विजयदान देथा के उद्धरण

मनुष्य ने नियम-कायदों के अनुसार; अपने सजग ज्ञान द्वारा भाषा की सृष्टि नहीं की, और न उसके निर्माण की उसे आत्म-चेतना ही थी। मनुष्य की चेतना के परे ही प्रकृति, परम्परा, वातावरण, अभ्यास व अनुकरण आदि के पारस्परिक संयोग से भाषा का प्रारम्भ और उसका विकास होता रहा।

कविता एक सामूहिक उद्वेग और सामूहिक आवश्यकता की सहज अभिव्यक्ति है और यह व्यवस्था संपूर्ण रूप से वैयक्तिक है।
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यथार्थ के प्रति मनुष्य की जानकारी बदलती रहती है या दूसरे शब्दों में वह विकसित होती रहती है। तब उस यथार्थ विशेष का बोध कराने वाले शब्द का अर्थ भी बदलता रहता है।
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जो कला जीवन की आवश्यकताओं से उत्प्रेरित नहीं होती, उसमें विषयगत वैविध्य का अभाव रहता है और उसके रूप-तत्व का कौशल ही अधिक बढ़ जाता है।
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हर नई पीढ़ी अपने पुरखों से वसीयत के रूप में 'शब्द-ज्ञान' का भंडार प्राप्त करती है और अपने नए अनुभवों द्वारा आवश्यकता पड़ने पर, उन परम्परागत शब्दों को नए अर्थों का नया बाना पहनाती रहती है।
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नारी की आर्थिक परवशता और उसी स्वतंत्रता को विच्छिन करके देखना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है।
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प्रेम में कामासक्ति की मूल प्रेरणा होते हुए भी उसका अपना स्वरूप और अपना अस्तित्व है। जो प्रेम जितना अधिक गहरा होता है, उसमें त्याग की भावना भी उतनी गहरी और निर्बंध होती है।
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आदिम मानव की यह एक स्वाभाविक वृत्ति है कि वह बाह्य-वस्तु जगत को अपनी कल्पना के द्वारा, अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप चित्रित करता है।
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मनुष्य ने नियम-कायदों के अनुसार; अपने सजग ज्ञान द्वारा भाषा की सृष्टि नहीं की, और न उसके निर्माण की उसे आत्म-चेतना ही थी। मनुष्य की चेतना के परे ही प्रकृति, परम्परा, वातावरण, अभ्यास व अनुकरण आदि के पारस्परिक संयोग से भाषा का प्रारम्भ और उसका विकास होता रहा।
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भाषा पहले है और व्याकरण बाद में। भाषा से आगे व्याकरण की न सीमा है और न गति।
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संबंधित विषय : भाषा
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कामासक्ति में केवल मैथुन की ही एकमात्र अपेक्षा रहती है और क्रिया के पश्चात भी प्रेम उत्पन्न नहीं होता, बल्कि अरुचि, ग्लानि जैसी हीन भावनाएँ पैदा होती हैं।
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मनुष्य-जीवन में जो भाषा और शब्द की सार्थकता है, प्रेमियों के जीवन में इन प्रेम-काव्यों की भी ठीक वही सार्थकता है।
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नारी के जिस प्रेम, विरह और उसके सौंदर्य को लेकर साहित्य में कितना कुछ लिखा गया है और न जाने कितना कुछ लिखना शेष है—उस नारी का प्यार आज टके सेर हो गया है।

मानव जाति के विकास क्रम में एक स्थिति ऐसी भी थी जब उसके सामूहिक गान में कविता, नृत्य, संगीत—तीनों सम्मिश्रित थे।

जिस प्रकार इन्द्रियों का प्राकृतिक बोध—ज्ञान नहीं—बल्कि एक भ्रान्त प्रतीति है—उसी प्रकार इंद्रियों द्वारा अनुभूत प्रत्येक आनन्द वास्तविक और सच्चा आनन्द नहीं है।

प्रेम-कथाओं में वर्णित प्रेम की सुकोमलता मनुष्य को दुर्बलता की ओर नहीं, निश्चल दृढ़ता की ओर अग्रसर करती है।
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बिना ज्ञान के इन्द्रियों की शक्ति का प्रकाश सर्वथा नगण्य है। परस्पर अविच्छिन्न सम्बन्ध होते हुए भी आज मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसका समाज और श्रम है, न कि इन्द्रियाँ !

केशव और बिहारी की नायिका का आकर्षक शरीर, आज नमक और हल्दी से भी सस्ता हो गया है।

भाषा, समाज और परंपरा के जरिये मनुष्य के ज्ञान में विकास होता है; उस नए ज्ञान से भौतिक जगत के नए तत्वों का अनुसंधान होता है। नए तत्वों का संपर्क फिर मनुष्य के मानस में नए ज्ञान का सर्जन करता है।

जिस प्रकार हर रंग और रेखा चित्र नहीं है, हर ध्वनि संगीत नहीं है, शरीर की हर भाव-भंगिमा नृत्य नहीं है, वस्तु की हर आकृति शिल्प नहीं है, हर शब्द साहित्य नहीं है—उसी प्रकार हर ध्वनि, हर मुद्रा, हर रंग व रेखा और हर आकृति से प्राप्त होने वाला आनन्द कला का आनन्द नहीं है।

प्राचीन ग्रंथों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि शब्द और यथार्थ के तात्कालिक संबंध को ऐतिहासिक दृष्टि से समझा जाए।

किसी यथार्थ के मिट जाने पर यह आवश्यक नहीं है कि उससे संबंधित शब्द भी मिट जाए, उस मृत यथार्थ का बोध कराने वाला शब्द—किसी दूसरे यथार्थ का बोधक बन जाता है।
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शारीरिक विकास को पूर्णतया हासिल करने के बाद ही मनुष्य के मानसिक जीवन की कहानी प्रारम्भ होती है। केवल मात्र ज्ञानेन्द्रियों के जरिये जब तक आदिम मनुष्य वस्तु-जगत से सम्पर्क स्थापित करता रहा, तब तक उसका जीवन पशुवत् ही रहा होगा।

नारी जब अपनी उस स्वतंत्र स्थिति को प्राप्त कर लेगी तब एकनिष्ठता का दावा पुरुष के हिस्से में भी उसी अनुपात से आयेगा जितना नारी के लिए है।
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शब्द स्वयं यथार्थ नहीं होता, इसीलिए तो संसार की विभिन्न भाषाओं में एक ही यथार्थ का बोध कराने वाले विभिन्न शब्द है।
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भाषा के बिना जिस प्रकार मनुष्य के अन्य सभी भौतिक या मानसिक विकास सम्भव नहीं थे; उसी प्रकार यदि भाषा नहीं हो तो प्रेम भी संभव नहीं होता।
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वेदों में प्राकृतिक उपकरणों को ही को ‘देव’ माना गया है और उनकी स्तुति की गई है।
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प्रकृति तथा मानव-जीवन में समाहित निसर्ग के प्रति सहज आकर्षण की ललक पशुओं की तरह मनुष्य में भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
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जिस प्रकार स्वयं मनुष्य की देह और उसकी चेतना को टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य से सम्बन्धी विज्ञान व कलाओं को भी परस्पर विच्छिन्न नहीं किया जा सकता।

कविता जब सामूहिक जीवन व मेहनत से दूर हट जाती है तो वह छंद, नियम, विधान, रीति-नीति और परम्परा आदि की गणित से अनुशासित होने लगती है।
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आज हिन्दी में धड़ल्ले के साथ नए-नए बढ़िया प्रकाशन और नए-नए विषय अपना रूप-रंग लेकर हज़ारों की तादाद में दिखलाई पड़ते हैं—वह इसलिए नहीं कि प्रकाशक उदार हो गया है; या उसकी रुचि परिष्कृत हो गई है, यह सब केवल इसलिये कि साहित्य का बाजार इन सबकी माँग करता है।
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आज के सभ्य मानव के लिए सत्य की अपेक्षा; मिथ्या को व्यक्त करने के ख़ातिर ही, भाषा की अधिक आवश्यकता है।
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मनुष्य की अचेतन क्रिया की यंत्रवत कारीगरी और यांत्रिक साधन ही आगे चलकर स्वतंत्र कलाओं में परिणत होते गए।
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भाषा में व्यक्त ज्ञान के द्वारा परिमार्जित मस्तिष्क ही कला के सौन्दर्य को वास्तविक रूप में ग्रहण करने के लिए समर्थ होता है।

काम-प्रवृत्ति से उत्पन्न होने पर भी प्रेम काम-भावना से सर्वथा एक भिन्न वस्तु है।
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वाद्य-संगीत कविता के अभाव की पराकाष्ठा है तो आधुनिक गद्य-गीत, संगीत के अभाव का परला किनारा है।
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भाषा के द्वारा अर्जित ज्ञान पर आश्रित होते हुए भी—कला का सौंदर्य सत्य को व्यंजित करने का उससे भी श्रेष्ठ और सशक्त साधन है।
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प्रेम मनुष्य की स्वयं अपनी सृष्टि है, जिसको उसने अपने सामाजिक जीवन में विकसित किया है। काम-प्रवृत्ति से उत्पन्न होने पर भी प्रेम काम-भावना से सर्वथा एक भिन्न वस्तु है।
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अग्नि के पहिले से ही मनुष्य मिट्टी को अपने हित में बरतने लग गया था, किन्तु उसका पूर्ण उपयोग अग्नि के बाद ही संभव हुआ।
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भाषा व शब्द की भाँति व्याकरण का भी अपना इतिहास है, उसका अपना परम्परागत स्वरूप है, और अपने नियम-कायदों का स्वतंत्र विज्ञान है।
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भाषा के माध्यम से मनुष्य पशुओं की अपेक्षा बाह्य जगत के साथ सम्पर्क स्थापित करने में अधिक समर्थ होता है। यह अतिरिक्त सामर्थ्य मनुष्य को और भी अधिक समर्थ बनाती है।
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