अमृतलाल वेगड़ के उद्धरण
कभी-कभी लगता है कि हमारा यह शरीर मानो नदी किनारे का एक गाँव है। ज्यों-ज्यों नदी आगे बढ़ती है, एक के बाद एक गाँव आते जाते हैं। उसी तरह अनेक देहों में से होती हुई जीवन-नदी आगे बढती जाती है। अंत में नदी समुद्र में मिल जाती है, आत्मा परमात्मा में मिल जाती है।
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सौंदर्य की उपासना हमें कई बार असुंदरता की देहरी पर ला देती है।
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भगवान उधारी रखता ही क्यों है? इस जनम की सज़ा इसी जनम में क्यों नहीं? ज़ुर्म एक जनम में, सज़ा किसी दूसरे जनम में। मानो भगवान हमें ललचा रहा हो—अभी पाप कर लो, सज़ा किसी और जनम में भोग लेना।
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अगर मैं किसी अख़बार का संपादक होता, तो मेरा अख़बार रोज़ न निकलता। जिस दिन ढंग का समाचार न होता, उस दिन अख़बार बंद रहता। एक स्थायी सूचना छाप देता कि जिस दिन अख़बार न आए, उस दिन समझ लीजिए कि कोई समाचार नहीं। बिना किसी समाचार के अख़बार के बारह या सोलह पृष्ठ छाप देना, मूल्यवान अख़बारी काग़ज़ की और पाठकों के समय की बर्बादी ही कही जाएगी।
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संबंधित विषय : अख़बार
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जो मूल वादक की कृति की लय और छंद को बरक़रार रखते हुए; उसे एक भाषा से दूसरी भाषा में ले आए, वही है अनुवादक!
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नाम और तारीख़ पर ध्यान न दें तो दस साल पुराना अख़बार भी हमें आज का ही जान पड़ेगा। डकैती, लूट, अपहरण, हत्या, बलात्कार, सत्ता की छीना-झपटी—ख़बरों की यही तो वह अमरबेल है जो सदा अख़बारों पर छाई रहती है।
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बाहर का दीया चट जलता है तो पट बुझता भी है। भीतर का दीया देर से जलता है तो आसानी से बुझता भी नहीं। उसका उजाला देर तक रहता है और दूर तक फैलता है।
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त्याग की, सेवा की, स्वार्पण की प्रेरणा तो धर्म ही दे सकता है। यह क़ानून के बस की बात नहीं।
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नई जगह में; यहाँ तक कि अच्छे से अच्छे अस्पताल में भी, कोई मरना नहीं चाहता। जन्म चाहे अस्पताल में हो, लेकिन मृत्यु घर में हो।
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गंगोत्री, यमुनोत्री या फिर नर्मदा कुंड—ये वे स्थान हैं, जहाँ नदी पहाड़ की कोख से निकलकर पहाड़ की गोद में आती है।
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मनुष्य सर्वाधिक भयभीत मृत्यु से रहता है, इसलिए संहार के देवता शिव की बड़ी भक्ति करता है।
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ब्रह्मा सृष्टि के देवता हैं। उन्हें जो सृष्टि करनी थी, कर चुके। अब उनसे क्या लेना-देना! अतः बूढ़े ब्रह्मा का कोई नाम नहीं लेता।
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संबंधित विषय : व्यंग्य
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दूसरों के लिए जीना आसान नहीं। इसमें बहुत कष्ट झेलने पड़ते हैं लेकिन स्वेच्छा से हम जो कष्ट उठाते हैं, वे भी मधुर लगते हैं।
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संबंधित विषय : मनुष्यता
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नदी के दो किनारे होते हैं पर हमारे काम तो वही किनारा आता है, जो हमारी ओर होता है।
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कुछ नाम सरस और मधुर होते हुए भी चल नहीं पाते। रेवा कितना प्यारा नाम है। बोलने में आसान, सुनने में मधुर। लेकिन चला नहीं, नर्मदा नाम ही ज़्यादा प्रचलित हुआ।
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जहाँ क़ानून ख़त्म होता है, वहाँ से धर्म शुरू होता है। क़ानून ज़रूरी है। वह हमें अराजकता से उबारता है, हमारे अधिकारों की रक्षा करता है। लेकिन समाज को ऊपर उठाता है—धर्म।
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मौत की घड़ी कभी-कभी रात के चोर की तरह आती है और पलक झपकते ही अपने शिकार को ले जाती है।
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संबंधित विषय : मृत्यु
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जीवन को केवल आत्मा या केवल शरीर मानना ग़लत है। सार्थकता दोनों के मिलन में है।
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सूरज में यह दम-खम कहाँ कि आधी रात को दिखाई दे। चाँद रमता जोगी है, उसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं।
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मनुष्य बना ही है आधा सुखी और आधा दुःखी रहने के लिए! ख़ालिस सुख उसके भाग्य में नहीं।
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सूर्य-प्रकाश जब सीधे आता है तो धूप कहलाता है, जब चंद्र-ताल में नहाकर आता है तो चाँदनी कहलाता है।
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कम लेना और ज़्यादा देना—यही है धर्म। आदि धर्म। इसे हम धर्म कहें, अध्यात्म कहें या मानव धर्म कहें।
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सौंदर्य, सादगी और सरलता में विराजता है। बहुत अधिक कारीगरी से कलाकृति दम तोड़ देती है।
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मनुष्य की एक परिभाषा यह भी हो सकती है कि जो दूसरे के पेट की चीज़ को निकालकर अपने पेट की पिटारी में ठूँसने में माहिर हो, उसे मनुष्य कहते हैं।
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भीतर का दीया क्या इतनी आसानी से जलता है? एक बार से जलता है? इसमें पाँच साल क्या, सारा जीवन लग सकता है। नया जन्म भी लेना पड़ सकता है।
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संबंधित विषय : आत्म-तत्व
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ज्यों-ज्यों जीवन का सूर्यास्त निकट आता जाता है, अधिकांश चीज़ें छूटती जाती हैं और यात्री अंतिम यात्रा के लिए हल्का-फुल्का होता जाता है।
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यह कितनी अजीब बात है कि चाँद का प्रकाश उसकी अपनी चीज़ नहीं। सूरज की धूप ही चाँद के धरातल से टकराकर चाँदनी बन जाती है।
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रात्रि का आकाश मानो टीवी का स्क्रीन है। (कितना बड़ा स्क्रीन!) उसमें चंद्र, तारे, ग्रह, नक्षत्र द्वारा खेला जा रहा नाटक हम यहाँ दूर पृथ्वी पर बैठे-बैठे देखते हैं। असली 'दूरदर्शन' तो यह है!
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दुःख झेलकर भी हमें अच्छा बनना है, तभी हम मनुष्य हैं। इनाम के लालच में अच्छा बनना, मनुष्य को शोभा नहीं देता।
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हमारे जीवन में सूरज का अनुशासन भी हो और चाँद का स्वैरविहार भी हो। नियम का कठोर पालन भी हो और मौज-मस्ती की गुंजाइश भी हो।
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ख़ुद नाचना-गाना प्रथम दर्जे का आनंद है, टीवी पर दूसरों को नाचते-गाते देखना दूसरे दर्जे का आनंद है।
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यह कितनी विचित्र बात है कि न्यायालय का अस्तित्व अन्याय के कारण है।
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संबंधित विषय : न्यायालय
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सुहाग और शृंगार का काँच की चूड़ियों से बढ़कर, सस्ता व सुंदर आभूषण और है भी क्या!
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संबंधित विषय : सौंदर्य
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बहुत उदरस्थ करने के बजाए, थोड़ा कंठस्थ करना ज़्यादा अच्छा है।
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संबंधित विषय : दिमाग़
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नर्मदा गंगा से पुरानी नदी है और विंध्याचल-सतपुड़ा हिमालय से पुराने पहाड़ हैं।
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नर्मदा का जन्म मानों गोरैया की तरह हुआ है। ऊपर कुंड के घोंसले में अंडे की तरह अवतरित हुई है। अंडे में से बाहर वह यहाँ नीचे निकली है।
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पानी, चट्टान, प्रपात, शोर और मोड़—ये पाँच तत्व हैं, जिनसे नर्मदा की देह का निर्माण हुआ है।
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