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कुबेरनाथ राय

1933 - 1996 | ग़ाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश

आधुनिक युग के सुप्रसिद्ध ललित-निबंधकार। भारतीय सांस्कृतिक चिंतन में योगदान।

आधुनिक युग के सुप्रसिद्ध ललित-निबंधकार। भारतीय सांस्कृतिक चिंतन में योगदान।

कुबेरनाथ राय के उद्धरण

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प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो—‘विद्रोही’ और ‘स्वीकारवादी’ दोनों साथ ही साथ होता है।

सर्जक या रचनाकार के लिए ‘नॉनकन्फर्मिस्ट’ होना ज़रूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती।

लेखक का कर्तव्य है पाठक को अपनी भाषिक संस्कृति से जोड़ना।

आज भारत की सारी व्यवस्था, अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य, प्रत्येक क्षेत्र में ‘छिन्नमूल’ नवशिक्षित बुद्धजीवियों के हाथ में गई है और वे जन्मतः भारतीय होते हुए भी मानसिक बौद्धिक रूप से ‘आउट साइडर’ हैं।

नदी निषादों की है, नाग किरात-प्रतीक हैं और सोम है, आर्यों का श्रेष्ठतम देवता—आर्य वांग्मय और उपासना का चरम प्रतीक। अद्भुत एवं सार्थक हैं, देवाधिदेव के ये तीनों शीश-शृंगार!

रचना के 'आइडिया' के आविष्कार के लिए तो अवश्य 'विद्रोही मन' चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्राॅसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता।

दुनिया में दु:ख तो बहुत हैं, परंतु अगम-अगाध गंभीर दु:ख बहुत ही कम! ठीक वैसे ही जैसे कामबोध की खुजलाहट तो सबके पास है, परंतु निर्मल उदात्त प्रेम की क्षमता बिरले के ही पास होती है।

काम ऊर्ध्वतर होता हुआ निर्मल ज्योतिष्मान् होता जाता है। वैसे ही दु:ख उलटी दिशा में गंभीर से गंभीरतर होता हुआ, प्रगाढ़ और पारदर्शक होता जाता है। ऐसा पारर्दशक कि वह सार्वभौमता का दर्पण बन जाए—निर्मल, प्रसन्न और गंभीर दु:ख।

करुणा में एक उदास सौंदर्य की उपलब्धि एक सर्वसाधारण अनुभव है।

संस्कृति के मूल बीज कभी मरते नहीं हैं।

कालिदास विरह के कवि नहीं हैं।

बिना दूँढ़ने का श्रम किए, प्रिय वस्तु की अनुपमता और अमूल्यता का बोध हो ही नहीं सकता।

चालीस लगने के बाद पैंतालीस तक ‘यथास्थिति’ की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल उर्मियाँ परस्पर के संतुलन को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की ओर उन्मुख हो जाती है।

भाषा के प्रश्न को सतही या कामचलाऊ दृष्टि से ग्रहण नहीं करना चाहिए।

रागलोक का दु:ख रस की साध्वावस्था है, परंतु रागोत्तर सार्वभौम वेदना का दु:ख, रस की सिद्धावस्था है।

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नमक जैसा स्वादिष्ट होना बड़े अनुशासन और संयम की अपेक्षा करता है।

रामायण करूण रस का महाकाव्य है।

लावण्य जब तमोगुण से जुड़ता है तभी उग्र होता है। तब वह खारा हो जाता है, मीठा नहीं रहता।

सुंदर को अनुभूत करने की क्षमता का ही लोप हो गया है।

धरती का पुण्य उसकी सुषमा में व्यक्त है और सृष्टि का पुण्य नारी में।

भयग्रस्त तो इतना दीन होता है कि उदात्त कंठ से कोई भाषा बोल ही नहीं सकता।

इतिहास का वह भी अंश जो चेतना-सम्पन्न होता है, आगे चलकर मिथकीय आकृति ले लेता है जैसे गौतम बुद्ध या शिवाजी अथवा अपने युग में लेनिन और गाँधी।

हर एक व्यक्ति की सोचने की एक जन्म-लब्ध वर्णमाला होती है और उसी वर्णमाला के आश्रय से वह मनुष्य, पृथ्वी और ईश्वर को पहचान सकता है, अन्यथा नहीं।

भय और काम मनुष्य को दीन और आतुर बनाते हैं, ‘कवि’ और ‘प्रॉफ़ेट’ नहीं।

शब्दों के भूल जाने का अर्थ होता है संस्कारों को भूल जाना।

प्रत्येक भाषा का मूल उसकी अपनी संस्कृति में बड़ी गहराई से जाता है जिसमें वह जन्म लेती है, यद्यपि उसका विकास देशकाल के मुक्त इतिहास में होता है।

मनुष्य के सारे कर्म-कलाप के मूल में है उसकी इच्छाशक्ति। यह इच्छाशक्ति उसके रसबोध और सौंदर्य-रुचि से सीधे जुड़ी है। रसबोध और रुचि ही हमारे दैनन्दिन जीवन के शुभ और अशुभ का स्रोत है।

बहुत से पुराने शब्द हैं जो अत्यंत अभिव्यक्ति-प्रवण है। परंतु प्रयोग होने से लोग भूल गए हैं।

सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषाओं से बल प्राप्त करना ही होगा।

गांगेय संस्कृति ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय रूप है और इस संस्कृति का ‘निमित्त कारण’ है ‘आर्य’ और उपादान कारण है ‘निषाद’ या ‘निषाद-द्राविड़’।

गंगा महाकाव्य है तो यमुना गीति-काव्य।

वेदांत ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ है तो काव्य ‘पुरूष-जिज्ञासा।’

प्रकृति में सारा गान, सारा रूप, सारा गंध व्यक्ति-वैषम्य के परे है।

कल्पना को कहीं कहीं यथार्थ से जुड़ना चाहिए। कल्पना को रचने और समझने के लिए यथार्थ की भाषा से कहीं कहीं जुड़ना होगा।

यमुना अद्भुत रसमय चरित्र के साथ हमारे मानस लोक में प्रतिष्ठित है।

समस्त वैदिक साहित्य इस बात का सबूत है कि ‘धर्मबोध’ का जन्म ‘काम’ और ‘भय’ से नहीं हुआ है, जैसा कि बाज़ारू किस्म के बुद्धिजीवी कहा करते हैं।

प्रणय भोगेच्छा से अधिक व्यापक है। इसमें भोग की तीव्र कामना के समानांतर एक मानसिक कोमलता, एक पारस्परिकता-बोध वर्तमान रहता है।

यमुना-तट पर रातों में चाँदनी इतनी गाढ़ी झरती है कि घड़े में भर लेने की तबीयत होती है।

राम और कृष्ण के मिथक संकल्प और संवेग के चैतन्य स्रोत हैं।

गंगा गोमुख से निकलती है और इसका स्वभाव एवं चरित्र भी पयस्वला धेनु की तरह है जो अपने बछड़े के लिए रँभाती-दौड़ती घर को लौट रही हो

रोटी-दाल या रतिक्रिया से वंचित रह जाने का दु:ख ही अपने युग की सर्वोच्च व्यथा बन गई है। पर यह व्यथा वृहत्तर दु:ख को रचने का उपयुक्त उपकरण नहीं। यही मेरी इस युग से शिकायत है।

किसी भी जाति की मूलप्रवृति का सच्चा थर्मामीटर है उस जति का काव्य साहित और उसकी बौद्धिक गम्भीरता तथा उदात्तता का परिचायक है निबंध साहित्य।

‘लिबिडो’ और ‘प्रणय’ में अंतर होता है।

साहित्य मृत्यु के ऊपर अमृत में ले जाता है, यह एक तथ्य है।

दिक़्क़त इसलिए होती है कि आज का नव शिक्षित तो पुराने साहित्य से परिचित है और आस-पास के लोकजीवन से।

लोक तो वेद के आगे-आगे चलता है और इसी से पंचांग की घोषित तिथि से पंद्रह दिन पहले ही लोक-मानस मान लेता है कि संवत्सर बदल गया।

आदिम निषाद की दृष्टि में नदी एक अप्सरा थी, उज्जवल दूधवर्णी परिधान धारण किए, आपादमस्तक शुक्लाभिसारिका रूप।

हर एक भोग मृत्यु की पीठिका रचता है। फिर भी बूँद-भर भी छोड़ने को कोई तैयार नहीं होता।

बुद्ध ने कहा था कि संतप्त थककर बैठ हुए का योजन लंबा होता है और जागने वाले की रात लंबी होती है।

हमारे जीवन और रुचिबोध पर, मुम्बईया अपसंस्कृति, उर्दू कल्चर की सस्ती मुहावरेबाज़ी और बाज़ारू काव्यबोध का ही असर ज़्यादा है।

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