अश्वघोष के उद्धरण



दुःख के प्रतिकार से थोड़ा दुःख रहने पर भी मनुष्य सुख की कल्पना कर लेता है।

इस प्रकार संसार में धन पाकर जो लोग उसे मित्रों और धर्म में लगाते हैं, उनके धन सारवान हैं, नष्ट होने पर अंत में वे धन ताप नहीं पैदा करते।
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स्वप्न के समान सारहीन तथा सबके द्वारा उपभोग्य कामसुख से अपने चंचल मन को रोको, क्योंकि जैसे वायु प्रेरित अग्नि की हव्य पदार्थों से तृप्ति नहीं होती, वैसे ही लोगों को कामोपभोग से कभी तृप्ति नहीं होती।

संसार में जन्मा मनुष्य, विद्वान और बलवान होने पर भी, मृत्यु को न जीत सकता है, न जीत सका है, और न जीत सकेगा।

विश्वास, उपकार, सुख-दुःख में समान भाव, क्षमा प्रेम—यही सज्जनों की मित्रता है।

हे सौम्य, जब तक घातक काल समीप नहीं आता, तब तक बुद्धि को शांति में लगाओ क्योंकि मृत्यु इस संसार में सब अवस्थाओं में रहने वाले की सब प्रकार से हत्या करती है।

ज्ञान के लिए किया जाने वाला कर्म, सभी कर्मों में श्रेष्ठतम है।

कामभोगों से कभी तृप्ति नहीं होती, जैसे जलती अग्नि की आहुतियों से तृप्ति नहीं होती। जैसे-जैसे कामसुखों में प्रवृत्ति होती जाती है, वैसे-वैसे विषय-भोगों की इच्छा बढ़ती जाती है।
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तृष्णावान् व्यक्ति का मन धन-संपत्ति में और मूर्ख का काम-सुख में रमता है। जो सज्जन है वह ज्ञान द्वारा भोग-इच्छा को जीतकर शांति में रमता है।

युद्ध में विषयों से प्राप्त होने वाले सुख में, या धन-अर्जन में साथी सुलभ होते हैं, किंतु आपत्ति में पड़ने पर या धर्म का आश्रय लेने में पुरुष के साथी दुर्लभ हैं।


कार्य की सफलता का मूल कारण है उत्तम उद्योग। उद्योग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं होती है। उद्योग से ही सब समृद्धियों का उदय होता है और जहाँ उद्योग नहीं है, वहाँ पाप ही पाप है।
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बुढ़ापा, रोग और मृत्यु इस संसार का महाभय है। ऐसा कोई देश नहीं है जहाँ लोगों को यह भय नहीं होता हो।


योग में स्थित होकर, तत्त्व को जानकर, मनुष्य मृत्यु काल में त्रस्त नहीं होता है।
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मृत्यु से जीव बराबर डरते हैं और यत्नपूर्वक पुनर्जन्म चाहते हैं। प्रवृत्ति होने पर मृत्यु निश्चित है। वे जिससे डरते हैं, उसी में डूबते हैं।
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अपनी बुद्धि से मैं तो उन्हीं को मित्र समझता हूँ जो धन कम होने पर भी मित्रों का साथ देते हैं। क्योंकि जो अच्छी अवस्था में हैं, उनकी वृद्धियों में कौन साथ नहीं देगा?
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बहुत बार भोजन करने से शरीर की पुष्टि, कांति, उत्साह, प्रयोग और बल में कमी आती है।
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संबंधित विषय : देह
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संसार में अपने-अपने कर्म से खींचे जाते हुए प्राणियों को कौन स्वजन है या कौन पराया? मोहवश ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य में आसक्त होता है।
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मन की प्रभुता से शरीर कर्म में प्रवृत्त और कर्म से निवृत होता है, इसलिए चित का ही दमन उचित है। चित्त के बना शरीर काठ के समान है।
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संबंधित विषय : देह
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मृत्यु सब अवस्थाओं में मारती है, वय (उम्र) पर ध्यान नहीं, देती है!
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संबंधित विषय : मृत्यु
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यदि अधिक भोजन किया जाए तो वह प्राणवायु और अपान वायु में बाधक होता है, आलस्य और नींद लाता है तथा पराक्रम को नष्ट करता है।
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संबंधित विषय : नींद
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संसार में लकड़ी, डोरी या लोहे का बंधन उतना दृढ़ नहीं हैं जितना चंचल नेत्रों वाले मुख और ललित वाणी का।
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मन से अब्रह्मचारी रहते हुए तुम्हारा यह ब्रह्मचर्य कैसा?
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संबंधित विषय : ब्रह्म
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अतः अपनी शक्ति को देखते हुए भोजन करना चाहिए मान के वश होकर भी न बहुत अधिक और न बहुत कम ही खाना चाहिए।
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पूर्वजन्म से स्वजन को छोड़कर मनुष्य यहाँ आता है, फिर यहाँ भी (स्वजन की) डग कर वह यहाँ से (परलोक) चला जाता है, वहाँ भी जाकर वहाँ से अन्यत्र चला जाता है, इस प्रकार परित्याग करने वाले मनुष्य में आसक्ति क्यों की जाए।
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यह स्नेहमयपाश ज्ञान और रूखेपन के बिना नहीं तोड़ा जा सकता है।
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संबंधित विषय : ज्ञान
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जो घर से निकल गया है किंतु जिसका काम-राग नहीं निकला है, जो काषाय वस्त्र पहनता है किंतु जिसका कषाय नष्ट नहीं हुआ है, जो भिक्षा पात्र धारण करता है किंतु जो सद्गुणों का पात्र नहीं हुआ है, वह भिक्षु-वेष धारण करता हुआ भी न गृहस्थ है, न भिक्षु।
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स्त्रियाँ मधुर वचन से आकर्षित करती हैं और तीक्ष्ण वचन से प्रहार करती हैं। उनके वचन में मधु रहता है और हृदय में हलाहल नामक महाविष।
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संबंधित विषय : स्त्री
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यह संसार सदा ही शत्रु- स्वरूप, क्षणिक, दुःखजनक विषयभोगों में आसक्त रहता है। यह अविनाशी सुख को पहचानता ही नहीं है।
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