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चंद्रशेखर आज़ाद की डायरी

[1925-26 का दौर था। काकोरी कांड के बाद हुई धड़-पकड़ में, अधिकांश क्रांतिकारी अँग्रेज़ों की गिरफ़्त में आ चुके थे। चंद्रशेखर परंतु ‘आज़ाद’ थे। पुलिस उनको न पकड़ सकी थी। काकोरी ट्रेन एक्शन जब अपने सौंवें वर्ष में खड़ा है, तो आज़ाद चंद्रशेखर की मनस्थिति पर दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है।]

जब जीवन रफ़्तार पकड़ना शुरू करता है तो अक्सर नियति जूते के फ़ीते बाँधने में उलझा देती है। एक फ़िरंगी जज की क़लम की स्याही बरसों की मेहनत, त्याग और मिट्टी से सींचे गए संग्राम को एक झटके में अँधेरे के गर्त में धकेल देती है। उम्मीदें हिस्सों में जन्म लेती हैं, पर उन पर प्रहार एकबारगी होता है।

दल बनाएँगे, क्रांति का बीज बोएँगे, देश को जगाएँगे, अपना संदेश देश-दुनिया तक ले जाएँगे, आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन संचय करेंगे, हर संभव प्रयत्न करेंगे कि एक दिन आज़ाद मुल्क में साँस ले सकेंगे। पर एक दिन असंख्य सपनों के ढेर पर बैठी सरकार आएगी और आपके पूरे काम पर तेज़ाब फेंक देगी। क्यों? क्योंकि सत्ता को सबसे ज़्यादा डर विचार से लगता है। सुविधा को सबसे ज़्यादा चिढ़ बदलाव से होती है। राज करने वालों को सबसे ज़्यादा समस्या ज़िंदा जनता से होती है। मुर्दों पर शासन करना आसान होता है। वे सवाल नहीं करते। वे संगठित नहीं होते। वे याद नहीं रखते। 

राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह। यूँ ही इनके हिस्से फाँसी नहीं आई। अगर बिस्मिल की कविता किसी किसान की बेटी की आँखों में जल उठी? अगर अशफ़ाक़ की मुस्कान किसी मज़दूर के बेटे की मुट्ठी बन गई? अगर काकोरी की गूँज सरकार के गलियारों तक पहुँच गई? तो यह पूरा साम्राज्य, जो झूठ के काग़ज़ पर खड़ा है, धसक जाएगा। इसलिए लटका दो, भेज दो कालापानी, ताकि जो बचें भी चाहे अंदर हों या बाहर मुर्दा शांति से भर जाएँ। क्योंकि बक़ौल पाश—

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।

पर अगर इतना ही सरल होता उनके सपनों को मारना, उनको शांत कर देना तो वे इस काँटों से भरे मार्ग पर आते ही नहीं। अवश्य ही चंद्रशेखर आज़ाद एवं मुक्त सभी सदस्यों की ज़िम्मेदारी और बढ़ गई होगी। यहाँ से पीछे लौटने का अर्थ तो होता बिस्मिल, अशफ़ाक़, लाहिड़ी, रोशन का अपमान। अब तो प्रतिशोध भी लेना था और इस बात का भी ध्यान रखना था कि उनके आदर्शों से कहीं भटक न जाएँ।

कितना दुरूह रहा होगा ना चंद्रशेखर के लिए...। आज़ाद बहुत मिलनसार नहीं थे, पर अपने साथियों की याद अवश्य सताती होगी। वे साथी जिनके साथ बनारस की गलियों में घूमे, उछलते-दौड़ते काम किया, जिनके संसर्ग में पिस्तौल को स्पर्श किया, न भोजन की परवाह की, न परिवार की ओर लौटे; बस तन-मन से लगे रहे—इस इच्छा से कि आज़ादी एक दिन अवश्य दस्तक देगी। अब उन्हीं साथियों को कफ़न में देखना भी नसीब में नहीं था। उन्हीं साथियों को अब पुलिस की वैन में ले जाकर जेल में ठूँस दिया गया, जहाँ पशु से भी निम्न स्तरीय व्यवहार उनके साथ होता था। हर एक कौर में, हर एक साँस में उनकी याद आती होगी। हर वक़्त दिमाग़ यही सोचता होगा कि क्या करूँ? कैसे जेल से छुड़ाया जाए, कैसे फाँसी से बचाया जाए? पर जब विचारों को स्वयं तक ही सीमित रखना पड़ता और उनका क्रियान्वयन असंभव प्रतीत होता, तब अवश्य ही वे अपने अस्तित्व पर सवाल उठाते।

रात की शांति घेरे थी, पर नींद नहीं आ रही थी। यही विचार बारम्बार अनेक रूपों में घूम रहे थे। बेड से उठा, लाइट जलाई, कमरे से बाहर निकला और फ़्रिज से बोतल निकाल पानी पीने लगा। वापिस कमरे में लौटा तो कुर्सी पर टेक लिया, बिस्तर की ओर पैर फैलाया और किताबें पलटने लगा। उन सुघड़ किताबों को पलटते-पलटते नज़र अलमारी में किताबों के बीच रखी एक पुरानी डायरी की ओर गई। डायरी की जिल्द कभी गाढ़े भूरे रंग का रही होगी, लेकिन अब रंग फ़ीका पड़ गया था। उठा और ऊपर रखी हुई किताबों को अलग करते हुए डायरी निकाल ली। डायरी के किनारे अंगुलियों से घिसकर मुलायम हो चुके थे, लेकिन उन पर अब भी पसीने और धूल का जमा हुआ अँधेरा साफ़ दिखता था।

कवर के भीतर के पन्ने पीलापन लिए थे, किनारों पर हल्की भूरी झलक और बीच में धूप से बचे हुए उजले टुकड़े। पन्नों पर जगह-जगह स्याही की बूंदें, कुछ फैल चुकी, कुछ जमी हुई थी। डायरी के पन्ने पलटे तो उनमें वे टाइम-टेबल मिले जिनका दो-चार दिन से अधिक पालन न हो सका। दसवीं के बोर्ड में टॉप करने की संपूर्ण विधि मिली। साथ ही मिली कुछ कविताएँ, सूत्र एवं कुछ निबंध।

डायरी पलटते हुए ख़याल आया कि अगर चंद्रशेखर आज़ाद डायरी लिखते तो वह कैसी होती? जब अँग्रेज़ थाने से लेकर मंदिर तक, चाय की दुकानों से लेकर घाटों तक—छान मार रहे थे, तब आज़ाद रोज़ रात को अँग्रेज़ों को चकमा देने के बाद डायरी लिखते तो अपने विचार, अनिश्चितता, दल के भविष्य की चिंताएँ और एक-एक दृढ़ संकल्प अवश्य उनकी डायरी के पृष्ठों से परिलक्षित होता। 

सितंबर 1925 | बनारस

मेरे साथियों को पुलिस उठा ले गई। मेरे कमरे पर भी तलाशी लेने आई थी। किसी तरह बच निकला। पर अब अकेले सोचता हूँ कि मैं बच कर क्या किसी काम आ पाऊँगा? कहीं और ही भटक गया तो? क्रांति की सड़क से मोहभंग हो गया तो? आज़ाद नाम तो रख लिया, पर क्या यह उतना ही पर्याप्त है? क्या नाम की लाज रख पाऊँगा? पता नहीं! बीते एक्शनों और काकोरी के बाद समझ आया कि जीत तो वक़्त की मेहरबानी है, पर कोशिश... वो क्रांतिकारी की पहचान है। जीवन में एक दरवाज़ा खुलता है, तो सौ बंद हो जाते हैं। पर हमें क्या? हम तो सोच-समझ कर दीवारों में दरार लाने निकले थे। मार्ग हमारा, तो उसकी कठिनाइयाँ भी हमारी।

शहर अब हमारा नहीं रहा। सड़क पर हर खाँसी, हर क़दम, हर साइकिल की घंटी एक बुरा संकेत मालूम पड़ती हैं। रात को मैंने सपना देखा। मैं ट्रेन की तीसरी बोगी से कूद रहा हूँ और पीछे कोई पुकार रहा है—“ओ आज़ाद!”

मैं मुड़ा नहीं। 

शायद अब मुड़ना मना है।  

सितंबर 1925 | अपने ही देश में कहीं

हमने जो शुरुआत की है, उसमें कोई पिछली गली नहीं होती। या तो आगे जाकर जीतेंगे या नाम के साथ गोली चलाएँगे। पेड़ों की सरसराहट, दूर गीदड़ों की चीख़ और अपनी ही साँस की लय—यही साथी हैं अब।

कल रात मंदिर की टूटी मूर्ति के पीछे सिर टिकाकर सो गया। सपने में माँ आई। कह रही थी—“भूखा क्यों रह गया?”

अब क्या जवाब देता?  घर जाने का मतलब उनको भी फँसा देना। जब उनको पता चलेगा कि संस्कृत पढ़ने बनारस गया उनका बच्चा, लूट और हत्या के मामले में फ़रार है तो न जानें क्या सोचें।

राम प्रसाद नहीं हैं, अशफाक कहाँ हैं, ख़बर नहीं। मन्मथनाथ जो मुझे दल में लाया, उसे पकड़ लिया गया। शायद प्रणवेश और राजेंद्र बाबू को भी। एक-एक करके हम बिखरते जा रहे हैं। हम में से कोई बचे न बचे। किसे मालूम।

कभी-कभी सोचता हूँ कि ये सब क्यों कर रहा हूँ? पर सब कुछ उत्तर के लिए कहाँ किया जाता है? कुछ तो संतुष्टि के लिए भी किया जाना चाहिए। मैंने कल एक टूटी दीवार पर लिखा—“आज़ाद यहाँ था।”

फिर मिटा दिया।

कभी लगता है, इस पूरी कोशिश का सबसे अकेला हिस्सा यही है कि जब तुम्हें पहचानने वाला कोई न बचे, तब तुम ख़ुद को भी भूलने लगते हो। अजनबी चेहरों की नज़रें जो ज़रा ज़्यादा देर तक टिक जाती हैं, मैं उन्हें देखकर मुस्कुराने की कोशिश करता हूँ, जैसे मैं कोई पथिक हूँ। पर शायद मैं अब वैसा दिखता नहीं। थक गया हूँ और मैं थकान छुपा नहीं पाता।

1925 | जब न जिंदा रहने का पता, न रहने का ठिकाना तो क्या तारीख़ और क्या स्थान!

कल से पेट में कुछ ढंग का नहीं गया। एक किसान की औरत ने उबला हुआ चना दिया था। मैंने ‘धन्यवाद’ कहना चाहा, पर आवाज़ ही नहीं निकली। रिवॉल्वर अब भी कमर में है, पर उसे पकड़ने में उंगलियाँ सिहर जाती हैं। आज पुरानी बातें लौट-लौट कर आई। वो रातें याद आईं, जब बहस चलती रहती थी—पॉलैंड की लड़ाई से लेकर रूस की क्रांति तक, ‘विकास’, ‘प्रगति’, ‘स्वतंत्रता’, ‘विश्व-कल्याण’ दुनिया जहान की बातें।

बिस्मिल को तो किताबें ही नींद की गोली थीं। शचीन दा भी पढ़ने पर बहुत ज़ोर देते थे। मन्मथ ने उनकी ‘बंदी जीवन’ मुझे दी थी। कुछ पढ़ी भी थी मैंने। मन्मथ भी बहुत पढ़ता था। वह मुझे अक्सर किताबें दिया करता था। मैं बड़ी जल्दी लौटा देता था। सोचता होगा कि ये कौन लड़का आ गया है जो हमसे भी तेज़ पढ़ लेता है। उसको क्या मालूम कि कई तो बिना पढ़े ही लौटा देता था। हाहाहा... 

बीच में एक सरदार लड़का आया था। मुझसे कुछ छोटा रहा होगा। हमें बताया गया था कि पंजाब से घर छोड़ कर आया है। बमरौली में साथ था, पर बहुत बात हमारी नहीं हुई थी। वो भी बहुत किताबें पढ़ता था। सिर्फ़ पढ़े तो ठीक। उन पर चर्चा भी छेड़ता था और हम लोगों को भी देता था। (कार्ल) मार्क्स की ‘कैपिटल’ (दास कैपिटल) दिया एक बार। अब हमसे संस्कृत के चार श्लोक याद हुए नहीं, ये भारी-भरकम पोथा कहाँ से पढ़ें। पिस्तौल चलानी हो तो बताते। पर वो कहता था कि पिस्तौल से अधिक ताक़त विचार में है। बात तो सुनने में ठीक लगती थी। पर अब जो सरकार मशीन गन लिए खड़ी है, उसका सामना विचार से कैसे करें? विचार से ही करना हो तो गांधी जी कर तो रहे हैं। धीरे-धीरे वो भी लगे ही हैं। संत आदमी हैं। उनका रास्ता लंबा है। वो उम्मीद करते हैं कि सामने वाला अपने ज़मीर से जागेगा। पर जब सरकार दिन-ब-दिन क्रूर होती जा रही है, तो कैसे करें इंतज़ार?

मैं गांधी नहीं बन सकता और शायद मुझे बनना भी नहीं है। एक ही रास्ता हो, एक ही मोर्चे पर लड़ाई हो यह भी तो सही नहीं। भगवान के जब इतने रूप हैं तो आज़ादी के लड़ाई के भी कई स्वरूप हो सकते हैं।

ख़ैर, अब क्या क्रांतिकारी, क्या विद्यार्थी। अब तो लगता है हम सिर्फ़ ‘संभावित अभियुक्त’ हैं। पोस्टरों पर छपे नाम हैं—जिनके नीचे ‘ज़िंदा या मुर्दा’ लिखा है।

अक्टूबर 1925 | इलाहाबाद के एक ठिकाने की छत

मनुष्य अपना ही वादा निभाने कितना दूर आ जाता है ना? अगर मैं सिर्फ़ चंद्रशेखर रहता? वो लड़का जो पहाड़ों पर दौड़ता था। माँ की डाँट खाकर सो जाता था, दुपहर में आम तोड़कर भागता था।
पर मैं ‘आज़ाद’ बन गया। अब इसे नाम की महत्ता समझूँ या अपनी असमर्थता कि अब किसी की गोद में सिर भी नहीं रख सकता। शायद आज़ाद नाम भी उसी प्रकार कीमत माँगता है, जैसे आज़ादी। कभी नहीं सोचा था कि आज़ादी का मतलब इतना अकेलापन होगा। कहीं चंद्रशेखर से आज़ाद बनने में जल्दी तो नहीं कर दी? पता नहीं।

सुनने में आया कि कुछ साथियों ने मुख़बिरी कर दी है। मैं उन्हें दोष नहीं देता, क्योंकि डर बहुत गहरा होता है। वो किसी हंटर से नहीं, किसी दीवार पर टंगी माँ की तस्वीर से आता है। जो बर्बाद होते भविष्य को देख कर उपजता है। मैं भी माफ़ी माँग लूँ तो? हरगिज़ नहीं। माफ़ी माँगना, उस लड़के के साथ धोखा होगा, जिसने चंद्रशेखर से आज़ाद बनने की हिम्मत की थी। माफ़ी माँग ली तो क्या होगा? 

क्या बिस्मिल लौट आएँगे? क्या अशफ़ाक़ फिर से हँसेगा, या ठाकुर साहब अपनी बंदूक़ खोल कर बोलेंगे—“चलो, एक और योजना बनाते हैं।”

नहीं। कोई नहीं लौटेगा। माफ़ी किसी को वापिस न लाएगी, बस मुझे भी कायर बनाकर भीतर से मार देगी और मैं वो नहीं बन सकता। अब नहीं, क्योंकि अगर मैंने एक बार कह दिया—“माफ़ करना, मैं ग़लत था” तो उस नाम से सारा मतलब चला जाएगा जो मैं इतने सालों से पीठ पर उठाए चला हूँ। ‘आज़ाद’ हूँ—इसलिए नहीं कि मैं सही था, बल्कि इसलिए कि जब सभी ने सर झुका लिया, मैंने रीढ़ सीधी रखी। अब अगर मैं माफ़ी माँग लूँ, तो उनकी नज़रों में भी झुक जाऊँगा जो अब तक सीधी हैं। मैं माफ़ी नहीं माँगूँगा। मैं उस आख़िरी दीवार तक जाऊँगा—बिना रुके, बिना झुके; फिर चाहे वहाँ सिर्फ़, एक पेड़, एक रिवॉल्वर और मेरे नाम की ख़ामोशी बची हो।  

‘आज़ाद’ माफ़ी नहीं माँगता। 

पर चंद्रशेखर… वो हर रात अपनी माँ से माफ़ी माँगता है, कि वो बेटा नहीं लौटेगा जो कभी अपने पाँव में काँटा चुभ जाने पर घंटों रोया करता था।

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