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श्रीनरेश मेहता

1922 - 2000 | शाजापुर, मध्य प्रदेश

हिंदी के समादृत कवि-कथाकार और आलोचक। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित।

हिंदी के समादृत कवि-कथाकार और आलोचक। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित।

श्रीनरेश मेहता के उद्धरण

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व्यक्ति का मन भी अजीब है कि वह अस्वीकृति या निषेध की ओर ही भागता है।

मनुष्य वह कोई हो; यही सोचता है कि परिवर्तन, बाधाएँ, अवरोध, पतन आदि सब दूसरों के लिए ही हैं।

दुःख उठाने वाला प्रायः टूट जाया करता है, परंतु दुःख का साक्षात् करने वाला निश्चय ही आत्मजयी होता है।

मनुष्य मात्र को इतिहास और राजनीति नहीं एक कविता चाहिए।

सच तो यह है कि समय अपने बीतने के लिए किसी की भी स्वीकृति की प्रतीक्षा नहीं करता।

स्त्री और सब कुछ भूल सकती है, परंतु विवाह के तत्काल बाद जो उसे एकांत-व्यवहार पति के द्वारा मिलता हे वह अमिट होता है।

मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है।

अपने से बड़ी

नहीं अन्य कोई बाधा है।

अनंत के सापेक्ष में समय की संज्ञा, काल है तथा देश के सापेक्ष में काल की संज्ञा, समय है।

दुःख उठाना एक बात है और दुःख का साक्षात् करना सर्वथा भिन्न है।

  • संबंधित विषय : दुख

दुःख भाव है और करुणा स्वत्व।

स्त्री का नब्बे प्रतिशत प्रच्छन्न रहता है।

यह सापेक्ष समय जब बीतता है तो हमें वैसे ही तराशता चलता है जैसे कि जल अपनी मसृणता में भी, कैसी ही चट्टान क्यों हो, शताब्दियों तक टकराते-टकराते अंततः ढहा कर रख देता है।

हमारे प्रत्येक आचरण, कर्म या विचार केवल वृत्त का निर्माण ही करते हैं।

भोगते हुए व्यक्ति की देह ही जिह्वा होती है।

जो भी अपनी भूमि पर अँगूठे के बल खड़ा हो जाता है, वट-वृक्ष हो जाता है।

कोई नहीं जानता कि आदिम प्रकाश का वह प्रथम, बीज-ज्योति-कण या समय का वह प्रथम बीज-क्षण इतने गणनातीत वर्षों के बीत जाने पर भी महाज्रोति या महाकाल तक पहुँचा है कि नहीं।

जीवन या यथार्थ को जब तक रचने का भाव लेखक में नहीं होगा, तब तक उस लिखने का कोई अर्थ ही नहीं है।

कैसा ही पथ क्यों हो, उसका संबंध अनिवार्यतः मानव के साथ होता ही है।

सामान्य जीवन में बहुत बुरा जिस प्रकार असहनीय होता है, उसी प्रकार बहुत अच्छा होना भी कष्टदायक ही होता है।

सारे तत्त्व एक दूसरे को प्रति-प्रयुक्त भी करते हैं।

विवेक के कारण अनात्म होते ही आप ‘पुरुष’ हो जाते हैं और तब ‘इच्छा’ आपकी इच्छा पर निर्भर होने लगती है।

प्रायः लोग रचना से आनंद नहीं, भोग की अपेक्षा करते हैं।

लेखक रचता है इसीलिए वह कथा-सृष्टा है, मात्र प्रस्तुत नहीं करता इसीलिए वह कथा-वाचक नहीं है।

इस्लाम ने भारतीयता की स्थूलता को एक हज़ार वर्ष में छिन्न-भिन्न किया तो उसे ही सूक्ष्म स्तर पर पहले ईसाइयत ने और बाद में साम्यवादी-दर्शन ने गत पचास वर्षों में संपन्न किया।

देश-कालातीत इच्छाओं के वृत्तों की टकराहट ही है जो वस्तुतः पुरुषार्थों की स्फीति है।

तत्त्व, अंश या अंशी को नहीं; संपूर्ण सामरस्य को लक्ष्य में रखता है।

अनात्म होने का अर्थ ही है ‘पुरुष’ होना। इच्छा या प्रकृति आपको माध्यम तभी तक बना सकती है जब तक आप ‘पुरुष’ नहीं हैं।

सत्य सदा एक ही होता है।

  • संबंधित विषय : सच

जिस दिन सब समेटना होता है, उसे तांडव या महारास या प्रलय कह दिया जाता है।

बीतने मात्र का क्रियापद है—समय।

  • संबंधित विषय : समय

वह इसीलिए ‘नहीं है’, क्योंकि इंद्रिय-गम्य नहीं है।

  • संबंधित विषय : देह

इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति सभी तो स्फीति हैं।

किसी के लिए जीवन भर भाषा, मात्र गाली होती है तो किसी के लिए भाषा मंत्र होती है।

जो जितना ही संवेदनशील और संस्पर्शी व्यक्ति होता है, उसके लिए जीवन प्रत्यक्ष से अधिक अप्रत्यक्ष होता है।

ईसाइयत हमारे लिए अँग्रेज़ियत का ही पर्याय रही है।

पतन, उत्थान की; मृत्यु, जीवन की एक मात्र सखा-छाया है।

परिणति, उतार, समाप्ति भी अनिवार्यताएँ हैं।

जीवन, मिल के बिने कपड़े की तरह समान-सपाट चिकना नहीं होता; बल्कि उसकी प्रकृति एवं पद्वति खुरदुरी खादी से अधिक मिलती है।

शांति के लिए ‘स्वाहा’ उच्चारण के साथ दी गई एक आहुति संपूर्ण सृष्टि के लिए कितनी मांगलिक होती है, इसे कभी मानवेतर सृष्टि में पैठ कर कोई देखे, तभी समझा जा सकता है।

घटना से अधिक से अधिक उसकी संभानाएँ मन को अधिक शंकालु बनाती है।

  • संबंधित विषय : डर

तत्त्व का प्रमाण, स्वयं तत्त्व ही है।

  • संबंधित विषय : सच

बिंदु जितना सक्रिय होगा, परिधि उतनी ही विशालतर होती जाएगी।

तत्त्व, वह कोई हो, निरपेक्ष ही होता है।

इच्छा, वृत्त को केवल जन्म ही देती है बल्कि अग्रसर होते हुए विकास, फैलाव चाहती है; परंतु विवेक, वृत्त को समेटने के लिए कहता है ताकि अन्य के लिए प्रति-वृत्त बने।

इंद्रियाँ सीमा को ही देख-सुन-कह या अनुभव कर सकती हैं।

  • संबंधित विषय : देह

क्षितिज तक समय है, परंतु क्षितिज के बाहर काल है।

  • संबंधित विषय : समय

गर्मियों की शामें प्रायः हवाहीन हुआ करती हैं।

घोर प्रकाश और घोर अंधकार नेत्रों के लिए जिस प्रकार अदर्शित होते हैं, उसी प्रकार दूसरे इंद्रिय-अनुभव भी हैं।

साहित्य अनुकृति नहीं हुआ करता।

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