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पॉलो फ़्रेरा

1921 - 1997 | रियो डी जनेरियो

पॉलो फ़्रेरा के उद्धरण

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समस्या-उठाऊ शिक्षा क्रांतिकारी भविष्यता है।

मनुष्य जब मनुष्यता और उसके ऐतिहासिक रूपों की अंतर्वस्तु को अलग करने की ग़लती नहीं करता, तो चिंतन और कर्म उसके लिए अवश्य करणीय हो जाते हैं।

उत्पीड़ितों के लिए निहायत ज़रूरी है कि वे अपनी मुक्ति की सभी अवस्थाओं में, स्वयं को पूर्णतर मनुष्य बनने के सत्तामूलक तथा ऐतिहासिक कार्य में संलग्न मनुष्यों के रूप में देखें।

वामपंथी से संकीर्णतावादी बना व्यक्ति, द्वंद्वात्मक ढंग से यथार्थ और इतिहास की व्याख्या करने के प्रयास में पूरी तरह भटक जाता है, और पतित होकर सारतः भाग्यवादी दृष्टिकोण अपना लेता है।

यथार्थ में डूबे हुए उत्पीड़ित लोग उस 'व्यवस्था' को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते; जो उन उत्पीड़कों के लिए बनी है, जिनके बिंब को उन्होंने आत्मसात कर रखा है।

चालबाज़ी करने, नारेबाज़ी करने, 'जमा' करने, निर्देश करने, और कठोर अनुशासन लागू करने से क्रांतिकारी आचरण नहीं बनता, क्योंकि इनसे तो प्रभुत्व का आचरण बनता है।

उत्पीड़ित लोग स्वयं पर भरोसा करना तभी शुरू करते हैं, जब वे उत्पीड़क को खोज लेते हैं और अपनी मुक्ति के लिए संगठित संघर्ष करने लगते हैं।

द्वंद्वात्मक चिंतन में विश्व और कर्म, बड़ी घनिष्ठता से परस्पर निर्भर होते हैं। लेकिन कर्म का मानवीय होना तभी संभव है; जब वह धंधे की तरह मन मार कर नहीं, बल्कि सोच-समझ कर पूरी तन्मयता के साथ किया जाए।

संकीर्णतावाद मिथक गढ़ता है और उससे अलगाव पैदा करता है। आमूल-परिवर्तनवाद आलोचनात्मक होता है, इसलिए मुक्त बनाता है।

प्रकृति के बुनियादी जीवन-मरण के अलावा एक अप्राकृतिक जीवित मृत्यु भी होती है, जिसमें जीवन को पूर्णता प्राप्त करने से वंचित कर दिया जाता है।

आमूल-परिवर्तनवादी कभी आत्मपरकतावादी नहीं होता।

चालबाज़ी का एक तरीक़ा, व्यक्तियों में निजी सफलता की पूंजीवादी भूख पैदा करना है। यह चालबाज़ी कभी सीधे-सीधे अभिजनों द्वारा की जाती है, तो कभी परोक्ष रूप से अंधलोकवादी (पॉपुलिस्ट) नेताओं द्वारा कराई जाती है।

शिक्षक सोचता है और छात्रों के बारे में सोचा जाता है।

शिक्षक अपनी मर्ज़ी का मालिक है, वह अपनी मर्ज़ी चलाता है और छात्रों को उसकी मर्ज़ी के मुताबिक चलना पड़ता है।

शब्द के दो आयाम होते हैं—चिंतन और कर्म।

उत्पीड़ितों की कमज़ोरी का आदर करते हुए; उत्पीड़कों की सत्ता को नरम बनाने का कोई भी प्रयास, प्रायः हमेशा ही एक मिथ्या उदारता के रूप में सामने आता है।

दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी के लिए अतीत से जुड़ा हुआ 'आज' एक प्रदत्त और अपरिवर्तनीय-सी चीज़ होता है, जबकि वामपंथी संकीर्णतावादी के लिए 'आने वाला कल' पहले से ही नियत होता है—अटल रूप से पूर्वनिर्धारित होता है। ऐसे दक्षिणपंथी और ऐसे वामपंथी, दोनों प्रतिक्रियावादी होते हैं; क्योंकि इतिहास की अपनी-अपनी मिथ्या दृष्टि से चल कर दोनों कर्म के ऐसे रूप विकसित करते हैं, जिससे स्वतंत्रता का निषेध होता है।

संघर्ष तब शुरू होता है, जब मनुष्य समझने लगते हैं कि उन्हें नष्ट किया गया है।

क्रांति जीवन से प्रेम करती है और जीवन का सृजन करती है, और जीवन का सृजन करने के लिए उसे कुछ लोगों को—जो जीवन को सीमाबद्ध करते हैं—रोकना पड़ सकता है।

उत्पीड़ितों को यह बात अवश्य समझनी चाहिए कि जब वे मानुषीकरण के लिए संघर्ष करना स्वीकार करते हैं, तो उसी क्षण से वे उस संघर्ष के लिए अपनी पूरी ज़िम्मेदारी भी स्वीकार करते हैं।

उत्पीड़क संपूर्ण समुदाय की उन्नति के पक्ष में नहीं, बल्कि उसके कुछ गिने-चुने नेताओं की उन्नति के पक्ष में होते हैं।

सच्चा मानववादी कौन है, इसकी पहचान जनता पर भरोसा रखे बिना उसके पक्ष में किए गए हज़ारों कार्यों से उतनी नहीं होती; जितनी जनता पर किए गए भरोसे से होती है, क्योंकि यह भरोसा ही उसे जनता के संघर्ष में शामिल करता है।

जनपक्षीय होने के लिए एक प्रकार का पुनर्जन्म या गंभीर आत्मरूपांतरण आवश्यक है।

उत्पीड़ितों को ऐसे उदाहरण अवश्य देखने चाहिए; जिनमें उत्पीड़क परास्त हुआ हो, क्योंकि इससे उनकी यह धारणा बदलती है कि उत्पीड़क परम शक्तिशाली और अपराजेय होता है। और इसके विपरीत यह धारणा बनती है कि उसे परास्त किया जा सकता है।

मनुष्य का निषेध वे नहीं करते, जो मनुष्यता से वंचित कर दिए गए हैं; बल्कि वे करते हैं, जिन्होंने उनकी (और साथ ही अपनी भी) मनुष्यता का निषेध किया है।

संवाद उन लोगों के बीच भी नहीं हो सकता, जिनमें एक तरफ़ दूसरों को अपना शब्द बोलने का अधिकार देने वाले हों; और दूसरी तरफ़ वे, जिनसे अपना शब्द बोलने का अधिकार छीन लिया गया हो।

असहाय और आतंकित लोग आतंक शुरू नहीं करते; आतंक की शुरूआत करते हैं वे, जो हिंसक होते हैं और अपनी शक्ति के सहारे 'ज़िंदगी से ख़ारिज' लोगों को पैदा करने वाली ठोस स्थिति उत्पन्न करते हैं।

दुनिया में कोई व्यक्ति अपना निर्माण स्वयं नहीं करता।

परपीड़क प्रेम विकृत प्रेम है—वह जीवन से नहीं, मृत्यु से प्रेम करना है।

जिन लोगों के शब्दों की आप सराहना करते हैं और प्यार करते हैं; उन्हें आप निगल नहीं सकते, बिना प्रश्नचिह्न लगाए उन्हें ग्रहण नहीं कर सकते।

छात्र ज्यों-ज्यों स्वयं को विश्व में और विश्व के साथ रख कर देखने से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का सामना करते हैं, त्यों-त्यों उन्हें उत्तरोत्तर अधिक चुनौती मिलती है और वे उसका सामना करना अपना कर्तव्य समझने लगते हैं।

प्रेम, विनम्रता और विश्वास पर आधारित संवाद एक समस्तरीय संबंध बन जाता है, जिसका तार्किक परिणाम होता है—संवादकर्ताओं में एक-दूसरे पर भरोसा।

पशु अनैतिहासिक होते हैं, क्योंकि वे अपने लिए कोई निर्णय नहीं ले सकते; स्वयं को और अपनी गतिविधि को अपने चिंतन की वस्तु नहीं बना सकते; अपने लिए कोई उद्देश्य निर्धारित नहीं कर सकते; वे एक ऐसे विश्व में 'डूबे' रहते हैं, जिसे वे कोई अर्थ नहीं दे सकते; वे एक ऐसे सर्वाश्लेषी वर्तमान में रहते हैं, जिसमें कोई 'आज' या 'कल' नहीं होता।

जब किसी शब्द को उसके कर्म वाले आयाम से वंचित कर दिया जाता है, तो चिंतन स्वयमेव क्षतिग्रस्त हो जाता है।

अपना शब्द बोलना मनुष्य का आद्य अधिकार है।

उत्पीड़ितों के पक्ष में किया जाने वाला राजनीतिक कर्म, सच्चे अर्थ में शिक्षाशास्त्रीय कर्म होना चाहिए। अतः यह कर्म उनसे अलग रह कर नहीं, बल्कि उनके साथ किया जाना चाहिए।

शिक्षक अनुशासन लागू करता है और छात्र अनुशासित होते हैं।

जो लोग प्रामाणिक रूप से जनता से प्रतिबद्ध होते हैं, उन्हें निरंतर अपनी पुनर्परीक्षा करते रहना चाहिए।

उत्पीड़ितों के व्यवहार और प्रतिक्रियाओं से उत्पीड़क; सांस्कृतिक आक्रमण के लिए प्रेरित होता है, लेकिन क्रांतिकारी को इन चीज़ों से कर्म के एक भिन्न सिद्धांत के लिए प्रेरित होना चाहिए।

संवाद आशा के बिना भी संभव नहीं।

प्रामाणिक चिंतन तो मनुष्य को अमूर्त समझता है, विश्व को मनुष्यों से रहित समझता है।

मुक्ति एक प्रसव है और यह प्रसव पीड़ादायक है।

मनुष्यों के अधूरे चरित्र और यथार्थ के रूपांतरणशील चरित्र के कारण ही यह आवश्यक होता है कि शिक्षा, सतत चलती रहने वाली एक गतिविधि हो।

शिक्षक बोलता है और छात्र सुनते हैं—चुपचाप।

मनुष्य स्वयं पर और साथ ही विश्व पर विचार करते हुए जब अपने बोध की परिधि का विस्तार करते हैं, वे उन प्रपंचों को भी देखने लगते हैं, जो पहले उनकी आँखों से ओझल रहते थे।

बल-प्रयोग वे नहीं करते; जो बलशालियों की प्रबलता के अधीन निर्बल बना दिए गए हैं—बल-प्रयोग उन्हें निर्बल बनाने वाले बलशाली करते हैं।

मनमुटाव वे नहीं फैलाते, जो प्रेम से वंचित हैं; बल्कि वे फैलाते हैं, जो प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्वयं से ही प्रेम करते हैं।

घृणा तिरस्कृत लोग नहीं, तिरस्कार करने वाले फैलाते हैं।

उत्पीड़कों के लिए यह आवश्यक है कि वे जनता को गुलाम बना कर निष्क्रिय बनाए रखने के लिए जनता के निकट पहुँचें।

स्वातंत्र्यवादी शिक्षा का उद्देश्य, शिक्षक और छात्र के बीच सामंजस्य उत्पन्न करना होता है।

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