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मुकुंद लाठ

1937 - 2020 | कोलकाता, पश्चिम बंगाल

सुप्रसिद्ध कवि-अनुवादक और कलाविद्। पद्मश्री से सम्मानित।

सुप्रसिद्ध कवि-अनुवादक और कलाविद्। पद्मश्री से सम्मानित।

मुकुंद लाठ के उद्धरण

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संगीत का विशेष, पनपता-बढ़ता इसलिए है कि स्वर और स्वर के संबंध—जिनसे संगीत बनता है—उनकी उधेड़बुन, हर परंपरा की अपनी होती है।

संस्कार की धरती के बिना मनुष्य; मनुष्य ही नहीं हो सकता—प्राणी भर रह जाता है।

मनुष्य का लक्षण ही अगर धर्मशील होना है—जैसा कि हमारे यहाँ चिंतन में गहराई से उभर कर आता है—तो मनुष्य धर्म-निरपेक्ष हो ही नहीं सकता, हाँ, वह धर्म के अनैक्य की; भिन्न क्षेत्रों की बात कर सकता है, जैसी कि की गई है। ‘सेक्यूलर’ शब्द कर्म के किसी ऐसे क्षेत्र की ओर संकेत नहीं करता, जो उस कोटि से बाहर हो, जिसे मनुष्य के लक्षण के रूप में ‘धर्म’ कहा गया है।

संस्कार मनुष्य को समाज में रह कर ही मिलता है। संस्कार क्या दिए जाएँ—यह समष्टि के धर्म का प्रश्न है।

समाज के कर्म का औचित्य—लोकयात्रा का, लोक-व्यवहार का औचित्य—यह भी धर्म का ही प्रश्न है।

जिसके संस्कार एक परंपरा में दीक्षित हों; उसके लिए दूसरी परंपरा में रसबोध के सामान्य तक पहुँचना—सहृदय-भाव की एक साधना बन जा सकती है।

धर्म औचित्य का तत्त्व है, उसे कर्म का साध्य भी कहा गया है या निकष या मार्ग।

मनुष्य के अन्य कर्मों की तरह चिंतन भी परंपरा-कर्म है, परंपरा-साध्य है।

संस्कार तो एक तरह से धर्म की पहल है। संस्कार की धरती पर खड़ा होने के बाद ही, मनुष्य स्वतंत्र हो कर पूछता है कि वह क्या करे? फिर इति-कर्त्तव्यता के दूसरे क्षेत्र स्वतः आगे जाते हैं।

धर्म का द्वार स्वातंत्र्य का द्वार है। हमारा स्वभाव-धर्म हमें स्वतंत्र करता है और हम स्वतंत्र होकर उस धर्म की साधना करते हैं, जो कर्म का औचित्य है।

धर्म के अनेक में किसी परम एक आधार की जिज्ञासा के कारण ही ‘परम-धर्म’ की बात की गई है। पर यह भी कुतूहल की बात है कि महाभारत में जहाँ परम धर्म का प्रश्न; एक परम प्रश्न बन कर आता है, वहाँ परम धर्म एक नहीं अनेक गिनाए गए हैं : अहिंसा, आनृशंस्य, आचार। ‘धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्’ कहा गया है।

कर्म से धर्म ही नहीं, अधर्म भी किया जा सकता है। क्रिया में धर्म-अधर्म की बात ही वृथा है।

संस्कार को हम स्वतंत्र होने की यात्रा का ‘अथ’ कह सकते हैं और मोक्ष को उसकी ‘इति’। संस्कार हमें मनुष्य के स्वभाव-धर्म में ला खड़ा कर, स्वतंत्र कर्म का अधिकारी बनाता है। ‘धर्म’ के साध्य रूप का द्वार खोलता है, पथ प्रशस्त करता है। कर्म के कई मार्गों में हमें ले जाता है—हम कह सकते हैं कि स्वतंत्र-भाव की परिधि बढ़ाता है।

हमारे स्वतंत्र होने का अर्थ ही है, साध्य का अनेकांत होना। नहीं तो स्वातंत्र्य कैसा? साध्य के अनेकांत में ही जिज्ञासा कचोटती है—धर्म क्या है?

कला सामान्य को विशेष में ही साधती है।

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