदर्शन तिवारी शाहाबादी, संत कुमार सिंह राकेश, मोहिनी देवी आदि के स्वर में लोकगीत प्रसारित होते रहते थे। भोजपुरी, मगही के अलावा कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लोकगीत भी प्रसारित होते थे। रेडियो नाटकों का भी मैं मुरीद था। बीबीसी के समाचार तो धर्मराज युधिष्ठिर के शब्द थे।

लोकगीतों के प्रति मेरी दीवानगी दिल में उतरने वाली सरल-सहज भाषा के कारण थी। उसका दूसरा मुख्य कारण इसमें लोक के सुख-दुख थे, जिन्हें मैं देखा-सुना करता था। यह कहना अधिक सही होगा कि लोकगीत लोक की सबसे विश्वसनीय आवाज़ हैं। इसमें कोई मिलावट नहीं है। मैं प्रसारित होने वाले लोकगीतों को कॉपी पर लिख लेता था। कोई पंक्ति यदि छूट जाती थी तो बड़ा पछतावा होता था। लोकगीतों में विषय और शैली की दृष्टि से इतनी विविधता है कि आश्चर्य होता है। जैसे—विभिन्न समयों के लिए अलग-अलग राग-रागिनियाँ हैं, वैसे ही बारहों महीनों और विभिन्न अवसरों के लोकगीत हैं। सावन में कजरी का आनंद लेते हैं तो आश्विन में देवी गीत। फागुन में फाग गाते हैं तो चैत में चैता। इसमें कोई विचलन मन को नहीं सुहाता और हास्यास्पद लगता है। अपने देश की विविधता में भी विविधता है। इस अर्थ में यह सबसे विलक्षण देश है। हम गाते-गाते रो पड़ते हैं तो फिर आँसू पोंछकर गाना शुरू कर देते हैं। शायद ही दुनिया में कहीं ऐसा होता हो। यह उत्सवधर्मिता अन्यत्र आसानी से सुलभ नहीं है। हम उदासी के भी गीत गाते हैं। जागने के लिए प्रभाती तो सोने के लिए दादी, नानी या माँ की मीठी लोरी है। हमारे यहाँ सुख और दुख दोनों के गीत हैं।

किशोरावस्था में जब लोग फ़िल्मों के दीवाने होते हैं, मुझे फ़िल्मी गीत बहुत पसंद नहीं आते थे। वर्तमान परिवेश में यदि किसी युवक को किसी लोकगीत का मुखड़ा सुनाने के लिए कहा जाए तो न केवल वह चुप रहेगा अपितु प्रश्नकर्ता पर भड़क भी सकता है। उसके लिए लोकगीत पिछड़ेपन का प्रतीक है। ग्रामीण परिवेश लोकगीतों की जन्मभूमि है। वे यहीं जन्म लेते हैं और ग्राम्य कंठ ही इनका पालन-पोषण करते हैं। शहर की मिट्टी इनके लिए बहुत अनुकूल नहीं है। बहरहाल, आज भी यदि दो अलग-अलग महफ़िल सजाई जाएँ तो मैं फ़िल्मी गीतों को छोड़कर लोकगीतों की महफ़िल में रात भर बैठना पसंद करूँगा। मेरे लिए इसकी दीवानगी का मुख्य कारण यह है कि यह मेरे दिल के तारों को छेड़ देता है। मैं इसके नशे में डूब जाता हूँ। मैं भिखारी ठाकुर और महिन्दर मिसिर को भूल नहीं पाता। इनके जीवन पर लिखे संजीव के उपन्यासों को मैंने मनोयोग से पढ़ा है। आज भी इनके रचित गीतों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर पढ़ता हूँ। कुछ लोग भोजपुरी गायक बलेसर के गीतों पर अश्लीलता का आरोप लगते हैं, लेकिन मैं उन्हें घंटों सुनना पसंद करूँगा। वह तत्कालीन भोजपुरी समाज के प्रतिनिधि गायक थे। सवाल यह है कि आप चीजों को ग्रहण किस भाव से करते हैं। जजमेंटल बने से कोई सच्चा आलोचक नहीं हो सकता। आलोचना के लिए नीर-क्षीर दृष्टि अपेक्षित होती है।

मिलावट के इस बुरे दौर में लोकगीतों के अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है। हम अपनी विरासत को सँभालने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं। भाषणों में विरासत की चर्चा अच्छी लगती है, लेकिन सरकार के स्तर पर ऐसा क्या किया जा रहा है जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके। माना कि समय बदला और हमें ज़माने के साथ चलना चाहिए लेकिन इसका क्या मतलब कि बूढ़े बाप पीछे छूट जाए और हम बेटों के साथ दौड़ने लगें। एक संतुलन तो बिठाना ही चाहिए। इनका संरक्षण होना चाहिए। और होना चाहिए नयी प्रतिभाओं का स्वागत और प्रोत्साहन भी। आज, मैथिली ठाकुर जहाँ तक मैं समझता हूँ—अपने बल-बूते एक शानदार मुकाम पर पहुँची है। तब कहीं जाकर उन्हें आमंत्रित कर सम्मानित किया जा रहा है। सवाल उठता है कि हमारी व्यवस्था ने कितने मैथिली ठाकुर, संजोली पांडेय, चन्दन तिवारी आदि के निर्माण के लिए कौन-सा ठोस प्रयास किया। जो बने अपने संघर्ष के बल पर कामयाब हुए। लोक ने उन्हें प्यार-दुलार दिया। तब जाकर कहीं उनकी आवाज़ दिल्ली तक पहुँची। यह किसी एक प्रदेश की बात नहीं है। सभी प्रान्तों और उनके विभिन्न इलाक़ों के अलग-अलग लोकगीत हैं। उनकी एक समृद्ध परंपरा रही है। कोई भी प्रदेश दूसरे से कम नहीं है। हमारे बौदधिक वर्ग के द्वारा भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय काम नहीं हुआ है। आने वाले समय में शायद ही कोई यकीन करेगा कि इस देश में कोई देवेंद्र सत्यार्थी भी हुआ था, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन लोकगीतों की खोज में लगा दिया। पुरानी पीढ़ी के साहित्यकार कभी उन्हें याद भी कर लेते हैं तो नए लोगों का उनसे क्या लेना-देना। ख़ैर, सब की अपनी विवशता या कार्य-प्रणाली है। मुख्य चिंता इस बात की होनी चाहिए कि हमारी विरासत कहीं विलुप्त न हो जाए। और उससे भी बड़ी चिंता उसके मूल स्वरूप को बचाने की होनी चाहिए। इस अर्थ प्रधान युग में अर्थ के लिए शब्दों के साथ भी बहुत अनर्थ हो रहा है। किसी की टोपी किसी के सर पहनाने का कुत्सित खेल चलता रहता है। कला-संस्कृति की दुनिया की पावनता बनी रहनी चाहिए। निजी लाभ के लिए घालमेल नहीं हो यह हमारी चिंताओं में शामिल होना चाहिए।
हमने कभी यह विचार किया ही नहीं कि हमारे पूर्वजों ने इसे धरोहर के रूप में हमें सौंपा है। यह उनका गाढ़ी मेहनत से अर्जित धन है। जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी से सुरक्षित रहती आयी है। चूँकि, हम और हमसे भी कहीं अधिक वर्तमान युवा पीढ़ी लापरवाह है, जो इसका महत्व नहीं समझ पा रही है। यह लोक की संपत्ति है, पूँजी है। इसकी पहरेदारी लोक को ही करना पड़ेगा। फ़िल्मों के लिए बोर्ड का गठन हुआ है। लोकगीतों पर कौन ध्यान देगा। इसे हम कला-संस्कृति विभाग के हवाले छोड़ नहीं सकते। हमने कभी देखा या सुना नहीं है कि किसी नौकरशाह ने क्रांति की हो। क्रांति से यहाँ अभिप्रेत मिशनरी भाव से युद्ध स्तर पर किसी काम को पूरा करना। यह सही है कि यह एक व्यक्ति का काम नहीं है। इसके लिए सब को आगे आना होगा। समर्पण और निष्ठा के बल पर ही हम गीतों वाले उन्हीं पुराने दिनों को लौटा सकते हैं। दिन लौटते भी हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक निबंध है—'क्यों निराश हुआ जाए। हमें भी निराश क्यों होना। दिन लौटते भी हैं।

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