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कहानी : सेंटिनली : लहरों के पार एक दुनिया

सूरज अपनी पूरी ऊँचाई पर था और उत्तरी सेनटिनल द्वीप के सफेद रेत वाले तट चमक रहे थे। चारों ओर एक अनकही शांति फैली हुई थी, जिसे केवल लहरों की धीमी सरसराहट और तट पर खड़े नारियल के पेड़ों की हल्की सरसरगाह तोड़ रही थी। दूर से आई नौका के यात्री, जिनमें ज़्यादातर विदेशी पर्यटक थे, उत्सुकता और रोमांच से भरे हुए थे।

नौका से उतरने वाले कुल सोलह पर्यटक थे। इनमें आठ पुरुष और छह महिलाएँ थीं, साथ ही दो बच्चे—चार वर्ष की एक बच्ची और छह वर्ष का एक लड़का। पुरुषों में से तीन अधेड़ उम्र के थे, जबकि बाक़ी पाँच युवक थे। इनमें से एक फ़ोटोग्राफर था, जो द्वीप की अनछुई सुंदरता को अपने कैमरे में कैद कर रहा था। दूसरी ओर, एक महिला जीवविज्ञान की शोधकर्ता थी, जो इस द्वीप की जैव विविधता को क़रीब से देखना चाहती थी।

“यह जगह वाक़ई जादुई है”, एक पर्यटक ने अपना धूप का चश्मा ठीक करते हुए कहा। उसके हाथ में भी एक कैमरा था, जो लगातार तट और उसके पीछे के हरे-भरे जंगलों की तस्वीरें खींच रहा था।

सपाट, शांत समुद्र के किनारे कुछ लोग रेत पर आराम कर रहे थे, तो कुछ स्नॉर्कलिंग के लिए पानी में उतरने की तैयारी कर रहे थे। पर्यटकों में से एक युवा जोड़ा, जो अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा पर आया था, किनारे पर खड़े होकर मुस्कुरा रहा था।

“क्या तुमने सुना? कहते हैं कि यहाँ की जनजातियाँ बाहरी दुनिया से पूरी तरह अलग और आदमख़ोर हैं”, उसने साथी से कहा।

“हाँ, लेकिन वे शायद ही कभी तट के पास आते हैं। हमें डरने की कोई ज़रूरत नहीं।” साथी ने आत्मविश्वास से जवाब दिया, फिर पानी में छलांग लगा दी।

पर्यटक अपने-अपने रोमांच में व्यस्त थे। कोई लहरों के साथ खेल रहा था, तो कोई तट के पेड़ों के बीच अजीब-सी चिड़ियों को देखकर चकित था। मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि क्षितिज पर समुद्र का रंग बदलने लगा था। हल्की नीली लहरें धीरे-धीरे गहरी और उथल-पुथल भरी होती जा रही थीं।

चार साल की बच्ची तट की रेत में खेल रही थी, उसकी माँ—एक पर्यावरणविद्—उस पर नज़र रखे हुए थी। वहीं, छह साल का लड़का लहरों के किनारे दौड़ रहा था, उसके पिता—एक यूरोपीय इतिहासकार—उसे बार-बार वापस बुलाने की कोशिश कर रहे थे।

कुछ ही देर में हवा का रुख़ बदल गया। बच्ची, जो रेत के घरौंदे बना रही थी, अचानक चिल्लाई, “मम्मी, पानी पीछे जा रहा है!”

सबने मुड़कर देखा। समुद्र का पानी किनारे से पीछे हटने लगा था, जैसे किसी अदृश्य ताक़त ने उसे खींच लिया हो। पानी में खड़े लोग हँसी-मज़ाक करते हुए इसे प्रकृति का चमत्कार मान रहे थे।

सेंटिनली जनजाति के क़रीब बीस लोग अचानक जंगल से बाहर निकले। उनके शरीर पर काले और लाल रंग की रेखाएँ बनी हुई थीं और हाथों में नुकीले भाले और धनुष थे। उनकी आँखों में दृढ़ता और चेतावनी का भाव था। वे तेज़ी से समुद्र के किनारे की ओर बढ़े, जहाँ पर्यटक अभी भी पानी की अजीब हरकत को अनदेखा कर अपनी मस्ती में व्यस्त थे।

“क्या ये लोग हमें देख रहे हैं?” फ़ोटोग्राफर ने धीरे-धीरे कहा, उसके चेहरे पर डर और हैरानी का मिश्रण था।

जनजाति के लोग बिना रुके उनके क़रीब आए। उनमें से एक आकाश की ओर भाला उठाकर जोर से कुछ चिल्लाया। उनकी आवाज़ में एक अनजान लेकिन गंभीर चेतावनी छिपी थी। इससे पहले कि पर्यटक कुछ समझ पाते, जनजाति के लोग तट पर फैले पर्यटकों को घेरने लगे।

"ये क्या हो रहा है?" एक महिला ने घबराकर पूछा।

जनजाति के सदस्य बिना कोई जवाब दिए पर्यटकों की ओर इशारे कर रहे थे और उन्हें जंगल की ओर चलने का संकेत दे रहे थे। उनकी भाषा समझना नामुमकिन था, लेकिन उनके हाव-भाव में कोई हिंसा नहीं थी।

"शायद वे हमें कुछ दिखाना चाहते हैं", जीवविज्ञानी महिला ने कहा। लेकिन उसकी आवाज़ में अनिश्चितता थी।

अचानक, जनजाति के एक बुजुर्ग ने झुककर रेत पर कुछ अजीब संकेत बनाए। ये संकेत एक बड़े जल-प्रलय की ओर इशारा कर रहे थे। एक पर्यटक, जो थोड़ा बहुत सांकेतिक भाषा का जानकार था, फुसफुसाया, "वे कह रहे हैं कि हमें जल्दी करना चाहिए। कुछ खतरनाक होने वाला है।"

पर्यटकों को अब यह स्पष्ट होने लगा कि इन लोगों का इरादा मदद का है। जब जनजाति के सदस्य उन्हें जंगल की ओर ले जाने लगे, तो कुछ ने विरोध किया, लेकिन जनजाति के लोगों की दृढ़ता और गंभीरता के आगे उनकी हिम्मत नहीं हुई।

जंगल के भीतर, एक विशाल पेड़ के नीचे, एक प्राकृतिक गुफा जैसी जगह पर सभी पर्यटकों को ले जाया गया। जनजाति के सदस्यों ने इशारों में बताया कि यह जगह सुरक्षित है।

"पर क्या खतरा है?" एक महिला ने घबराकर पूछा।

उसी क्षण, बाहर से एक भयंकर गर्जना सुनाई दी। समुद्र ने अचानक अपनी शक्ति दिखानी शुरू कर दी थी। पानी का विशाल ज्वार तट की ओर बढ़ रहा था और हवा में नमकीन पानी की गंध घुल गई थी।

"सुनामी!" एक पर्यटक चिल्लाया।

जंगल में खड़े हुए, गुफा के भीतर छिपे पर्यटक और जनजाति के लोग, इस प्रलय को देख सकते थे। समुद्र की विशाल लहरें सब कुछ निगलने को तैयार थीं। जो कुछ मिनट पहले तक शांत और सुंदर तट था, अब एक उग्र महासागर में बदल चुका था।

पर्यटकों की आंखों में कृतज्ञता और डर का मिश्रण था।

गुफा के भीतर छिपे पर्यटक और सेंटिनली जनजाति के सदस्य उस प्रलय को आंखों से देख रहे थे, जो प्रकृति ने रचा था। समुद्र की लहरें अब अपनी पूरी ताकत से तट की ओर बढ़ रही थीं। पानी के उफान की आवाज इतनी गहरी और भयानक थी कि ऐसा लग रहा था जैसे पूरी धरती कांप रही हो।


समुद्र के भीतर एक तेज़ गर्जना हुई, जैसे पानी खुद चीखकर अपने आने की घोषणा कर रहा हो। विशाल लहरें, जो पहले कुछ मीटर ऊंची थीं, अब ताड़ के पेड़ों से भी अधिक ऊंचाई पर उठ चुकी थीं। तट पर खड़े नारियल के पेड़ उखड़कर पानी के साथ बहने लगे। नौका, जो कुछ देर पहले पर्यटकों को लाने का साधन थी, अब पानी की एक खिलौना गेंद की तरह इधर-उधर फेंकी जा रही थी।

तट के किनारे बने छोटे-छोटे झोपड़े और लकड़ी की संरचनाएं पहली ही लहर में धराशायी हो गईं। रेत का वह शांत और सफेद विस्तार, जो कुछ घंटे पहले तक सूरज की रोशनी में चमक रहा था, अब एक उग्र और अराजक जलप्रलय में बदल चुका था।

समुद्र की लहरें 700 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से तट की ओर बढ़ रही थीं। यह पानी नहीं था; यह एक ताकतवर दीवार थी, जो हर चीज़ को मिटाने पर आमादा थी। जो कुछ तट पर खड़ा था—चट्टानें, नावें, पेड़—सब बह गए। लहरें जब तट से टकराईं, तो उनकी गूंज ने गुफा के भीतर छिपे हर व्यक्ति का दिल दहला दिया।

पानी की पहली दीवार गुजरते ही एक भयावह सन्नाटा फैल गया। यह शांति छलावा थी—पीछे से और भी विराट लहरें उमड़ रही थीं। गुफा के बाहर, कुछ पर्यटक जो भीतर तक नहीं पहुंच पाए थे, मदद के लिए पुकार रहे थे; पर उनकी आवाज़ें जल के शोर और गर्जना में घुलकर लुप्त हो गईं।

जंगल की ओर बढ़ते पानी ने हर उस चीज़ को अपनी चपेट में ले लिया, जो उसके रास्ते में आई। जीव-जन्तु अपनी जान बचाने के लिए पेड़ों की ऊंची शाखाओं पर चढ़ रहे थे, लेकिन लहरें इतनी ऊंची थीं कि वे भी सुरक्षित नहीं थे। पानी के साथ बहता मलबा, टूटी हुई नावें और पेड़ों के बड़े-बड़े तने लहरों की ताकत के गवाह थे।

गुफा के भीतर सभी लोग सहमे हुए थे। पर्यटक और सेंटिनली जनजाति के लोग अब एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। भाषा की दीवार थी, लेकिन भय ने उन्हें एकजुट कर दिया था। एक सेंटिनली बुजुर्ग ने अपनी छड़ी उठाकर आकाश की ओर इशारा किया, मानो किसी शक्ति से प्रार्थना कर रहा हो।

"क्या हम बच जाएंगे?" एक महिला ने डरते हुए पूछा।

"यह जगह ऊंचाई पर है। शायद यहां हम सुरक्षित रहेंगे," एक अन्य पर्यटक ने धीरे से जवाब दिया, लेकिन उसकी आवाज़ भी कांप रही थी।

घंटों बाद, जब सुनामी का प्रकोप कुछ थमा, तो गुफा के बाहर का दृश्य भयावह था। सफेद रेत का तट अब गंदगी और मलबे से पट चुका था। समुद्र शांत था, मानो उसने सब कुछ निगलकर अपनी भूख शांत कर ली हो।

पर्यटकों की आंखों में आंसू थे। वे इस बात को समझ चुके थे कि अगर सेंटिनली जनजाति ने उन्हें चेतावनी न दी होती, तो उनका भाग्य भी उन चीज़ों जैसा होता, जो अब समुद्र में दफन हो चुकी थीं।

एक सेंटिनली युवक ने पानी के किनारे की ओर इशारा किया, जहां कुछ तिनके और टूटी नावें तैर रही थीं। उसने इशारे में बताया कि यह जगह अब कई दिनों तक सुरक्षित नहीं होगी।

उस सुनामी ने सिर्फ जमीन और पानी को नहीं हिलाया था, बल्कि लोगों के दिलों को भी झकझोर दिया था। यह घटना एक यादगार संदेश छोड़ गई—प्रकृति को समझना और उसकी चेतावनियों को गंभीरता से लेना बेहद जरूरी है।

जैसे-जैसे सूरज डूबने लगा, गुफा के भीतर एक अजीब-सी शांति छा गई। सेंटिनली जनजाति के कुछ लोग एक-एक कर जंगल में लौटने लगे और पर्यटक अपने बचने की कहानी सोचते हुए किनारे पर खड़े उस सुनामी के प्रभाव को देख रहे थे।

सूरज डूबने के बाद भी गुफा के भीतर हलचल थी। बाहर का भयंकर दृश्य अब शांत हो चुका था, लेकिन समुद्र की गर्जना अभी भी दूर से सुनाई दे रही थी। गुफा के भीतर छिपे पर्यटक डर, थकावट और राहत से भरे हुए थे। सेंटिनली जनजाति के बुजुर्गों ने आपस में कुछ संवाद किया और फिर उनमें से कुछ लोग जंगल की ओर बढ़ गए।

एक युवक ने पर्यटकों की ओर इशारा कर चुपचाप उठने का संकेत दिया। वे हिचकिचाए, पर थके-मांदे और भयभीत होने के कारण विरोध करने की ताकत उनमें नहीं थी। धीरे-धीरे सभी जनजाति के साथ जंगल की गहराइयों में उतरने लगे। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के घने झुरमुट और अनजानी, अजीब आवाज़ें उनकी बेचैनी बढ़ा रही थीं, लेकिन जनजाति के लोगों की अडिग चाल उन्हें आगे बढ़ने का साहस दे रही थी।

कुछ दूर चलने के बाद वे एक खुले स्थान पर पहुंचे। यह जगह चारों ओर से पेड़ों और झाड़ियों से घिरी हुई थी। वहां लकड़ी और पत्तों से बने छोटे-छोटे घर थे। जगह को देखकर ऐसा लगा जैसे यह सैकड़ों वर्षों से वैसी ही बनी हुई हो।

जनजाति के कुछ लोग वापस लौटे और उनके हाथों में कुछ चीजें थीं। सबसे पहले उन्होंने अपने परंपरागत तरीके से आग जलाने की व्यवस्था की। एक महिला, जिसके चेहरे पर शांति और दृढ़ता का भाव था, रेत पर घुटनों के बल बैठकर दो लकड़ियों को रगड़ने लगी। कुछ ही देर में वहां हल्की सी आग जल उठी।

जल्दी ही जनजाति के अन्य सदस्य फलों, शहद और मांस के साथ लौट आए। कुछ लोग कंद-मूल और जड़ें भी लेकर आए। उन्होंने बड़े पत्तों को बिछाकर उन्हें भोजन परोसा।

सबसे पहले उन्होंने बड़े नारियल के खोल में भरकर शहद पेश किया। यह शहद गाढ़ा, सुनहरे रंग का और बेहद मीठा था। एक पर्यटक, जो डर और आशंका के कारण शुरुआत में इसे चखने से हिचक रहा था, ने एक बूंद चखी। उसकी आंखें आश्चर्य से फैल गईं। "यह तो दुनिया की किसी भी चीज़ से बेहतर है जो मैंने अब तक चखी है," उसने फुसफुसाते हुए कहा।

इसके बाद उन्होंने जंगली केले, अमरूद और कुछ ऐसे फलों की पेशकश की, जो पर्यटकों ने पहले कभी नहीं देखे थे। इनका स्वाद बेहद ताजा और प्राकृतिक था।

कुछ जनजातीय लोग, जो जंगल में शिकार के बाद लौटे थे, उन्होंने आग पर मांस पकाने की प्रक्रिया शुरू की। सुअर के मांस को लकड़ी की छड़ों पर भूनकर परोसा गया। मांस की सुगंध पूरे वातावरण में फैलने लगी। धीरे-धीरे पर्यटक भी सहज महसूस करने लगे। एक बुजुर्ग ने मांस का पहला टुकड़ा उठाकर आदरपूर्वक पर्यटकों की ओर बढ़ाया।
"यह उनका सम्मान का तरीका है," एक पर्यटक ने धीरे से कहा।
पर्यटकों ने मांस चखा। भले ही यह उनके लिए नया अनुभव था, लेकिन मांस का स्वाद लाजवाब था।

भोजन के दौरान जनजाति के लोग मुस्कुरा रहे थे और इशारों में संवाद करने की कोशिश कर रहे थे। उनके हाव-भाव से यह स्पष्ट था कि वे शांति और सह-अस्तित्व में विश्वास करते थे। एक बुजुर्ग ने पर्यटकों को आकाश की ओर इशारा करके बताया कि उन्हें यहां सुरक्षित रखा गया है क्योंकि प्रकृति का आशीर्वाद उनके साथ है।

पर्यटकों में से एक, जिसने अपने बैग से बचा हुआ चॉकलेट बार निकाला, उसने उसे जनजाति के एक छोटे बच्चे की ओर बढ़ाया। बच्चे ने पहले अचरज से देखा, फिर मुस्कुराते हुए बार ले लिया। यह पल दोनों संस्कृतियों के बीच एक पुल बन गया था।

रात गहरी हो रही थी। पर्यटक अब अपने डर को भूलकर सेंटिनली जनजाति के आतिथ्य का आनंद ले रहे थे। यह उनके लिए एक ऐसी दुनिया थी, जो आधुनिकता से परे थी—जहां न तो भाषा की बाधा थी और न ही भौतिकता का कोई झूठा आडंबर।

सुनामी का प्रकोप, जिसने उन्हें मौत के करीब ला दिया था, अब एक अलग अर्थ ले चुका था। यह अनुभव उन्हें सिखा गया था कि प्रकृति के नियमों को समझना, उसका सम्मान करना और सरलता में जीना ही असली जीवन है।

रात के दूसरे पहर का समय था। जंगल की गूँजती आवाज़ें और भी रहस्यमयी होती जा रही थीं। पेड़ों की शाखाएँ हवा के झोंकों में सरसरातीं, तो कभी कोई अनदेखा जीव पत्तियों के बीच हलचल मचा देता। दूर कहीं किसी जंगली जानवर की गूँजती चीख ने सन्नाटे को और भयावह बना दिया।

पर्यटक थकान से चूर थे, फिर भी चैन की नींद नहीं ले पा रहे थे। कुछ की आँखें बोझिल हो चली थीं, मगर बाकी अब भी असहज थे। गुफा की सुरक्षा के बाद यह खुला जंगल उन्हें असुरक्षित लग रहा था। अजनबी माहौल में अनजाने खतरे का भय उनके भीतर घर कर गया था।

तभी, झाड़ियों में कुछ सरसराया। सूखी टहनियाँ चरमराईं और कोई भारी चीज़ पत्तों को रौंदती हुई आगे बढ़ी। पर्यटकों के दिलों की धड़कन तेज़ हो गई। सेंटिनलीज के कुछ लोग चौकन्ने हो गए, उनकी देह की मुद्रा अचानक बदल गई—मानो उन्होंने किसी अनदेखे खतरे को भाँप लिया हो।

एक बुजुर्ग ने धीरे से हाथ उठाकर सबको चुप रहने का संकेत दिया। जनजाति के अन्य लोग बिना आवाज़ किए सतर्क हो गए। किसी ने आग के पास पड़ी जलती लकड़ी उठा ली, तो किसी ने भाले को कसकर थाम लिया।

पर्यटक घबराए हुए थे। किसी ने धीमे स्वर में पूछा, "क्या हुआ?" मगर कोई जवाब नहीं मिला। सेंटिनलीज अपने ही तरीके से जंगल को सुन रहे थे—हर हलचल, हर फुसफुसाहट को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे।

अचानक, झाड़ियों में कोई भारी चीज़ हिली। पेड़ों के बीच से दो चमकती आँखें झाँक रही थीं—पीली, भयावह, घातक। यह कोई साधारण जानवर नहीं था।

फिर, एक गहरी, गूँजती गुर्राहट हवा में तैर गई। इतनी भयानक कि पर्यटकों का कलेजा मुँह को आ गया।  सेंटिनलीज के लोग तुरंत हरकत में आए। एक युवक ने बिना देर किए अपना भाला झाड़ियों की ओर उछाल दिया।

क्षणभर के लिए सन्नाटा छा गया, फिर झाड़ियों के पीछे से दर्द भरी एक चीख उभरी। भारी कदमों की आहट जंगल में गूँज उठी। वह अज्ञात जीव भाग गया था।

मगर अब इस जंगल की सच्चाई उनके सामने थी—यह सिर्फ़ हरियाली का समंदर नहीं था, बल्कि एक ऐसी दुनिया थी जहाँ हर सरसराहट खतरे का संकेत हो सकती थी।

आग की लौ काँपने लगी। अब तक पर्यटक सेंटिनलीज को आदिम और सरल समझ रहे थे, मगर इस रात ने उन्हें अहसास करा दिया कि यह जीवन जितना सुंदर था, उतना ही क्रूर भी।

सेंटिनली द्वीप के भीतर घने जंगल में, सूरज की हल्की किरणें पेड़ों के तनों के बीच से छनकर जमीन पर गिर रही थीं। यहाँ की हवा गहरी, ताजगी से भरी और खुशबू से महकती थी, जो जंगल के पेड़ों, फूलों और मिट्टी से आती थी। पेड़ इतने ऊंचे थे कि उनकी शाखाएँ आपस में मिलकर एक छत बना देती थीं, जिससे जंगल के भीतर हल्का अंधेरा और ठंडक बनी रहती थी। पक्षियों के गीत और जानवरों की हलचल इस जंगल के स्थिर संगीत का हिस्सा थे।

सेंटिनली जनजाति के लोग इस जंगल में ऐसे घुल-मिल जाते थे जैसे उसी का हिस्सा हों। उनके शरीर काले और गहरे भूरे रंग के मिश्रण से रंगे रहते, जो रंगीन मिट्टी और पौधों से बनी प्राकृतिक पेंट से बनाए जाते थे। उनकी त्वचा कांस्य जैसी दमकती थी और आँखों में एक अनकही शक्ति व गहरी समझ झलकती थी। पुरुषों के शरीर पर काले और लाल रंग की रेखाएं और चित्र बने होते, जो उनके पूर्वजों की परंपराओं और विश्वासों के प्रतीक थे। महिलाएं प्रायः अपने शरीर को पेड़ की छाल और घास से बने आवरण से ढकतीं, जो उन्हें धूप, बारिश और जंगल की कठिनाइयों से बचाता था।

उनके घर बहुत साधारण थे—लकड़ी और पत्तों से बने ढांचे, जो पेड़ों के नीचे या उनके बीच में बने हुए थे। इन झोपड़ियों को बनाने के लिए उन्होंने प्राकृतिक सामग्री का इस्तेमाल किया था, जैसे बांस, पत्तियां और वृक्षों की छाल। ये घर इतने छोटे  थे कि बस एक परिवार या एक जोड़ा ही उनमें आराम से रह सकता था। घर छोटे थे लेकिन बेहद कुशल डिजाइन वाले थे, जो बारिश, कीड़ों और अन्य खतरों से बचाने के लिए तैयार किए गए थे। हर घर के नीचे एक खुला स्थान था, जहाँ वे अपनी दैनिक गतिविधियाँ करते थे या आग जलाते थे। घरों के आसपास जंगल से उगने वाली जड़ी-बूटियाँ, फल और फूलों के पौधे थे, जो उनके भोजन और चिकित्सा की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।

सेंटिनली जनजाति की बोली बहुत ही विशिष्ट थी। वे अपनी बातों को मुख्य रूप से इशारों, चेहरे के हाव-भाव और गूंजते शब्दों में व्यक्त करते थे। कोई लिखित या अभिव्यक्ति की पारंपरिक भाषा नहीं थी, लेकिन उनके इशारे और मुँह से निकले शब्दों में एक अदृश्य गहराई थी। जब वे एक-दूसरे से बात करते थे, तो उनकी आवाज़ में शांति और गहरी चेतावनी का सम्मिलन होता था, जैसे वे हर शब्द को समझने से पहले मापते थे। उनका संवाद बेहद संक्षिप्त और सीधा होता था और वह लगभग हमेशा एक दूसरे से निकटता में रहते हुए करते थे। एक पर्यटक थोड़ा-बहुत जारवा जनजाति की भाषा से परिचित था ने दूसरों को बताया कि इनकी भाषा उनसे नही मिलती।

घना जंगल साँस ले रहा था। पेड़ों की शाखाएँ आपस में उलझी थीं, और उनके बीच से छनकर आती सूरज की हल्की किरणें धरती पर सुनहरे धब्बे बनाती थीं। सेंटिनली जनजाति के लोग इसी जंगल की गोद में रहते थे—जंगल ही उनका घर था, और वही उनकी दुनिया।

सुबह की ओस में नहाई पत्तियों के बीच, एक युवक नंगी आँखों से दूर कहीं झाड़ियों की सरसराहट को भाँप रहा था। उसके हाथ में सधे हुए तीर और भाला था। उसकी आँखों में शिकार की ललक थी, लेकिन चेहरा शांत। उसने हवा में हलचल महसूस की। हल्की सी फड़फड़ाहट—शायद कोई हिरण पास ही कहीं था। शिकारी अपने पैरों के निशान तक को मिटाकर चलता, जैसे जंगल में आया ही न हो। हर कदम सोच-समझकर, जैसे पत्तियों से दोस्ती निभा रहा हो।

इधर, गाँव की ओर औरतें और बच्चे दिन का दूसरा सफर तय कर चुके थे। वे जंगल की पगडंडियों पर बिखरे कंद-मूल, जंगली फल और जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा कर रहे थे। बच्चे हँसी-ठिठोली करते, कभी-कभी झाड़ियों में छिपकर खेलते, लेकिन औरतों की आँखें हमेशा सतर्क रहतीं।

युवक ने निशाना साधा। भाला हवा में सन्न से तना और सीधा हिरण की ओर लपका। कुछ क्षणों की खामोशी के बाद पतियाँ खड़खड़ाईं, फिर सब थम गया। शिकार सफल था। युवक ने गहरी साँस ली। यह सिर्फ भोजन नहीं था—यह उनकी दिन-रात की मेहनत और जंगल के साथ बनी उनकी समझ का फल था।

शाम को आग के पास सेंटिनली परिवार इकट्ठा हुआ। किसी ने तीरों को धार दी, किसी ने कंद-मूल छीलकर रखे। बच्चे दिनभर के अपने छोटे-छोटे किस्से सुनाते, और बड़े जंगल के नए संकेतों पर चर्चा करते। यह उनकी जिंदगी थी—शिकार, संग्रहण, और जंगल की हर धड़कन को सुनना।

वे जंगल के रखवाले थे। उनके हर कदम के नीचे मिट्टी की कहानियाँ थीं, और उनकी हर साँस में जंगल का जीवन।

उनके जीवन का हर दिन जंगल के नियमों के साथ चलता था। खासकर जब वे शिकार पर निकलते, तो उनकी आँखों में एक अलग चमक होती।

भोर के हल्के उजाले में, वे चुपचाप अपनी झोपड़ियों से निकलते। उनके कदम इतने हल्के होते कि पत्तियाँ भी उनके नीचे दबकर आहट न करतीं। हाथों में तीर-कमान और भाले होते—ऐसे तीर, जिनकी नोक इतनी पैनी होती कि पलक झपकते ही शिकार को भेद देती। भाले का शाफ्ट खास लकड़ी से बनाया जाता, मजबूत और संतुलित, ताकि फेंकते ही वह सीधे जाकर शिकार को गिरा दे।

जंगल की हर हल्की सनसनाहट को सुनते, हर पदचाप को पहचानते, वे आगे बढ़ते। कभी कोई जंगली सूअर झाड़ियों के पीछे नजर आता, तो कभी कोई फुर्तीला बंदर डालियों के बीच छलांग लगाता। कभी-कभी कोई छोटा हिरण झुरमुटों में चुपचाप चरता मिलता। बस, फिर एक सधा हुआ निशाना और तीर अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता।

शिकार को कंधे पर डालकर वे वापस लौटते। यह सिर्फ मांस लाना भर नहीं था। जब वे शिकार लेकर घर आते, तो उनके चेहरों पर संतोष होता—जैसे उन्होंने जंगल का आशीर्वाद पाया हो। पशु की खाल को सहेजकर उपयोगी वस्तुएँ बनाई जातीं, हड्डियाँ औज़ार बनाने के काम आतीं। मांस को आग पर धीरे-धीरे भूना जाता। चूल्हे से उठती महक पूरे गाँव को अपनी ओर खींच लाती।

खाने से पहले वे आग के पास बैठते और अपने शिकार को धन्यवाद देते। उनके लिए यह भोजन सिर्फ पेट भरने का जरिया नहीं था। यह प्रकृति के साथ उनका रिश्ता था—एक रिश्ता जिसमें श्रद्धा थी, आदर था। हर निवाला उन्हें याद दिलाता कि वे जंगल का हिस्सा हैं, और जंगल उनका।

इस तरह, शिकार उनके जीवन का केवल एक काम नहीं था; यह उनकी संस्कृति थी—जंगल और जीवन के बीच एक सेतु, जिसमें हर तीर, हर भाला, हर कदम में प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान छिपा था।

यहाँ का जंगल हरियाली से भरा हुआ था, जहाँ विशाल पेड़ों के साथ-साथ बेलें और झाड़ियाँ लहराती थीं। जगह-जगह छोटे-छोटे जलस्रोत बहते थे, जिनमें से पानी इतना साफ था कि उसकी सतह पर पेड़ों की परछाइयाँ दिखाई देती थीं। पक्षियों के रंग-बिरंगे पंख पेड़ों के पत्तों के बीच चमकते थे। कहीं-कहीं पर जंगली जानवरों की हलचल सुनाई देती थी, जो सेंटिनली लोगों के लिए शिकार या सावधानी दोनों का संकेत हो सकता था।

शाम के समय, वे एक बड़े वृक्ष के पास इकट्ठा होते थे, जहाँ बुजुर्ग कहानियाँ सुनाते थे, शायद प्रकृति के नियमों, उनके पूर्वजों, और जनजाति की परंपराओं के बारे में। आग की रोशनी में उनके चेहरे चमकते और उनकी आँखों में एक गहरी बुद्धिमत्ता झलकती थी। "भाव का महत्व शायद भाषा से अधिक होता है, क्योंकि समझ भले ही पूरी न आती हो, लेकिन दोनों पर्यटक बच्चे भी आदिवासी बुजुर्ग की कहानी तल्लीनता से सुन रहे थे।"

सेंटिनली द्वीप के उस हरे-भरे, रहस्यमयी जंगल में जीवन की एक अलग ही लय थी। पेड़ों की सरसराती पत्तियाँ, पक्षियों की चहचहाहट और बहते पानी की मधुर धुन—सब मिलकर एक ऐसा संगीत रचते थे, जिसमें सेंटिनली जनजाति के लोग अपनी सांसें मिलाए रहते थे। उनके लिए यह जंगल महज़ एक जगह नहीं था, बल्कि उनकी आत्मा का अटूट हिस्सा था।

भोर का हल्का सुनापन जब जंगल की पगडंडियों और कच्ची दीवारों पर उतरता, वे बड़े आदर से प्रकृति को प्रणाम करते। जंगल उनका मित्र था, रक्षक था और कहीं न कहीं माता-पिता जैसा भी। जब वे शिकार करने या फल-सब्ज़ियाँ चुनने निकलते, तो हाथों में भाले होते, पर आँखों में हमेशा कृतज्ञता झलकती।

वे कभी भी अपनी जरूरत से ज्यादा कुछ नहीं लेते थे। एक मछली पकड़ते तो दूसरी को छोड़ देते। एक पेड़ से फल तोड़ते, तो उसकी जड़ों में थोड़ा पानी डालकर धन्यवाद कहते। उनके मन में यह गहराई से बैठा था कि जंगल जितना देता है, उतना ही लौटाना भी चाहिए।

उनका एक बुज़ुर्ग अक्सर बच्चों को समझाता—"अगर हमने इस जंगल को तकलीफ़ दी, तो एक दिन यह मौन हो जाएगा। फिर हमारे गीत भी थम जाएंगे। हमारे घर, हमारा भोजन और हमारी सांसें सब कुछ छिन जाएगा।" ये सब बताते हुए बरबस ही उसके मुँह से एक गीत के बोल फुट पड़े—

"अह हो! अह हो! तुंका मा’ली, हायो न ते!"
(सुनो! सुनो! जंगल हमें बुलाता है!)

"का’ना तु हा, वो’मा तु हा, सोंगा ना हे!"
(पत्ते गाते हैं, नदी नाचती है, रात हंसती है!)

"ओ हा! ओ हा! हा’तु लोंगी, हा’मा ना हे!"
(हम वन के पुत्र हैं, हम मुक्त हैं!)

इसलिए, सेंटिनली लोग जंगल को कभी दुखी नहीं करते थे। उनके जीवन की कहानी और जंगल की कहानी एक-दूसरे में इस कदर गुंथी हुई थी कि दोनों को अलग करना नामुमकिन था। यह रिश्ता न लालच पर टिका था, न डर पर—यह रिश्ता था प्रेम और सम्मान का।

जनजाति के लोग बाहरी दुनिया से पूरी तरह से अलग थे। वे किसी से भी संपर्क नहीं करते थे और किसी भी बाहरी हस्तक्षेप को अपने क्षेत्र में घुसने को खतरा मानते थे। उनका जीवन बहुत ही साधारण था, लेकिन उनके भीतर आत्मनिर्भरता और जंगल की शक्ति का अडिग विश्वास था। उनकी रीतियों, धार्मिक विश्वासों और जीवनशैली में बहुत गहराई थी, जो हर नए दिन के साथ उन्हें जंगल के जीवन के सच्चे हिस्से में समाहित करती थी।

सेंटिनली द्वीप का यह दृश्य न केवल एक अलग दुनिया का हिस्सा था, बल्कि यह उस समय की गहरी सच्चाइयों और शांति की याद दिलाता था जो हम अक्सर अपनी भागदौड़ भरी ज़िंदगी में भूल जाते हैं।

नीले समुद्र के बीचोंबीच, घने पेड़ों से ढका एक द्वीप था – सेंटिनली। दूर से देखने पर वह एक साधारण टापू लगता, लेकिन उसके भीतर एक ऐसी दुनिया बसती थी, जिसका बाहर की दुनिया से कोई नाता न था। वहाँ के लोग अपने जंगलों की गोद में इस तरह रहते थे, जैसे समय उनके लिए थम सा गया हो।

इन लोगों ने कभी बाहरी दुनिया को अपनाया नहीं। जो भी उनके तटों तक पहुँचने की कोशिश करता, वे उसे घुसपैठिया समझकर अपने तीर-कमान लेकर खड़े हो जाते। उनके लिए जंगल ही सब कुछ था–जीवन, भोजन, विश्वास, और शक्ति।

जैसे ही सूरज की पहली किरण पेड़ों की टहनियों पर झिलमिलाने लगी, जंगल जाग उठा। हल्की ठंडी हवा पत्तों को सहलाने लगी, पक्षियों की चहचहाहट ने नई सुबह का स्वागत किया। पुरुष अपने तीर-धनुष और भाले संभालते हुए हमेशा की तरह शिकार पर निकलने की तैयारी करने लगे, जबकि महिलाएँ जलस्रोत से पानी भरने और भोजन जुटाने में लग गईं। बच्चे पेड़ों की शाखाओं पर झूलते, एक-दूसरे को पकड़ने की होड़ लगाते या मिट्टी में अठखेलियाँ करते रहे। पूरी बस्ती में जीवन की लय थी—कहीं आग जलने की हल्की गंध उठ रही थी, तो कहीं लकड़ी काटने की हल्की थाप सुनाई दे रही थी। प्रकृति के इस संगीत के बीच एक और दिन अपनी नई कहानी लिखने के लिए तैयार था।

वे न तो सोने-चाँदी की परवाह करते थे, न ही किसी बड़े महल का सपना देखते थे। उनके लिए सबसे बड़ा धन उनकी आज़ादी थी – जंगलों में निर्बाध घूमने की आज़ादी, अपने रीति-रिवाज़ों के अनुसार जीने की आज़ादी।

रात को जब आग जलती, तो वे अपने पूर्वजों की कहानियाँ सुनते। उन कहानियों में जंगल की आत्मा बसती थी। उनकी आँखों में भरोसा झलकता – भरोसा इस बात पर कि जब तक वे इस धरती और जंगल का सम्मान करेंगे, तब तक जंगल भी उन्हें जीवन देता रहेगा।

सुनामी के प्रकोप के बाद, तट के करीब के गांव और शहर तबाही के मंजर में बदल चुके थे। राहत और बचाव कार्य शुरू हो चुके थे, लेकिन उत्तरी सेंटिनल द्वीप की ओर कोई संपर्क नहीं हो पाया था। भारतीय नौसेना और तटरक्षक बल को अंदेशा था कि सुनामी की ताकत ने इस द्वीप पर बसे सेंटिनली जनजाति और उसके करीब पहुंची पर्यटक नौका को भी प्रभावित किया होगा।

पर्यटकों के परिवारों ने सरकार से गुहार लगाई थी। "हमारे लोग वहां गए थे। उन्हें वापस लाएं," एक पिता ने मीडिया के सामने कहा। सरकार ने सैटेलाइट इमेजरी और ड्रोन के जरिए द्वीप की स्थिति जानने की कोशिश की, लेकिन घने जंगल और बादलों की वजह से स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाई।

"हमें वहां जमीन पर किसी ना किसी को भेजना ही होगा," भारतीय नौसेना के एक अधिकारी ने सुझाव दिया।

"लेकिन सेंटिनली जनजाति बाहरी लोगों को स्वीकार नहीं करती। हमें इस ऑपरेशन को सावधानी से करना होगा," वरिष्ठ अधिकारी ने चेतावनी दी।

एक हेलीकॉप्टर द्वीप के ऊपर भेजा गया, लेकिन जैसे ही वह तट के करीब पहुंचा, नीचे से सेंटिनली जनजाति के सदस्यों ने भाले और तीर चलाने शुरू कर दिए। यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी, क्योंकि वे बाहरी दुनिया से संपर्क करने के खिलाफ थे।

"वे अब भी जीवित हैं," पायलट ने कहा।

"लेकिन पर्यटकों का क्या?" अधिकारी ने पूछा।

उधर, गुफा के पास, पर्यटक और सेंटिनली जनजाति के लोग सुनामी के बाद की नई परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठा रहे थे। पर्यटक अब जनजाति के नियमों का पालन कर रहे थे और उनकी जीवनशैली का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे थे। वे जनजाति के साथ मिलकर भोजन जुटाते, जलावन के लिए लकड़ी लाते और उनकी भाषा और इशारों को समझने की कोशिश करते। जनजाति और पर्यटक दोनों समूह अकेले में एक-दूसरे के विषय में लोगों के कूट संक्षिप्त नामों से बातचीत करते।

एक दिन, जनजाति के एक युवक ने जंगल के किनारे खड़े होकर आकाश की ओर इशारा किया। पर्यटकों ने देखा कि एक बार फिर हेलीकॉप्टर दूर से उनकी दिशा में उड़ रहा था।

"शायद वे हमें ढूंढने आए हैं," एक महिला ने कहा।

लेकिन जनजाति के बुजुर्ग ने मना करने के लिए हाथ उठाया। "यह उनका तरीका नहीं है," एक पर्यटक ने धीरे-धीरे समझाया।

हवा में गूंजती हेलीकॉप्टर की तेज आवाज़ ने द्वीप के घने जंगलों में छिपे पक्षियों को आसमान में उड़ा दिया। सेंटिनली लोग, जो अपने हथियारों के साथ सतर्क रहते हैं, पेड़ों की छाया से निकलकर समुद्र तट की ओर बढ़ते हैं। उनमें से एक,  मजबूत और निर्णायक नेता, अपने सिर पर लाल रंग की पट्टी बांधे, अपने धनुष और तीर के साथ सबसे आगे खड़ा है।

हेलीकॉप्टर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगता है, मानो उस दुनिया से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा हो जिसे बाहरी दुनिया ने अब तक अज्ञेय और रहस्यमयी माना है। पायलट ने खिड़की से बाहर झांका और राहत सामग्री से भरा एक टोकरा नीचे गिराने की तैयारी करने लगा।

अचानक, उस नेता ने अपने धनुष को खींचा और एक तेज़ और सटीक तीर हेलीकॉप्टर की ओर छोड़ा। तीर हेलीकॉप्टर के नीचे लगे मेटल पर टकराया और झनझना कर गिर पड़ा। यह एक स्पष्ट संदेश था—"हम तुम्हें यहाँ नहीं चाहते।"

हेलीकॉप्टर हिचकोले खाते हुए कुछ देर तक हवा में रुका रहा। पायलट ने रेडियो पर संदेश भेजा, "वे मदद नहीं चाहते। हमें लौटना होगा।"

नीचे, सेंटिनली नेता ने अपने लोगों की ओर देखा। उनकी आँखों में गर्व और स्वतंत्रता का तेज था। उन्होंने अपने तीर को वापस अपने तरकश में रखा और हाथ से इशारा किया—चलो, जंगल में लौट चलें।

जैसे ही हेलीकॉप्टर आसमान में ओझल हुआ, सेंटिनली लोग जंगल के बीच अपने सुरक्षित और रहस्यमयी घरों की ओर लौट गए। उनके कदमों से रेत पर गहरी लकीरें खिंच गईं, मानो यह उनकी स्वतंत्रता और परंपरा की गवाही दे रही हो।

समुद्र शांत था और द्वीप पर एक बार फिर प्रकृति का शासन स्थापित हो गया।

सरकार ने समझ लिया कि जबरदस्ती संपर्क स्थापित करना जनजाति के लिए हानिकारक हो सकता है। उन्होंने एक अनुभवी मानवविज्ञानी और स्थानीय गाइड को शामिल किया, जिन्होंने सेंटिनली जनजाति के बारे में जानकारी दी।
"हमें उन्हें भरोसा दिलाना होगा कि हमारा इरादा उनके लिए नुकसानदेह नहीं है। लेकिन हमें दूरी बनाए रखनी होगी," विशेषज्ञ ने सुझाव दिया।

अगले दिन, नौसेना ने हेलीकॉप्टर से तट पर कुछ खाने-पीने की वस्तुएं, कपड़े और प्राथमिक चिकित्सा सामग्री गिराई। साथ ही, उन्होंने एक वाटरप्रूफ संदेश भी भेजा, जिसमें लिखा था:
"हम शांति से आए हैं। अगर पर्यटक आपके पास हैं, तो उन्हें लौटाने में मदद करें।"

लेकिन तट पर खड़ा सेंटिनली युवक उन वस्तुओं को छूने के बजाय उन्हें नजरअंदाज करता हुआ जंगल की ओर चला गया। यह एक और स्पष्ट संकेत था कि जनजाति बाहरी हस्तक्षेप को नकार रही थी।

पर्यटकों ने महसूस किया कि उनकी स्थिति अब एक दुविधा बन चुकी है। एक ओर, वे जानते थे कि बाहर की दुनिया उन्हें ढूंढ रही है। दूसरी ओर, उन्होंने जनजाति के साथ एक अनकहा रिश्ता विकसित कर लिया था।

"क्या होगा अगर हम वापस लौट गए तो?" एक पर्यटक ने कहा।

"शायद यह उनके विश्वास को तोड़ने जैसा होगा," दूसरे ने जवाब दिया।

जनजाति के एक बुजुर्ग ने आग के पास बैठते हुए संकेतों में उन्हें समझाया कि यह द्वीप उनकी आत्मा का हिस्सा है। उन्होंने यह भी इशारा किया कि बाहरी दुनिया से संपर्क करना उनके लिए खतरा हो सकता है।

एक सुबह, जब सभी लोग गहरी नींद में थे, एक पर्यटक बगैर किसी को बताये जंगल में चला गया। दिन ढल गया, लेकिन वह अभी तक लौटकर नहीं आया। यह असामान्य था, क्योंकि कभी किसी पर्यटक ने जंगल में इतनी देर तक अकेले रहने का साहस नहीं किया था। उसकी अनुपस्थिति ने सभी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी थीं। सेंटिनली लोग और दो अन्य पर्यटक रातभर उसे ढूंढते रहे, लेकिन उसका कोई पता नहीं चला।

रात के अंधेरे के बाद, हल्की सुबह की रोशनी जंगल की घनी छांव से छनकर आ रही थी। लेकिन यह रोशनी किसी राहत का संकेत नहीं देती थी, बल्कि और भी गहरी चिंता को जन्म देती थी। आग के पास बैठे लोग एक दूसरे को घूरते हुए चुपचाप बैठे थे। जंगल में गए साथी का अब तक कोई सुराग नहीं था। रात भर, दूर से अजीब सी आवाजें सुनाई देती रहीं—कभी किसी टूटती टहनी की, कभी झाड़ियों में सरसराहट की। फिर भी वह नहीं लौटा।

"अगर वह वापस न आया तो?" एक व्यक्ति ने हलके से कहा, मानो ज़ोर से बोलने से भी कोई अनहोनी हो जाएगी।

तभी, झाड़ियों में हलचल हुई। सभी की धड़कनें तेज हो गईं। किसी के कदमों की आहट सुनाई दी—धीमी, थकी हुई, जैसे कोई घसीटते हुए चल रहा हो। आग की लौ में एक परछाईं झलकी।

यह वही था! लेकिन कुछ बदला हुआ था। उसके कपड़े गीले और गंदे थे, चेहरा मिट्टी से लथपथ, आँखें भय से फैली हुईं। वह कांप रहा था, जैसे कोई डरावनी चीज़ अभी भी उसके साथ हो।

क्या हुआ?" एक व्यक्ति ने काँपती आवाज में पूछा, मानो डर से हर शब्द फुसफुसा रहा हो।

वह कुछ कहने ही वाला था कि अचानक उसकी आँखों में अजीब सा डर कौंध गया। वह पीछे मुड़ा और जंगल की ओर देखने लगा—जैसे कुछ अब भी उसका पीछा कर रहा हो। पेड़ों के बीच अंधेरा अब भी सजीव लग रहा था, मानो वहाँ कोई छिपा हो, कोई जो चाहता था कि यह रहस्य कभी उजागर न हो।

कई असफल प्रयासों के बाद, सरकार ने द्वीप पर किसी तरह का दखल न देने का निर्णय लिया।

"हमें पर्यटकों के जीवन के बारे में यकीन नहीं है, लेकिन सेंटिनली जनजाति की सुरक्षा और उनके अधिकारों का सम्मान करना प्राथमिकता है," एक मंत्री ने मीडिया को बताया।

पर्यटक अब धीरे-धीरे जनजाति की जीवनशैली का हिस्सा बन रहे थे। उन्होंने सीख लिया था कि कैसे प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जिया जा सकता है। उनके दिल में अपने परिवार और बाहरी दुनिया की यादें थीं, लेकिन वे जानते थे कि इस नई दुनिया ने उन्हें एक अनमोल सबक दिया है—सादगी और सहयोग का।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, गुफा में रहने वाले पर्यटकों और सेंटिनली जनजाति के बीच की खामोश समझदारी गहरी होती गई। सुनामी ने उन्हें एक साथ लाया था, और प्रकृति ने उन्हें सिखाया था कि कैसे सह-अस्तित्व में जिया जा सकता है।

इस बीच सरकार ने सेंटिनली जनजाति की स्थिति जानने के लिए एक कमेटी का गठन किया। कमेटी ने नौसेना की उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा की सेंटिनली जनजाति के सभी लोग सुनामी में खत्म हो गये।

उस दिन गोधूलि की बेला में तट का आकाश सुनहरी लालिमा से भर उठा था। क्षितिज पर डूबते सूर्य की किरणें समुद्र की लहरों पर बिखरी हुई थीं, मानो जल पर किसी ने सोने की परत चढ़ा दी हो। हवा में हल्की नमी थी और लहरों का मधुर संगीत उस क्षण की निस्तब्धता में एक अनकही कविता सा बह रहा था।

नाव की ओर बढ़ते कदमों की आहट रेत पर हल्के निशान छोड़ रही थी। मेहमानों का छोटा दल आगे था, और उनके पीछे जनजाति के लोग चुपचाप चल रहे थे—उनकी आंखों में मौन, मगर गहरा अपनापन था। कोई औपचारिकता नहीं, कोई बनावटीपन नहीं—बस एक सहज, आत्मीय संबंध जो शब्दों के परे था।

तट के किनारे पहुंचकर मुखिया आगे आया। उसकी उम्रदराज आंखों में जीवन का अनुभव झलक रहा था और स्वर में स्थिर गरिमा थी। उसने हाथ बढ़ाया और उसकी हथेलियों की ऊष्मा में विश्वास और सम्मान की तपिश महसूस की जा सकती थी।

"तुमने हमारे जीवन को देखा, समझा और उसे आदर दिया। यह स्मृति हमारे बीच हमेशा जीवित रहेगी।"

उसकी आवाज में हल्की कंपन थी, मानो मन की गहराइयों से निकले शब्द लहरों में घुल रहे हों।

उसी क्षण एक झुकी कमर वाली वृद्धा आगे आई। उसकी झुर्रियों में समय की कहानियां बसी थीं। उसने कांपते हाथों से एक छोटी टोकरी मेहमानों की ओर बढ़ाई—उसमें सूखे फूलों की महक थी, जड़ी-बूटियों की ताजगी और लकड़ी की एक छोटी मूर्ति, जो जनजाति की आत्मा का प्रतीक थी। वह कोई साधारण उपहार नहीं था; वह उनके जीवन का सार था—प्रकृति के साथ जुड़ाव, साधारण में सुंदरता और समय से परे एक अपनापन।

मेहमानों ने उस भेंट को दोनों हाथों से लिया, मानो कोई पवित्र चीज़ ग्रहण कर रहे हों। उन्होंने नाव पर कदम रखा, मगर कुछ कदम पीछे छूट गए थे—उनके दिल, उनकी स्मृतियां।

नाव तैरने लगी। उन्होंने अंतिम बार तट की ओर देखा। जनजाति के लोग एक सीध में खड़े थे—शांत, स्थिर। आंखों में विश्वास, चेहरों पर मुस्कान और हवा में उठते हाथ। वह विदा नहीं थी; वह पुनः मिलने का मौन वचन था।

नाव धीरे-धीरे आगे बढ़ी, लहरें गहराती गईं। तभी, हवा में एक स्वर लहराया।

" ओ हा! ओ हा! तुंगा मा’ली, हा’ना ते!"
(जाओ! जाओ! नदी का मार्ग तुम्हारा है!)

"सा’री का’तो, मो’ना तु हे!"
(हवा की कोमलता, तुम्हारे संग चले!)

"हा’ला तु ना, का’ला तु ना, मोंगा हा हे!"
(भूलना मत, लौट आना, मित्र हमारे!)

"ओ हु’मा ना, सा’ली तु हे!"
(हम यहाँ हैं, जंगल यहाँ है!)

यह जनजाति का गीत था—धीमा, गूंजता हुआ। वह महज गीत नहीं था, वह उनकी आत्मा थी, उनकी मिट्टी की धड़कन, उनका इतिहास—जो समुद्र के उस पार मेहमानों के साथ चल पड़ा था।

नाव पर खड़े उन यात्रियों ने महसूस किया कि वे खाली हाथ नहीं लौट रहे। वे अपने भीतर एक नया संसार ले जा रहे थे—जीवन को देखने का नया दृष्टिकोण, किसी और की आंखों से दुनिया को समझने की विनम्रता, और उस धरती से जुड़ने की सीख, जहां हर सांस में प्रकृति का सम्मान बसता है।

सूर्य डूब चुका था। नाव लहरों में विलीन हो गई। तट पर जनजाति के लोग अब भी खड़े थे—अपनी धरती, अपने अस्तित्व के साथ एकाकार। वह क्षण विदा का नहीं था; वह दो दुनियाओं के बीच एक पुल बनने का था। एक ऐसा पुल, जो समय की सीमाओं से परे, स्मृतियों और विश्वास की नींव पर हमेशा बना रहेगा।

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