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नामवर सिंह

1926 - 2019 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

अत्यंत समादृत भारतीय लेखक। हिंदी आलोचना के शीर्षस्थ आलोचक। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

अत्यंत समादृत भारतीय लेखक। हिंदी आलोचना के शीर्षस्थ आलोचक। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

नामवर सिंह के उद्धरण

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वेद और लोक, इन दोनों के बीच संवाद के द्वारा भारतीय संस्कृति का विकास हुआ है। कभी तनाव भी रहा है, द्वन्द भी रहा है लेकिन चाहे वह द्वन्द हो, चाहे वह तनाव हो—इन सबके साथ बराबर एक संवाद बना रहा हैं।

आर्य संस्कृति और आर्यों में ‘ऋग्वेद’ का प्रमुख देवता इन्द्र था। यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, महेश—तीनों का नाम लिया जाता है। ब्रह्मा की महिमा धीरे-धीरे घटती गई। इन्द्र की महिमा घटती गई और कृष्ण आते गए। इसका मूल स्रोत कहीं लोकजीवन से जोड़कर देखना चाहिए।

इस देश की परंपरा रही है कि लोक और शास्त्र, लगातार संवाद करते रहे हैं।

मैं इसलिए यह कहना जरूरी समझता हूँ कि जब से संस्कृत और लोकभाषाओं के बीच संवाद समाप्त हुआ है—भाषाओं की क्षति हुई है।

जब कोई नए ईश्वर की रचना करता है; तो समझ लेना चाहिए कि ईश्वर के रूप में मनुष्य, अपनी एक नई मूर्ति गढ़ रहा है।

अगर कोई विचारधारा केवल गद्य में अपने को अभिव्यक्त करे, तो समझ लीजिए कहीं कोई कमी है।

उच्च वर्गों द्वारा भक्ति काव्य के आयत्तीकरण (Appropriation) की इस प्रक्रिया का ही एक रूप है—भक्ति आन्दोलन को मुस्लिम आक्रमणकारियों की प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश।

भक्ति का कोषगत अर्थ है—विभाजन। जहाँ अलगाव है, वहीं भक्ति है। इसलिए भक्ति का एक अर्थ जो विभाजन है, वह जीवन और ब्रह्म का शाश्वत विभाजन है।

जीवट की भाषा उनके बीच होती हैऔर जैसे-जैसे उससे हम दूर होते जाते हैं—चाहे वे तेलगू बोलने वाले हों, चाहे वे तमिल बोलने वाले हों, चाहे हिंदी बोलने वाले हों—भाषा मरती जाती है। लेकिन भाषा का वह मूल रूप, स्त्रियों और श्रमिकों के बीच जीवित रहता है। वे ही भाषा को बनाते हैं। इसलिए भाषा मूलतः जीवित रूप में वहाँ से प्राप्त हुई।

तुलसीदास ने रामराज्य के रूप में एक यूटोपिया की सृष्टि की है। भक्त इस लोक को अपर्याप्त समझते थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। स्वप्नदर्शी भी थे इसलिए उन्होंने एक ऐसे लोक की भी कल्पना की, कम-से-कम उसका स्वप्न देखा और समाज के सामने आदर्श रखा।

प्राचीन समाज-व्यवस्था में चाहे आदमी जिस जाति का हो, लेकिन उस जाति को छिपाता नहीं था। उस जाति का होने में भी अपने-आपमें एक सम्मान अनुभव करता था। आज वह मनुष्य ज्यादा उपेक्षित, पीड़ित, दलित और पतित मान लिया गया है।

भक्तों ने पहली बार यह स्थापित किया कि भक्त का महत्त्व जात के कारण नहीं, कुल के कारण नहीं, पद के कारण नहीं, सम्पत्ति के कारण नहीं, धर्म के कारण नहीं होता—बल्कि उसका महत्त्व होता है उसके भक्ति भाव के कारण। इसलिए वह व्यक्ति रूप में महत्त्वपूर्ण है।

इंडिविजुअल ह्यूमन बीइंग्स—जिस पर यूरोप को गर्व है कि उनकी देन है—मैं कहना चाहता हूँ कि भारत में वह भक्ति की देन है। वह अंग्रेजों का तोहफ़ा नहीं है।

जिस प्रकार स्वच्छंद समाज का स्वप्न अंग्रेज कवि शेली देखा करते थे, उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।

किसी लेखक के दृष्टिकोण को उसे पैदा करनेवाले जाति, वर्ग या समाज के आधार पर निर्धारित करने का प्रयास ‘फूहड़ समाजशास्त्र’ है।

वैष्णवों का कृष्ण—लोकल और क्लासिकल का संयुक्त रूप है।

राम से बड़ी ट्रेजेडी किसी के जीवन में हो—ऐसा कोई दूसरा नायक दिखाई नहीं पड़ता।

भक्ति कविता का संसार से जो सम्बन्ध है, मुझे एक किसान की टिनेसिटी (तपस्या) मालूम होती हैं कि तकलीफ़ होने के बावजूद खेत से जुड़ा है।

व्यक्ति मानव की गरिमा की स्थापना भारतीय इतिहास में पहली बार जिस दृढ़ता के साथ भक्त ने की, यह उसकी आधुनिकता का प्रमाण है।

भारतीय संगीत के इतिहास में भक्ति के आने के साथ भजन और कीर्तन से एक नए संगीत की शुरुआत हुई।

जो ग्राम-समुदाय था, जो गाँव था—वह अपने-आपमें स्वतः सम्पूर्ण हुआ करता था। समाज धर्म द्वारा अनुशासित होता था और धर्म एक आचार-संहिता का नाम था, जिसमें कुछ नियम स्थानीय थे और कुछ सार्वदेशिक।

आदमी की पहचान केवल नाम से ही नहीं होती, रूप से भी होती है। इसलिए भक्तों ने भगवान को रूप ही नहीं दिया बल्कि भगवान जिस देश में आए, उस देश के प्रत्येक प्रदेश को और उसकी अपनी भाषाई अस्मिता में आत्मसात् किया।

छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास भारतीय इतिहास में भक्ति की जो ऐतिहासिक क्रान्तिकारी घटना हुई थी, उसका जन्म लोकजीवन में हुआ था, लोकभाषा में हुआ था। उसका श्रेय आदि-अद्विज अब्राह्मणों को है। इसे दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने शुरू किया था।

साहित्य यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति का प्राण है और यदि संस्कृति चिरन्तन होती है, तो निस्सन्देह एक महान साहित्यिक की मान्यताएँ-विचारणाएँ चिरन्तन होती हैं।

समूचे भारतीय चिन्तन और भारतीय संवेदना के शताब्दियों लंबे, वेद से लेकर आज तक के पूरे इतिहास पर दृष्टिपात करें तो एक महत्त्वपूर्ण बात दिखाई पड़ती है और वह है छठी से नवीं शताब्दी के बीच में एक शिफ्ट, अवसरण या परिवर्तन।

छठी से नवीं शताब्दी के बीच पल्लव राजाओं का जमाना केवल सुख-शांति का ही ज़माना नहीं था, युद्ध और कला भी बहुत थी।

भरत मुनि ने जब 'नाट्यशास्त्र' लिखा तो 'नाट्यशास्त्र' को उन्होंने पंचम् वेद कहा; अर्थात् चार वेदों की परम्परा में एक नये वेद की आवश्यकता है। उस नए वेद की घोषणा के साथ इस देश का जन-समुदाय एक नए परिवर्तन की, एक नई क्रांति की सूचना देता है।

दक्षिण ने जिस कृष्ण की मूर्ति ‘श्रीमद्भागवत’ में गढ़ी और जो दक्षिण में रचा गया था—वह महाभारत के कृष्ण से अलग

आर्यों के समय में चाहे जिस प्रकार के स्थापत्य रहे हों लेकिन गुप्तों के बाद इस भक्ति भावना का विकास हुआ, वह भी नये कला-रूपों में।

जो प्रेम ‘लोक और वेद’, दोनों के प्रलोभनों से दूर है, उसे लोक-विरोधी अथवा लोक-निरपेक्ष कैसे कहा जा सकता है?

भक्ति महारस है और यह 'नाट्यशास्त्र' के विभिन्न रसों में से एक है। वह रस ऑब्जेक्टिव निर्वैयक्तिक हो सकता है। कालिदास ने कहा है कि यह भावयिक रस है। इसमें भक्ति के अनुभव पर ज़ोर है। भाव पर है। 'भक्ति-भाव' शब्द का प्रयोग आम तौर पर व्यवहार में होता है।

भक्त पहले यूटोपियन थे और उन्होंने उस आदर्श लोक की भी कल्पना की।

इस देश में लम्बे समय तक वह परंपरा समाप्त नहीं हुई है, जिसे दक्षिण के एक समाजशास्त्री 'एम.एन. श्रीनिवास' ने समाजशास्त्र की भाषा में 'संस्कृताइजेशन' कहा था।

भक्ति के साथ नृत्य-कला का विकास हुआ।

छठी शताब्दी के आसपास एक सांस्कृतिक शिफ्ट थी, एक परिवर्तन था, एक क्रान्ति हुई थी और इस क्रान्ति का ही एक प्रचलित नाम भक्ति है।

भक्ति का मूल अर्थ ही है डूब जाना, डुबा देना—भगवान में और भगवानमयी विश्व में। यह डूबने वाला जो भाव है, एक नया पोयटिक्स है। इस नये पोयटिक्स का निर्माण भक्तों ने किया, जिसका एक रूप ऐन्द्रियता है।

हिन्दी के सूफी संतों ने लोककथाओं को अपने आदर्शों के लिए अपनाया। लोककथाओं को इस तरह अपनाने का उत्साह, हिन्दी के हिन्दू-भक्त कवियों में नहीं देखा गया।

सच्चाई तो यह है कि भक्ति एक तरह से कविता में भाषा का नृत्य है। यह एक उन्माद है। चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध साक्षात् रूप से उसके साथ जुड़ा हुआ है। वह भक्ति के आवेश में नाचने लगते थे।

'भक्ति-काव्य' को केवल काव्य तक सीमित रखना, उसे अधूरा रखना है। भले ही आरम्भ उसका काव्य के रूप में हुआ है लेकिन अगर आप ध्यान दें कि उसका अन्य कलाओं में भी विस्तार हुआ।

सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में भारत एक है, राजनीतिक रूप में भले ही एक हुआ हो।

साहित्य एवं समाज का एक शाश्वत द्वंद्व होता है, जो किसी भी युग के लिए सत्य उतरता है।

भक्तों ने रहनि को (रहन-सहन को), ‘वे ऑफ लाइफ’ को महत्त्व दिया है।

तुलसीदास कहते हैं ‘कबहूँ हौं यहि रहनि रहौंगो’— यह जो रहनि है, इसे ही कल्वर कहते हैं। यह रहनि यह नहीं है कि कैसे रहेंगे। यह नित्यकर्म करना नहीं है।

तुलसीदास ने कहा कि केवल वह कीजिए, जो लोक-सम्मत हो, जो केवल लोगों को अच्छा लगे। वह कीजिए जो साधु सम्मत हो, अर्थात् विवेकपूर्ण हो, उचित हो, बुद्धिसंगत हो, सिद्धान्ततः सही हो। इसलिए लोकमत और साधुमत, दोनों को ध्यान में रखिए।

मध्यकाल में जो हमारी व्यवस्था थी, उस व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता अपेक्षाकृत आकस्मिक थी।

छुट्टा हो जाने पर भी बहुत सुख मिलता हो, ऐसा कहना कठिन है।

भक्ति के कारण मूर्तिकला का विकास हुआ है। भक्ति का स्थापन, विशेष रूप से दक्षिण के मन्दिरों में और क्रमशः उत्तर में भी हुआ है। चाहे कोणार्क में हुआ हो, चाहे खजुराहो के रूप में हुआ हो—एक नए स्थापत्य का विकास हुआ है।

भक्तों की परंपरा वाचिक परंपरा थी। ‘मसि कागद छुओ नहीं’ कविता लिखकर और कागज़ लेकर पढ़नेवाले आजकल के कवियों की तरह भक्त नहीं थे; बल्कि उनके यहाँ गान का स्वतःस्फूर्त ही विस्फोट होता था। वे सामान्य जनों के बीच में गान करते थे।

भक्ति अपने-आपमें टोटल कल्चर है, केवल कविता नहीं है।

कबीर जैसा आदमी 'नाच रे मन मद नाच' कहते हुए नाचता हुआ-सा दिखाई पड़ता है।

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