चाँदनी पर उद्धरण
चाँदनी चाँद की रोशनी
है जो उसके रूप-अर्थ का विस्तार करती हुई काव्य-अभिव्यक्ति में उतरती रही है।

पूर्णचंद्र के आलोक को परास्त कर पर्वत के ऊपर तारागण चमकते रहते हैं। उसका रूप देखने में ही तो आनंद है।

'चंद्रोदय देखकर' अहा कितना सुंदर है, ऐसा न कहने वाले लोग कम ही हैं, किंतु, उन सभी को चाँद की माधुरी नहीं मिल पाती है।

चाँद के पास ऐसा कोई दिव्य रसायन है, ऐसा कोई जामन है, जिससे वह धूप को चाँदनी में रूपांतरित कर देता है। बेचारा सूर्य! उसके पास ऐसा कोई जामन नहीं।

यह कितनी अजीब बात है कि चाँद का प्रकाश उसकी अपनी चीज़ नहीं। सूरज की धूप ही चाँद के धरातल से टकराकर चाँदनी बन जाती है।

धूप का चाँदनी में तो अनुवाद हो सकता है, पर चाँदनी का धूप में नहीं। वैसे ही, जैसे दूध से दही तो बन सकता है, पर दही से दूध नहीं।