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अंतरिक्ष पर उद्धरण

अंतरिक्ष का मूल अर्थ

पृथ्वी और द्युलोक के मध्य का स्थान है। इस अर्थ के साथ ही बाह्य और अंतर-संसार में बीच की जगह, दूरी, मन के रिक्त स्थान, विशालता जैसे तमाम अर्थों में यह शब्द कविता में अपना अंतरिक्ष रचता रहा है।

बिंदु की फैलती हुई वृत्तात्मकता ही परिधि है।

श्रीनरेश मेहता

कोई नहीं जानता कि आदिम प्रकाश का वह प्रथम, बीज-ज्योति-कण या समय का वह प्रथम बीज-क्षण इतने गणनातीत वर्षों के बीत जाने पर भी महाज्रोति या महाकाल तक पहुँचा है कि नहीं।

श्रीनरेश मेहता

उस परा-शून्य में आकार-प्रकार के सारे शून्य विलीन होकर केवल ‘महत्’ हो जाते हैं।

श्रीनरेश मेहता

एक दिन जब मूल-बीज निष्क्रिय हो जाता है; तब ऐसी वृत्तहीनता जाती है कि शब्द रहता है, ज्योति; प्रतीति रहती है, प्रक्रिया।

श्रीनरेश मेहता

बिंदु जितना सक्रिय होगा, परिधि उतनी ही विशालतर होती जाएगी।

श्रीनरेश मेहता

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