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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय

1876 - 1938 | कोलकाता, पश्चिम बंगाल

समादृत भारतीय उपन्यासकार और कथाकार। 'देवदास', 'परिणीता', 'श्रीकांत', 'चरित्रहीन' जैसी कृतियों के लिए अत्यंत लोकप्रिय।

समादृत भारतीय उपन्यासकार और कथाकार। 'देवदास', 'परिणीता', 'श्रीकांत', 'चरित्रहीन' जैसी कृतियों के लिए अत्यंत लोकप्रिय।

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उद्धरण

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अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है।

जब देश में कोई विशेष नियम प्रतिष्ठित होता है, तब वह एक ही दिन में नहीं, बल्कि बहुत धीरे-धीरे संपन्न हुआ करता है। उस समय वे लोग पिता नहीं होते, भाई नहीं होते, पति नहीं होते-होते हैं केवल पुरुष। जिन लोगों के संबंध में वे नियम बनाए जाते है, वे भी आत्मीया नहीं होती, बल्कि होती हैं केवल नारियाँ।

यदि समग्र भाव से समस्त नारी जाति के दुःख-सुख और मंगल-अमंगल की तह में देखा जाए, तो पिता, भाई और पति की सारी हीनताएँ और सारी धोखेबाज़ियाँ क्षण भर में ही सूर्य के प्रकाश के समान आप से आप सामने जाती हैं।

यथार्थ प्यार करने में स्त्रियों की शक्ति और साहस पुरुष से कहीं अधिक है। वे कुछ नहीं मानतीं। पुरुष जहाँ भय विह्वल हो जाते हैं, स्त्रियाँ वहाँ स्पष्ट बातें उच्च स्वर से घोषित करने में दुविधा नहीं करतीं।

प्राण स्वयं आपके अपने हैं। यदि आप चाहें तो अपने प्राण दे सकते हैं, लेकिन आपकी जो यह धारणा है कि स्त्री आपकी संपत्ति है, आप उसके स्वामी होने के कारण इच्छा होने पर अथवा आवश्यकता समझने पर उसके नारी धर्म पर भी अत्याचार कर सकते हैं, उसे जीती भी रख सकते हैं और मार भी सकते हैं और उसे वितरित भी कर सकते हैं, तो यह आपका अनधिकार है।

नारियों का सम्मान स्वयं उनके कारण नहीं होता, बल्कि वह उनकी संतान और पुत्र प्रसव पर निर्भर करता है।

अपने हाथ से अपने आदमियों की सेवा और यत्न करने में कितनी तृप्ति होती है, कितना आनंद मिलता है, यह स्त्री जाति के सिवा और कोई नहीं समझ सकता।

नारी के सच्चे रूप का दर्शन कितनी बड़ी दुर्लभ वस्तु है, इस बात को जगत के अधिकांश लोग जानते ही नहीं।

पुरुषों का क्षणिक दुःख तो क्षण भर में ही जाता है, लेकिन जिसे सदा दुःख सहना पड़ता है वह है नारी।

नारी के लिए पति परम पूजनीय व्यक्ति है। सबसे बड़ा गुरुजन है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री पुरुष की दासी है। यह संस्कार नारी को जितना छोटा, जितना तुच्छ कर देता है, उतना और कुछ नहीं।

पति को जिस स्त्री ने हृदय से धर्म के रूप में विचारन नहीं सीखा, उसके पैरों की जंजीर चाहे हमेशा बँधी हो रहे चाहे खुल जाए और अपने सतीत्व के जहाज़ को वह चाहे जितना भी बड़ा क्यों समझती हो, परीक्षा के दलदल में पड़ने पर उसे डूबना ही पड़ेगा। वह पर्दे के अंदर भी डूबेगी और बाहर भी डूबेगी।

संसार में जो लोग बड़े काम करने आते हैं, उनका व्यवहार हमारे समान साधारण लोगों के साथ यदि अक्षर-अक्षर मिले, तो उन्हें दोष देना असंगत है, यहाँ तक कि अन्याय है।

भगवान कितना अधिक दुःख-कष्ट मनुष्य को देते हैं, तब उसे सच्ची मानवता तक पहुँचा देते हैं।

विधाता को दोष देती हूँ कि उन्होंने क्यों इतने कोमल और जल के समान तरल पदार्थ से नारी का हृदय गढ़ा था।

जो लोग दोनों आँखें खोले हुए देखते हैं, लेकिन वास्तव में देख नहीं पाते, उन्हीं के कारण सारी गड़बड़ी है। वे आप भी ठगे जाते हैं और दूसरों को भी ठगने से बाज़ नहीं आते।

धर्मवस्तु को एक दिन हम लोगों ने जैसे दल बाँधकर मतलब गाँठकर पकड़ना चाहा था, वैसे उसे नहीं पकड़ा जा सकता। ख़ुद पकड़ाई दिए बग़ैर शायद उसे पाया ही नहीं जा सकता। परम दुःख की मूर्ति के रूप में जब वह मनु्ष्य की चरम वेदना की धरती पर पैर रखकर अकेला खड़ा हो, तब तो उसे पहचान ही लेना चाहिए। ज़रा भी भूल-भ्राँति उससे सही नहीं जाती, ज़रा में मुँह फेरकर लौट जाता है।

संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया।

जान में हो या अंजान में, संसार में ग़लती करने पर उसका दंड भोगना ही पड़ता है।

लड़ाई-झगड़ा, वाद-विवाद और होड़ा-होड़ी करके चाहे जो चीज़ मिल जाए पर धर्म जैसी चीज़ नहीं मिल सकती।

दुःसमय में जब मनुष्य को आशा और निराशा का कोई किनारा नहीं दिखाई देता तब दुर्बल मन डर के मारे आशा की दिशा को ही ख़ूब कस कर पकड़े रहता है।

कवि केवल सृष्टि ही नहीं करता सृष्टि की रक्षा भी करता है। जो स्वभाव से ही सुंदर है उसे और भी सुंदर करके प्रकट करना जैसे उसका एक काम है, वैसे ही जो सुंदर नहीं है, उसे असुंदर के हाथ से बचा लेना भी उसका दूसरा काम है।

पढ़कर आनंद के अतिरेक से आँखें यदि गीली हो जाएँ तो वह कहानी कैसी?

जिसे कुछ आशा है, वह एक तरह से सोचता है और कोई आशा नहीं होती, वह कुछ और ही प्रकार से सोचता है। पूर्वोक्त चिंता में सजीवता है, सुख है, तृप्ति है, दुःख है और उत्कंठा है। इसलिए वह मनुष्य को श्रांत कर देती है—वह अधिक समय तक नहीं सोच सकता। लेकिन आशाहीन को तो सुख है, दुःख है, उत्कंठा है, फिर भी तृप्ति है।

मेरे बारे में पूछताछ करने वाला संसार में एक प्रकार से कोई नहीं है। इसलिए अगर कोई मेरे बारे में भला-बुरा जानना चाहता है, तो सुनकर हृदय कृतज्ञता से भर जाता है, मेरे जैसे हतभाग्य संसार में बहुत ही कम है।

पति को जो वास्तव में धर्म समझकर, परलोक की वस्तु समझकर ग्रहण कर सकी है, उसके पैरों की बेड़ी चाहे तोड़ दी और चाहे बंधी रहने दी, उसके सतीत्व की परीक्षा अपने-आप हो ही गई, समझ लो।

इस पृथ्वी पर एक ख़ास तरह के आदमी हैं जो मानों फूस की आग हैं। वे झट से जल भी उठते हैं और फिर चटपट बुझ भी जाते हैं। उन लोगों के पीछे सदा-सर्वदा एक आदमी रहना चाहिए जो आवश्यकता के अनुसार उनके लिए फूस जुटा सके।

जीवन के अज्ञात पथ में मनुष्य के साथ मनुष्य का गहरा परिचय कब किस दिन किस माध्यम से कैसे हो जाता यह कोई नहीं जानता।

अर्थहीन अकारण विप्लव की चेष्टा में रक्तपात होता है, और कोई फल प्राप्त नहीं होता। विप्लव की सृष्टि मनुष्य के मन में होती है, केवल रक्तपात में नहीं। इसी से धैर्य रखकर उसकी प्रतीक्षा करनी होती है।

जंगल में रहने वाले पक्षी की उपेक्षा पिंजड़े का पक्षी ही अधिक फड़फड़ाता है।

ऊधम मचाना एक तरह का नशा है। मचा सकने से तकलीफ़ होती है, हुड़क-सी आने लगती है।

प्यार के धन का, सचमुचही कोई अपने हाथ से अमंगल नहीं कर सकता। उसका निज का दुःख चाहे जितना हो वह सहना ही होगा।

संभवत: आँखें रहने से जिस मार्ग से मनुष्य नहीं जाता, उस प्रकार के मार्ग में प्रेम उसको ले जाता है।

द्विधा और दुर्बलता पाप हैं। पाप ही क्यों, महापाप हैं।

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जो लोग यह समझते हैं कि संसार में और सब कामों के लिए तैयारी की आवश्यकता होती है, केवल विप्लव ही ऐसा काम है जिसमें तैयारी का कोई आवश्यकता नहीं होती—उसे प्रारंभ कर देने से ही काम चल जाता है, वे चाहे और जितना कुछ जानें विप्लव तत्त्व के विषय में कुछ नहीं जानते।

कसौटी पर कसे गए बिना जीवन की परख नहीं होती।

मृत्यु का शोक जैसा बड़ा है उसकी शांति और माधुर्य भी वैसे ही बड़े हैं।

जीव-जगत् की सृष्टि करने वाले का सबसे श्रेष्ठ दान माता का स्नेह है।

  • संबंधित विषय : माँ

स्वामी पसंद-नापसंद की चीज़ नहीं है। उसे बिना कुछ विचारे मान लेना होता है।

जो प्यार करता है, उसके हाथ से कभी अकल्याण नहीं होता।

जो परिहास का उत्तर नहीं दे सकता, वह हँसता हुआ कम से कम रस तो ले सकता है।

अकारण निर्दय हो सकना ही पुरुष का पौरुष नहीं है।

पहले से समझ में नहीं आता, इसी से तो उसे भविष्य कहा जाता है।

जो महान होते हैं उन्हें किसी भी अवस्था में दूसरों की विपत्ति में अपनी विपत्ति का विचार नहीं रहता।

प्रथा जब एक बार धर्म का रूप धारण करके खड़ी हो जाती है, फिर कोई भी निष्ठुरता असाध्य नहीं रह जाती, बल्कि कार्य जितना भी अधिक निष्ठुर होता है और जितना ही अधिक बीभत्स होता है, पुण्य का वज़न भी उतना ही बढ़ जाता है।

जिसे हम प्यार करते हैं, वह अगर हमें प्यार करे, यहाँ तक कि घृणा भी अगर करे, तो हम उसे शायद सह सकते हैं, किंतु जिसके बारे में विश्वास करते हैं कि उसका प्यार हम प्राप्त कर चुके हैं, उसी के विषय में यदि अपनी भूल हमें मालूम हो जाए तो वह बड़े कष्ट की स्थिति होती है। पहली अवस्था में तो व्यथा ही होती है परंतु दूसरी अवस्था में अपना अपमान भी जान पड़ता है।

क्या यह सच है कि प्रेम अंधा है? यदि हाँ, तो देखो अंधा आदमी गढ़े में गिर जाता है तो लोग दौड़कर उसे निकाल लेते हैं—उसके लिए दुःख करते हैं। लेकिन प्रेम से अंधा होकर वही आदमी जब नीचे गिर जाता है, तब कोई हाथ पकड़कर उसे उठाने को नहीं दौड़ता—यह क्यों? जिस सत्य का मनुष्य है, प्रयोजन के समय वह उस सत्य की कोई मर्यादा नहीं मानता।

समाज में जिसे गौरव प्रदान नहीं किया जा सकता, उसे केवल प्रेम के द्वारा सुखी नहीं किया जा सकता। मर्यादाहीन प्रेम का भार शिथिल होते ही दुस्सह हो जाता है।

शरद् ऋतु के बादल में बिजली है, पानी है। उड़ता-उड़ता फिरता है, कोई भी बात चाहे कितनी ही बड़ी क्यों हो, उसे वह हँस-खेल के ही उड़ा देता है। तो बिसारी है, वैरागी।

जीवन में उम्र के साथ-साथ जो वस्तु मिलती है, उसका नाम है अनुभव। केवल पुस्तकें पढ़कर इसे नहीं पाया जा सकता। और पाने तक इसका मूल्य नहीं मालूम होता। लेकिन इस बात को भी याद रखना चाहिए कि अनुभव, दूरदर्शिता आदि केवल शक्ति प्रदान ही नहीं करते, शक्ति का हरण भी करते हैं।

कोई भी क्यों हो, जिसका कार्य-कारण हमें नहीं मालूम, उसे अगर हम क्षमा भी कर सकें, तो उसका विचार करके कम-से-कम उसे अपराधी तो नहीं ठहरावें।

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