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खलील जिब्रान

1883 - 1931

खलील जिब्रान के उद्धरण

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अपने देश के प्रति मेरा जो प्रेम है, उसके कुछ अंश में मैं अपने जन्म के गाँव को प्यार करता हूँ। और मैं अपने देश को प्यार करता हूँ पृथ्वी— जो सारी की सारी मेरा देश है—के प्रति अपने प्रेम के एक अंश में। और मैं पृथ्वी को प्यार करता हूँ अपने सर्वस्व से, क्योंकि वह मानवता का, ईश्वर का, प्रत्यक्ष आत्मा का निवास-स्थान है।

तुम्हारा दुःख उस छिलके का तोड़ा जाना है, जिसने तुम्हारे ज्ञान को अपने भीतर छिपा रखा है।

और न्याय-प्रिय न्यायाधीशों!

तुम उसे क्या सज़ा दोगे जो शरीर से ईमानदार है लेकिन मन से चोर है?

और तुम उस व्यक्ति को क्या दंड दोगे जो देह की हत्या करता है लेकिन जिसकी अपनी आत्मा का हनन किया गया है?

और उस पर तुम मुक़दमा कैसे चलाओगे जो आचरण में धोखेबाज़ और ज़ालिम है लेकिन जो ख़ुद सत्रस्त और अत्याचार-पीड़ित है?

और क्या उन्हें कैसे सज़ा दोगे जिनको पश्चात्ताप पहले ही उनके दुष्कृत्यों से अधिक है?

और क्या यह पश्चात्ताप ही उस क़ानून का दिया हुआ न्याय नहीं जिसका पालन करने का प्रयास तुम भी करते रहते हो?

प्रेम और जो कुछ उससे उत्पन्न होता है, क्रांति और जो कुछ वह रचती है और स्वतंत्रता और जो कुछ उससे पैदा होता है, ये परमात्मा के तीन रूप हैं और परमात्मा सीमित और चेतन संसार का अनंत मन है।

जो सहृदयता दर्पण में अपना मुख निरखती है, पत्थर बन जाती है। और सत्क्रिया जो अपने को सुंदर नामों से संबोधित करती है, अभिशाप की जननी बन जाती है।

मैं एक शब्द कहने के लिए आया था और वह शब्द मैं अब कहता हूँ। परंतु यदि मृत्यु ने उसके कहे जाने में बाधा डाल दी, तो आने वाला कल उसे कहेगा, क्योंकि आने वाला कल अनंत की पुस्तक में कोई रहस्य नहीं रहने देता।

धन तारों वाले वाद्य यंत्र के समान है। जो उसका भली प्रकार से प्रयोग करना नहीं जानता, केवल कर्कश संगीत ही सुनेगा। जो उसे रोके रहता है, उसे धन प्रेम के समान है। वह उसे धीरे-धीरे और दुःख देकर मारता है। और उसे वह जीवन प्रदान करता है, जो उसे अपने साथी मनुष्यों पर उँड़ेल देता है।

दार्शनिक की आत्मा उसके मस्तिष्क में निवास करती है। कवि की आत्मा उसके हृदय में, गायक की गले में, किंतु नर्तकी की आत्मा उसके अंग-प्रत्यंग में बसती है।

बीता हुआ कल आज की स्मृति है और आने वाला कल आज का स्वप्न।

और ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते, वे उल्लास की अभिलाषा करते हैं और पुण्य समझ कर ही कुछ देते हैं।

वे देते हैं, जिस प्रकार विजय का फूल दशों दिशाओं में अपना सौरभ लुटा देता है।

इन्हीं लोगों के हाथों द्वारा ईश्वर बोलता है और इन्हीं की आँखों में से वह पृथ्वी पर अपनी मुस्कान छिटकता है।

मंदिर की कोण-शिला उसकी नींव में सबसे नीचे गड़े हुए पत्थर से ऊँची नहीं है।

दूर हुए बिना कोई वास्तव में समीप हो ही कैसे सकता है?

तुम प्राय: कहते हो, 'मैं दान दूँगा, किंतु सुपात्र को ही।' तुम्हारी वाटिका के वृक्ष ऐसा नहीं कहते, तुम्हारे चरागाह की भेड़ें।

वे देते हैं, ताकि जी सकें, क्योंकि रखे रहना ही मृत्यु है।

माँगने पर देना अच्छा है, लेकिन आवश्यकता अनुभव करके, बिना माँगे देना और भी अच्छा है।

जो कुछ तुम्हारे पास है, सब एक दिन दिया ही जाएगा।

इसीलिए अभी दे डालो, ताकि दान देने का मुहूर्त्त तुम्हारे वारिसों को नहीं, तुम्हें ही प्राप्त हो जाए।

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