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जातिवाद पर उद्धरण

भारतीय समाज के संदर्भ

में कवि कह गया है : ‘जाति नहीं जाती!’ प्रस्तुत चयन में जाति की विडंबना और जातिवाद के दंश के दर्द को बयान करती कविताएँ संकलित की गई हैं।

तुमने मांसभोजी क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाएँ या खाएँ, वे ही हिंदू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता है, जिनको तुम महत् और सुंदर देखते हो।उपनिषद् किन्होंने लिखी थी? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों नें धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा, उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्याससूत्र पढ़ो, या किसी से सुन लो। गीता में भक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परंतु व्यास ग़रीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी के प्रवाह में बाधा खड़ी हो जाएगी? अगर वह ऐसा ही है, तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं।

स्वामी विवेकानन्द

जाति-प्रथा भारत के बीजों पर अंकित है। उसे बदलना हो, तो बीज-सुधार का एक लंबा कार्यक्रम हाथ में लेना होगा। विकासवाद का कहना है कि कोई भी जीव-जंतु दो तरीक़ों से बदलता है या तो अनुकूलन से या उत्परिवर्तन से। अनुकूलन की प्रक्रिया लंबी होती है।

राजेंद्र माथुर

मेरी राय में हिंदू धर्म में दिखाई पड़ने वाली अस्पृश्यता का वर्तमान रूप, ईश्वर और मनुष्य के ख़िलाफ़ किया गया भयंकर अपराध है और इसलिए वह एक ऐसा विष है जो धीरे-धीरे हिंदू धर्म के प्राण को ही निःशेष किए दे रहा है।

महात्मा गांधी

भारतीय समाज की जाति की चारदीवारी इतनी ऊँची और मजबूत है कि उसे लाँघना असंभव है। जाति के बाहर कोई कितना भी बड़ा क्यों हो, उसका जीवन कूड़े की तरह होता है।

दुर्गा भागवत

वेदव्यास और वाल्मीकि में से कोई भी जाति के आधार पर महान नहीं बने थे।

यू. आर. अनंतमूर्ति

हम पशुओं की पूजा करते हैं, लेकिन इंसान को पास नहीं फटकने देते।

भगत सिंह

पुरोहितगण चाहे कुछ भी बकें; वर्ण-व्यवस्था केवल एक सामाजिक विधान ही है, जिसका काम हो चुका। अब तो वह भारतीय वायुमंडल में दुर्गंध फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करती।

स्वामी विवेकानन्द

हमारे यहाँ आज भी शास्त्र सर्वोपरि है और जाति-प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमांटिक कार्रवाइयाँ हैं।

श्रीलाल शुक्ल

सब वर्गों की हँसी और ठहाके अलग-अलग होते हैं।

श्रीलाल शुक्ल

अब जात-पाँत के, ऊँच-नीच के, संप्रदायों के भेद-भाव भूलकर सब एक हो जाइए। मेल रखिए और निडर बनिए। तुम्हारे मन समान हों। घर में बैठकर काम करने का समय नहीं है। बीती हुई घड़ियाँ ज्योतिषी भी नहीं देखता।

सरदार वल्लभ भाई पटेल

प्राचीन समाज-व्यवस्था में चाहे आदमी जिस जाति का हो, लेकिन उस जाति को छिपाता नहीं था। उस जाति का होने में भी अपने-आपमें एक सम्मान अनुभव करता था। आज वह मनुष्य ज्यादा उपेक्षित, पीड़ित, दलित और पतित मान लिया गया है।

नामवर सिंह

हे धृतराष्ट्र! जलती हुई लकड़ियाँ अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्वलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जाति-बंधु भी आपस में फूट होने पर दुख उठाते हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं।

वेदव्यास

इतिहास के आरंभिक काल से ही भारत भी अपनी एक समस्या से लगातार जूझता रहा है—और यह समस्या है जाति प्रथा की।

रवींद्रनाथ टैगोर

भारतीय समाज-व्यवस्था मूलतः असमतावादी थी और शोषण पर आश्रित थी। वर्ण और जाति का आधार शुचिता की भावना थी; किंतु समाज के स्तरभेद के ऐतिहासिक विकास में, शुद्ध-अशुद्ध के विचार के साथ—आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के समीकरण भी जुड़े थे।

श्यामाचरण दुबे

जिन समाजों में साहित्य की कला को वर्ग/जाति के वर्चस्व को संगठित करने के माध्यम की तरह महत्व दिया जाता है, वहाँ साहित्यालोचना बहुत महत्व प्राप्त कर लेती है।

गणेश देवी

हमारा भाषा-आंदोलन तो मुक्ति का आंदोलन है, जिसमें शूद्र को शूदत्व से मुक्ति और ब्राह्मण को ब्राह्मणत्व के अहं से मुक्ति है।

यू. आर. अनंतमूर्ति

क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति-शाखा के अंतर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि—निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया?

गजानन माधव मुक्तिबोध

वर्ग-समाज में मानव-स्वभाव का स्वरूप भी वर्गमूलक ही होता है; वर्गों से परे कोई मानव-स्वभाव नहीं होता।

माओ ज़ेडॉन्ग

मैं चाहूँ या चाहूँ, अपने समाज में अपने सारे मानववाद के बावजूद, मैं एक जाति-विशेष का सदस्य माना जाता हूँ। यह मेरी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे मेरे रचनाकार की संवेदना बार-बार टकराती है और क्षत-विक्षत होती है।

केदारनाथ सिंह

अविवेकी इतिहास-दृष्टि, विकृत जातीय भावना और झूठी धर्मांधता—हज़ारों वर्ष पुराने संतुलन को गडबडा देते हैं।

श्यामाचरण दुबे

हमें सर्वसम्मति से ऐसे शासन का अधिकार चाहिए जो हमारे भारत की एकता की रक्षा कर सके और छुआछूत, हिंसा, मतांधता जैसी बुराइयों का मूलोत्पाटन कर सके।

यू. आर. अनंतमूर्ति

कहने की आवश्यकता नहीं है कि संस्कृति के संदर्भ में 'उच्च' और 'निम्न' धरातलों का निर्धारण, प्रबुद्ध वर्ग द्वारा किया जाता है।

श्यामाचरण दुबे

इस देश में जाति-प्रथा को ख़त्म करने की यही एक सीधी-तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता है। वह अपने-आप ख़त्म हो जाती है।

श्रीलाल शुक्ल