माया पर दोहे
‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’—भारतीय
दर्शन में संसार को मिथ्या या माया के रूप में देखा गया है। भक्ति में इसी भावना का प्रसार ‘कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम’ के रूप में हुआ है। माया को अविद्या कहा गया है जो ब्रह्म और जीव को एकमेव नहीं होने देती। माया का सामान्य अर्थ धन-दौलत, भ्रम या इंद्रजाल है। इस चयन में माया और भ्रम के विभिन्न पाठ और प्रसंग देती अभिव्यक्तियों का संकलन किया गया है।
कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥
यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा
उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।
हस्ती छूटा मन फिरै, क्यूँ ही बंध्या न जाइ।
बहुत महावत पचि गये, दादू कछू न बसाइ॥
विषय-वासनाओं और विकारों रूपी मद से मतवाला हुआ यह मन रूपी हस्ती निरंकुश होकर सांसारिक प्रपंचों के जंगल में विचर रहा है। आत्म-संयम और गुरु-उपदेशों रूपी साँकल के बिना बंध नहीं पा रहा है। ब्रह्म-ज्ञान रूपी अंकुश से रहित अनेक महावत पचकर हार गए, किंतु वे उसे वश में न कर सके।
घर दीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाय।
‘तुलसी’ घर बन बीच रहू, राम प्रेम-पुर छाय॥
यदि मनुष्य एक स्थान पर घर करके बैठ जाय तो वह वहाँ की माया-ममता में फँसकर उस प्रभु के घर से विमुख हो जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य घर छोड़ देता है तो उसका घर बिगड़ जाता है, इसलिए कवि का कथन है कि भगवान् राम के प्रेम का नगर बना कर घर और बन दोनों के बीच समान रूप से रहो, पर आसक्ति किसी में न रखो।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥
कबीर कहते हैं कि प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।
जम-करि-मुँह तरहरि परयौ, इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय तृषा परिहरि अजौं, नरहरि के गुन गाउ॥
तू यमराज रूपी हाथी के मुख के नीचे पड़ा हुआ है जहाँ से बच पाना दुष्कर है। अत: तू इस निश्चय को अपने ध्यान में ला और अब भी विषय-वासना की तृष्णा को त्यागकर भगवान का गुण-गान प्रारंभ कर दे।
कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥
यह संसार अँधा है। यह ऐसी अँधी गाय की तरह है, जिसका बछड़ा तो मर गया किंतु वह खड़ी-खड़ी उसके चमड़े को चाट रही है। सारे प्राणी उन्हीं वस्तुओं के प्रति राग रखते हैं जो मृत या मरणशील हैं। मोहवश जीव असत्य की ओर ही आकर्षित होता है।
राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह॥
जैसे सूर्य को दूर देखकर छाया लंबी हो जाती है और सूर्य जब सिर पर आ जाता है तब वह ठीक पैरों के नीचे आ जाती है, उसी प्रकार श्री राम से दूर रहने पर माया बढ़ती है और जब वह श्री राम को मन में विराजित जानती है, तब घट जाती है।
सत्य बचन मानस बिमल, कपट रहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि, सकै न कलिजुग धूति॥
तुलसी कहते हैं कि जिनके वचन सत्य होते हैं, मन निर्मल होता है और क्रिया कपट रहित होती है, ऐसे श्री राम के भक्तों को कलियुग कभी धोखा नहीं दे सकता (वे माया में नही फंस सकते)।
माया जीव सुझाव गुन, काल करम महदादि।
ईस अंक ते बढ़त सब, ईस अंक बिनु आदि॥
माया, जीव, स्वभाव, गुण, काल, कर्म और महत्त्वादि सब ईश्वररूपी अंग के संयोग से बढ़ते हैं और उस अंग के बिना व्यर्थ हो जाते हैं।
असि माया मोपर करो, चलें न माया ज़ोर।
माया मायारहित दिहू, निज पद नंदकिशोर॥
हे नंदकिशोर! मुझ पर ऐसी ममता रखिये, जिससे माया का कुछ भी ज़ोर न चले। माया-रहित करके आप मुझे अपने चरण-कमलों का प्रेम दीजिए।
यह सुमेर लखि व्याल तूँ, क्यों दौरत इतराय।
बरजै पै मानै नहीं, कह जमाल समुझाय॥
हे चंचल मन! स्त्री के उन्नत स्तनों को देखकर तू लोभ वश क्यों माया जाल में फँसना चाहता है? समझाने पर भी क्यों नहीं मान रहा है?
धन दारा संपत्ति सकल, जिनि अपनी करि मानि।
इन में कुछ संगी नहीं, नानक साची जानि॥
आशा विषय विकार की, बध्या जग संसार।
लख चौरासी फेर में, भरमत बारंबार ॥
पीपा माया सब कथी, माया तो अणतोल।
कयां राम के नेहड़े, कयां राम के पोल॥
पीपा माया नागणी, मन में धरौ बिसाल।
जिन जिन दूध परोसियो, उण रो करियो नास॥
जप तप तीरथ दान ब्रत, जोग जग्य आचार।
‘भगवत' भक्ति अनन्य बिनु, जीव भ्रमत संसार॥
माया कारनि ध्यावहीं, मूरख लोग अजान।
कहु नानक बिनु हरि भजन, बिर्था जन्म सिरान॥
भ्रम भागा गुरु बचन सुनि, मोह रहा नहिं लेस।
तब माया छल हित किया, महा मोहनी भेस॥
प्रानी राम न चेतई, मद माया के अंध।
कहु नानक हरि भजन बिनु, परत ताहि जम फंद॥
मनु माइआ में फँधि रहिओ, बिसरिओ गोबिंद नाम।
कहु नानक बिनु हरि भजन, जीवन कउने काम॥
मन माइआ में रमि रह्यो, निकसत नाहिन मीत।
नानक मूरत चित्र जिउं, छाड़त नाहिनि भीत॥
मनसा वाचा करमणा, सुमरण सब सुख मूल।
पीपा माया मत चलै, तू हरि नाम न भूल॥
झूठे मानु कहा करै, जगु सुपने जिउ जान।
इन में कछु तेरो नहीं, नानक कहिओ बखान॥
भली बुरी दोनूँ तजो, माया जाणो ख़ाक।
आदर जाकूँ दीजसौ, दरगा खुलिया ताक॥
कनकु कनक तैं सौगुनौ मादकता अधिकाइ।
उहिं खाऐं बौराइ जग इहिं पाऐं हीं बौराइ॥
स्वर्ण और धतूरे दोनों में मादकता होती है। सोने में धतूरे से सौगुनी अधिक मादकता पाई जाती है। स्पष्ट शब्दों में सोना धातु होकर भी मनुष्य को उन्मत्त और पागल बना देता है तभी तो संसार में यह देखा जाता है कि लोग धतूरे को खाकर पागल होते हैं और सोने को प्राप्त करके ही उन्मत्त हो जाते हैं। जिस वस्तु की प्राप्ति-मात्र से उन्मत्तता बढ़ जाए वह निश्चय ही उस वस्तु की तुलना में अधिक मादक है जो खाने के पश्चात् मनुष्य की बुद्धि और विवेकशीलता को समाप्त कर देती है।
सुरत रूप अति अचरजी, वर्णन किया न जाय।
देह रूप मिथ्या तजा, सत्तरूप हो जायं॥
लोक वेद में जो पड़े, नाग पाँच डस खाय।
जनम-जनम दुख में रहें, रोवें और चिल्लाय॥