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जे. कृष्णमूर्ति

1895 - 1986 | आँध्र प्रदेश

समादृत भारतीय दार्शनिक, अध्यात्मिक मार्गदर्शक और लेखक। 'फ्रीडम फ्रॉम दि नोन', 'कमेन्टरीज़ ऑन लिविंग' आदि कृतियों के लिए उल्लेखनीय।

समादृत भारतीय दार्शनिक, अध्यात्मिक मार्गदर्शक और लेखक। 'फ्रीडम फ्रॉम दि नोन', 'कमेन्टरीज़ ऑन लिविंग' आदि कृतियों के लिए उल्लेखनीय।

जे. कृष्णमूर्ति के उद्धरण

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मन—जिसमें मस्तिष्क और हृदय समाविष्ट हैं—को पूर्ण संगति में होना चाहिए।

ध्यान के लिए वस्तुतः सर्वोच्च ढंग की संवेदनशीलता चाहिए तथा प्रचण्ड मौन की एक गुणवत्ता चाहिए—ऐसा मौन जो प्रेरित, अनुशासित या साधा हुआ नहीं हो।

हिंसा से मुक्त हो जाने का अर्थ है उस प्रत्येक चीज़ से मुक्त हो जाना, जिसे एक मनुष्य को साँप रखा है, जैसे—विश्वास, धार्मिक मत, कर्मकाँड तथा इस तरह की मूढ़ताएँ : मेरा देश, मेरा ईश्वर, तुम्हारा ईश्वर, मेरा मत, तुम्हारा मत, मेरा आदर्श, तुम्हारा आदर्श।

जब आपके पास परम संवेदनशीलता होती है, तो प्रज्ञा के साथ-साथ प्रेम का भी प्रादुर्भाव होता है—प्रेम तब आनंद ही, प्रेम तब समयातीत है।

सही अर्थों में व्यक्ति वही है जो स्वयं में विभाजित और खंडित नहीं है। किंतु हम खंड-खंड टूटे हुए हैं, अतः हम व्यक्ति नहीं है। जो समाज है, वही हम भी हैं।

बुद्धत्व का आगमन किसी नेता या गुरु द्वारा नहीं होता, आपके भीतर जो कुछ है उसकी समझ द्वारा ही इसका आगमन होता है।

किसी भी चीज़ का अवलोकन करने के लिए—चाहे यह आपकी पत्नी हो, आपका पड़ोसी हो या बादल हो—आपके पास एक ऐसा मन होना चाहिए जो अत्यंत संवेदनशील हो।

बस आप जानिए कि असावधान हैं; इस तथ्य के प्रति चुनावरहित रूप से सजग रहिए कि आप असावधान हैं, और हैं तो क्या हुआ? यानी इसके लिए चिंता मत कीजिए एवं असावधानी की इस अवस्था में, असावधानी के इन क्षणों में, यदि आप कुछ कर बैठें–तो उस क्रिया के प्रति सजग रहिए।

बुद्धत्व का आगमन दूसरे द्वारा नहीं होता, इसका आगमन स्वयं आपके अवलोकन एवं स्वयं की समझ से ही होता है।

प्रेम का क्या अर्थ है, यह पता लगाने के लिए आपको अपना पूरा जीवन देना होगा, वैसे ही जैसे यह पता लगाने के लिए कि ध्यान क्या है एवं सत्य क्या है, आपको अपना पूरा जीवन देना पड़ता है।

आप बिना किसी पुस्तक को पढ़े या बिना साधु—संतों और विद्वानों को सुने अपने मन का अवलोकन कर सकते हैं।

क्या आपने कभी बिलकुल शांत और स्थिर बैठने की कोशिश की है, इस ढंग से कि आँखों की या शरीर के अन्य अंगों की एक भी हरकत या हलचल हो? दो मिनट इसे करें। इस दो मिनट में सारा कुछ प्रकट हो जाता है— यदि आप देखने की कला जानते हैं।

जो मन मुक्ति के एक साधन के रूप में ज्ञान में जकड़ा हुआ है, वह उस मुक्ति तक पहुँच नहीं पाता।

वस्तुतः योग जीवन की एक शैली है—न कि स्वयं को युवा बनाए रखने के लिए कुछ एक व्यायामों का अभ्यास मात्र।

विचार सुख की खोज करता है और इस प्रकार यह हमें अतिभोग की ओर ले जाता है। यह अतिभोग ज़रूरत से ज़्यादा खाने का हो या कामवासना में लिप्त रहने का—विचार शरीर को किसी काम को करने के लिए बाध्य करता है।

द्रष्टा और दृश्य के बीच जो अवकाश, दूरी एवं समय का अंतराल है, वह एक विसंगति है तथा वही विभाजन का सारभूत तत्व है।

विचार सत्य को पाने की चाह और चेष्टा करता है; अपनी इस चाह और चेष्टा में विचार अतीत की आँखों से ही देखता है। यही अड़चन और मुश्किल है खोज की।

प्रेम किसी चीज़ का विपरीत नहीं है।

क्या आप अतीत की भाषा में वर्तमान का अनुवाद किए बग़ैर अपनी प्रतिक्रिया को एक नया सिरे से तथा एक ताजा मन से देख सकते हैं?

निश्चय ही कलाकार, जो मानव है—एक ऐसा व्यक्ति है, जो अविभाज्य, समग्र और पूर्ण है। व्यक्ति का अर्थ है जो अविभाजित है, किंतु हम अविभाजित नहीं हैं।

भय की पूरी समस्या को समझने में ही आपके सारे विश्वास विदा हो जाते हैं।

हम एक ऐसा समाज और एक ऐसी नैतकिता के अभ्यस्त हैं जो हिंसा पर आधरित है।

जो कहता है कि मैं जानता हूँ, वह वस्तुतः जानता नहीं है।

जब तक 'विश्लेषक' मौजूद हैं तब तक निर्णायक सत्ता भी कायम रहेगी, जो नियंत्रण की पूरी समस्या को जन्म देती है।

जो कुछ आपने समझ लिया, वह अब आपका हो गया।

प्रेम, घृणा या हिंसा का विपरीत नहीं है।

इच्छाशक्ति भी हिंसा का ही सारभूत तत्व है।

जब आप कहते हैं कि मैं दूसरों की सहायता करना चाहता हूँ, तो भय और उपद्रव शुरू हो जाते हैं।

आपका समस्त जीवन भय से एक पलायन है। आपके ईश्वर, आपके मंदिर-गिरजाघर, आपकी नैतिक शिक्षाएँ, ये सभी भय पर आधारित हैं, इन्हें समझने के लिए आपको यह समझना होगा कि इस भय का जन्म कैसे होता है।

क्रोध से भरा हुआ एक व्यक्ति जब यह देख लेता है कि क्रोध से छुटकारा पाने की कोशिश का कोई मतलब नहीं है, तो उसके जीवन में पहली बार व्यवस्था का आगमन होता है।

जब तक किसी भी रूप में ‘मैं’ का अस्तित्व है—अत्यंत स्थूल रूप में या अत्यंत सूक्ष्म रूप में—तब तक हिंसा मौजूद रहेगी।

देखने और सुनने की क्रिया ही सावधानी है; इसकी आपको साधना नहीं करनी है, यदि आप साधना करते हैं तो आप तत्काल असावधानी की अवस्था में जाते है।

क्या आपने स्वयं की तुलना किसी व्यक्ति या वस्तु से किए बिना कभी जीने की कोशिश की है? तब आप क्या रह जाते हैं? तब आप जो हैं, वही हैं जो है।

कामवासना या अन्य प्रकार के सुख की स्मृति प्रेम नहीं हैं। सद्गुण को विकसित करने का तथा महान बनने का निरंतर प्रयास भी प्रेम नहीं है।

जो मन पूर्वाग्रह तथा द्वंद्व से मुक्त है वही देख सकता है कि सत्य क्या है।

विचार सुख को पोषण और जीवन देता है—सुख जिसका आनंद से कोई संबंध नहीं है।

द्वार के बाहर जो चीज़ है उसका वर्णन कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि वह अकथनीय है—वह अकथनीय चाहे कुछ भी हो या सब कुछ हो।

आपके पास ऐसा मन होना चाहिए जो पूर्णतः: अकेले होने में समर्थ हो, तथा जो दूसरे व्यक्तियों के अनुभवों और प्रचार से बोझिल हो।

संगति और सामंजस्य ऐसी चीज़ नहीं हैं जो सतत कायम रह सके।

एक कलाकार महत्वाकांक्षी हो कैसे सकता है? यदि वह महत्त्वाकांक्षी है, तो वह कलाकार है ही नहीं।

हम मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक रूप से यांत्रिक हो चुके हैं।

आनंद विचार की उपज नहीं है।

एक मुक्त व्यक्ति को कोई मार नहीं सकता।

इच्छा सदैव भविष्य की होती है। कुछ होने की इच्छा वस्तुतः वर्तमान में निष्क्रियता है।

ईर्ष्या प्रेम नहीं है।

जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण चीज़ों में से एक चीज़ प्रेम है।

जीवन गंभीर है, अतः आपको भी अपने पूरे मन और हृदय से गंभीर होना होगा।

किसी भी तरह के अनुभव की खोज नहीं करना अत्यंत कठिन चीज़ है।

सुख अनिवार्यत:अपने साथ दुःख लाता है।

आप सुख पैदा कर सकते हैं, आप इसके बार में अनंत सोच—विचार कर सकते हैं।

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