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अमृतलाल वेगड़

1928 - 2018 | जबलपुर, मध्य प्रदेश

समादृत लेखक और चित्रकार। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत।

समादृत लेखक और चित्रकार। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत।

अमृतलाल वेगड़ के उद्धरण

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विष्णु पोषण करते हैं इसलिए उनके अवतार राम और कृष्ण की पूजा भी कम नहीं होती।

कभी-कभी लगता है कि हमारा यह शरीर मानो नदी किनारे का एक गाँव है। ज्यों-ज्यों नदी आगे बढ़ती है, एक के बाद एक गाँव आते जाते हैं। उसी तरह अनेक देहों में से होती हुई जीवन-नदी आगे बढती जाती है। अंत में नदी समुद्र में मिल जाती है, आत्मा परमात्मा में मिल जाती है।

भगवान उधारी रखता ही क्यों है? इस जनम की सज़ा इसी जनम में क्यों नहीं? ज़ुर्म एक जनम में, सज़ा किसी दूसरे जनम में। मानो भगवान हमें ललचा रहा हो—अभी पाप कर लो, सज़ा किसी और जनम में भोग लेना।

ख़ुशी के साथ प्रायः दुःख का पुछल्ला लगा रहता है।

सौंदर्य की उपासना हमें कई बार असुंदरता की देहरी पर ला देती है।

जो मूल वादक की कृति की लय और छंद को बरक़रार रखते हुए; उसे एक भाषा से दूसरी भाषा में ले आए, वही है अनुवादक!

अगर मैं किसी अख़बार का संपादक होता, तो मेरा अख़बार रोज़ निकलता। जिस दिन ढंग का समाचार होता, उस दिन अख़बार बंद रहता। एक स्थायी सूचना छाप देता कि जिस दिन अख़बार आए, उस दिन समझ लीजिए कि कोई समाचार नहीं। बिना किसी समाचार के अख़बार के बारह या सोलह पृष्ठ छाप देना, मूल्यवान अख़बारी काग़ज़ की और पाठकों के समय की बर्बादी ही कही जाएगी।

नाम और तारीख़ पर ध्यान दें तो दस साल पुराना अख़बार भी हमें आज का ही जान पड़ेगा। डकैती, लूट, अपहरण, हत्या, बलात्कार, सत्ता की छीना-झपटी—ख़बरों की यही तो वह अमरबेल है जो सदा अख़बारों पर छाई रहती है।

मरना सुखद तो नहीं, फिर भी अपने घर में कुटुंबियों के बीच मरना सुखद होता है।

बाहर का दीया चट जलता है तो पट बुझता भी है। भीतर का दीया देर से जलता है तो आसानी से बुझता भी नहीं। उसका उजाला देर तक रहता है और दूर तक फैलता है।

त्याग की, सेवा की, स्वार्पण की प्रेरणा तो धर्म ही दे सकता है। यह क़ानून के बस की बात नहीं।

गंगोत्री, यमुनोत्री या फिर नर्मदा कुंड—ये वे स्थान हैं, जहाँ नदी पहाड़ की कोख से निकलकर पहाड़ की गोद में आती है।

नई जगह में; यहाँ तक कि अच्छे से अच्छे अस्पताल में भी, कोई मरना नहीं चाहता। जन्म चाहे अस्पताल में हो, लेकिन मृत्यु घर में हो।

मनुष्य सर्वाधिक भयभीत मृत्यु से रहता है, इसलिए संहार के देवता शिव की बड़ी भक्ति करता है।

ब्रह्मा सृष्टि के देवता हैं। उन्हें जो सृष्टि करनी थी, कर चुके। अब उनसे क्या लेना-देना! अतः बूढ़े ब्रह्मा का कोई नाम नहीं लेता।

दूसरों के लिए जीना आसान नहीं। इसमें बहुत कष्ट झेलने पड़ते हैं लेकिन स्वेच्छा से हम जो कष्ट उठाते हैं, वे भी मधुर लगते हैं।

नदी के दो किनारे होते हैं पर हमारे काम तो वही किनारा आता है, जो हमारी ओर होता है।

कुछ नाम सरस और मधुर होते हुए भी चल नहीं पाते। रेवा कितना प्यारा नाम है। बोलने में आसान, सुनने में मधुर। लेकिन चला नहीं, नर्मदा नाम ही ज़्यादा प्रचलित हुआ।

जहाँ क़ानून ख़त्म होता है, वहाँ से धर्म शुरू होता है। क़ानून ज़रूरी है। वह हमें अराजकता से उबारता है, हमारे अधिकारों की रक्षा करता है। लेकिन समाज को ऊपर उठाता है—धर्म।

सूरज में यह दम-खम कहाँ कि आधी रात को दिखाई दे। चाँद रमता जोगी है, उसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं।

मौत की घड़ी कभी-कभी रात के चोर की तरह आती है और पलक झपकते ही अपने शिकार को ले जाती है।

नर्मदा का पानी, पानी नहीं माँ का दूध है।

जीवन को केवल आत्मा या केवल शरीर मानना ग़लत है। सार्थकता दोनों के मिलन में है।

सौंदर्य, सादगी और सरलता में विराजता है। बहुत अधिक कारीगरी से कलाकृति दम तोड़ देती है।

कम लेना और ज़्यादा देना—यही है धर्म। आदि धर्म। इसे हम धर्म कहें, अध्यात्म कहें या मानव धर्म कहें।

सूर्य-प्रकाश जब सीधे आता है तो धूप कहलाता है, जब चंद्र-ताल में नहाकर आता है तो चाँदनी कहलाता है।

दिक्-काल के बंधन से परे जान पड़ता है यह चाँद!

मनुष्य की एक परिभाषा यह भी हो सकती है कि जो दूसरे के पेट की चीज़ को निकालकर अपने पेट की पिटारी में ठूँसने में माहिर हो, उसे मनुष्य कहते हैं।

मनुष्य बना ही है आधा सुखी और आधा दुःखी रहने के लिए! ख़ालिस सुख उसके भाग्य में नहीं।

उतार-चढ़ाव किसके जीवन में नहीं आते?

भीतर का दीया क्या इतनी आसानी से जलता है? एक बार से जलता है? इसमें पाँच साल क्या, सारा जीवन लग सकता है। नया जन्म भी लेना पड़ सकता है।

दुःख झेलकर भी हमें अच्छा बनना है, तभी हम मनुष्य हैं। इनाम के लालच में अच्छा बनना, मनुष्य को शोभा नहीं देता।

हमारे जीवन में सूरज का अनुशासन भी हो और चाँद का स्वैरविहार भी हो। नियम का कठोर पालन भी हो और मौज-मस्ती की गुंजाइश भी हो।

ख़ुद नाचना-गाना प्रथम दर्जे का आनंद है, टीवी पर दूसरों को नाचते-गाते देखना दूसरे दर्जे का आनंद है।

रात्रि का आकाश मानो टीवी का स्क्रीन है। (कितना बड़ा स्क्रीन!) उसमें चंद्र, तारे, ग्रह, नक्षत्र द्वारा खेला जा रहा नाटक हम यहाँ दूर पृथ्वी पर बैठे-बैठे देखते हैं। असली 'दूरदर्शन' तो यह है!

हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही।

पेड़ के गठन को तभी समझ सकते हैं, जब पतझड़ हो।

ज्यों-ज्यों जीवन का सूर्यास्त निकट आता जाता है, अधिकांश चीज़ें छूटती जाती हैं और यात्री अंतिम यात्रा के लिए हल्का-फुल्का होता जाता है।

यह कितनी अजीब बात है कि चाँद का प्रकाश उसकी अपनी चीज़ नहीं। सूरज की धूप ही चाँद के धरातल से टकराकर चाँदनी बन जाती है।

नर्मदा का जन्म मानों गोरैया की तरह हुआ है। ऊपर कुंड के घोंसले में अंडे की तरह अवतरित हुई है। अंडे में से बाहर वह यहाँ नीचे निकली है।

हर भाषा में कुछ शब्द अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की तरह होते हैं।

क़ानून कहता है—बुरा काम मत करो। धर्म कहता है—इतना काफ़ी नहीं है, कुछ अच्छा काम करो।

प्रत्येक मनुष्य में शक्ति का एक ऐसा गुप्त भंडार होता है, जो ख़ास-ख़ास मौक़े के लिए सुरक्षित रहता है। ऐन मौक़े पर हाज़िर होता है और हमारी भरपूर मदद करता है।

चाँद के पास ऐसा कोई दिव्य रसायन है, ऐसा कोई जामन है, जिससे वह धूप को चाँदनी में रूपांतरित कर देता है। बेचारा सूर्य! उसके पास ऐसा कोई जामन नहीं।

क़ानून आवश्यक है, पर पर्याप्त नहीं। क़ानून पर हमें रुकना नहीं है। उससे आगे बढ़कर धर्म के शिखर को भी छूना है।

मानो नदी तट की विज़िटर्स-बुक है, जिसमें हर यात्री का नाम अपने आप दर्ज हो जाता है।

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क़ानून कहता है—चोरी करो, डकैती करो। पर क़ानून यह नहीं कह सकता कि दान करो, त्याग करो। क़ानून कहेगा—ख़ून करो, हत्या करो। पर क़ानून यह नहीं कह सकता कि दूसरों के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दो। यह तो धर्म ही कह सकता है।

पानी, चट्टान, प्रपात, शोर और मोड़—ये पाँच तत्व हैं, जिनसे नर्मदा की देह का निर्माण हुआ है।

ज़िंदगी तो कुल एक पीढ़ी भर की होती है, पर नेक काम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

मनुष्य को; उसके पास जो है, उससे संतोष नहीं। जो नहीं है, उसकी उसे भारी चाह है।

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