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मैनेजर पांडेय

1941 - 2022 | गोपालगंज, बिहार

समादृत आलोचक एवं अनुवादक। कई पुस्तकें प्रकाशित

समादृत आलोचक एवं अनुवादक। कई पुस्तकें प्रकाशित

मैनेजर पांडेय के उद्धरण

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जायसी प्रेम के कवि के रूप में विख्यात हैं। उनके अनुसार संसार में प्रेम से अधिक सुंदर और काम्य कुछ भी नहीं है।

आचार्य शुक्ल जिसे मर्यादा कहते हैं, वह वास्तव में रूढ़ि है।

महाकवि विद्यापति मध्यकाल के पहले ऐसे कवि हैं, जिनकी पदावली में जन-भाषा में जनसंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है।

नामवर सिंह के अनुसार सगुण काव्य की मुख्य कमज़ोरी शास्त्र-सापेक्षता है, जो एक ओर निर्गुणधारा का विरोध करती है और दूसरी ओर रीतिकाव्य के उदय का कारण बनती है। नामवर सिंह के विवेचन से यह स्पष्ट नहीं होता कि सगुणधारा क्यों और कैसे शास्त्र-सापेक्ष है, इसलिए यह सवाल उठता है कि आख़िर सगुण काव्य में शास्त्र-सापेक्ष क्या है—सूर का वात्सल्य और श्रृंगार? मीरा का प्रेम और विद्रोह? या तुलसी का आत्मनिवेदन और आत्मसंघर्ष? क्या यह सब शास्त्र-सापेक्ष और लोक-विमुख है? इन सबका रीतिकाव्य से क्या लेना-देना?

सूरदास के काव्य में कृष्ण से राधा और दूसरी गोपियों का प्रेम, सामंती नैतिकता के बंधनों से मुक्त प्रेम है।

जायसी की दृष्टि में प्रेम अत्यंत गूढ़ और अथाह है। ज़ाहिर है, ऐसे प्रेम की कविता लिखना भी आसान नहीं होगा।

भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष-सत्य के ऊपर कुछ भी नहीं है—न कुल, जाति, धर्म, संप्रदाय, स्त्री-पुरुष का भेद, किसी शास्त्र का भय और लोक का भ्रम।

दूसरे कवि अधिक-से-अधिक आँसुओं से प्रेम की कविता लिखते हैं, लेकिन जायसी ने आँखों से टपकने वाले लहू से प्रेम की कविता लिखी है।

साहित्य में सच्ची नागरिकता रचनाओं की ही होती है; और रचनाएँ अंततः सार्थक या निरर्थक होती है, कि नई और पुरानी।

समकालीनता की मारी आज की हिंदी आलोचना ने, कबीर को आध्यात्म-प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है, और तुलसीदास को 'जय श्रीराम' का नारा लगाने वाले शाखामृगों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया है।

जो सार्थक है, वही समकालीन है—वह नया हो या पुराना।

इधर जब से सांप्रदायिकता की महामारी फैली है और मस्जिद-मंदिर का झगड़ा खड़ा हुआ है; तब से कबीरदास का महत्त्व साधारण जनता के साथ-साथ, विद्वानों की भी समझ में आने लगा है।

सौंदर्यबोध की दृष्टि से विचार करने पर भी प्रेम की सार्थकता असंदिग्ध है।

आलोचना की समकालीनता का एक पक्ष यह भी है कि वह अतीत की महत्त्वपूर्ण रचनाओं की वर्तमान अर्थवत्ता की खोज करे।

प्रेम दो भावों के बीच गतिशील होता है—आनंद और मंगलकामना। प्रेमी को प्रेम से आनंद की अनुभूति होती है, और प्रेमी प्रिय की मंगलकामना में प्रवृत्त होता है।

'पद्मावत' में प्रेम की प्रधानता निर्विवाद है, परंतु उस प्रेम के स्वरूप के बारे में मतभेद है। विवाद का विषय यह है कि वह प्रेम मूलतः लौकिक है या अलौकिक।

आनंदविहीन मंगलभावना स्वयं बुझ जाती है, तथा व्यक्ति में श्रेष्ठता की भावना जाती है।

आज हम जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसके निर्माण में भक्ति आंदोलन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे की नज़र से देखते हैं। उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर ही है और उसकी यह दुनिया तथा मानव काया—‘झिनी-झिनी बीनी चदरिया है।’

भक्त कवियों ने प्रेममार्ग की जिन बाधाओं का वर्णन किया है, वे भी लोकजीवन में प्रेम की अनुभूति की बाधाएँ हैं।

भक्तिकाव्य में धर्म का जो रूप है; उसका आधार भय नहीं, प्रेम है। आशा तथा आस्था इस प्रेम के दो सहायक तत्त्व हैं।

हिंदी के भक्तिकाव्य में अनेक स्वर है। सगुण भक्तों का स्वर निर्गुण संतों से भिन्न है।

कबीर के लोकधर्म में, व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष से अधिक महत्त्वपूर्ण है—समाज में मनुष्यत्व का जागरण।

हर अच्छी कविता की तरह सूर की कविता भी, श्रद्धा से अधिक समझ की माँग करती है।

निर्गुण और सगुण की दार्शनिक दृष्टियों के बीच कहीं-कहीं द्वंद्व है, लेकिन वह हर जगह लोक से शास्त्र का द्वंद्व नहीं है।

कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त है।

कबीर की कविता का लोक और उसका धर्म; दूसरे भक्त कवियों से अलग है, क्योंकि उनके जीवन का अनुभवलोक भी दूसरों से भिन्न है।

जायसी की दृष्टि में मानव-जीवन का सच्चा मार्गदर्शन प्रेम है, धार्मिक कट्टरता नहीं।

सूर की गोपियों का प्रेम, कोई सीमा नहीं जानता। वह कोई बंधन नहीं मानता, संयोग में और वियोग में—उसका लक्ष्य है तन्मयता।

धर्म आस्तिक और आस्थावान व्यक्ति के लिए; जीवन संचालन के कतिपय आदर्शों, सिद्धांतों और मूल्यों का समच्चय है।

भक्तिकाव्य के बाहर भी अधिकांशतः प्रेम की वही कविता महत्त्वपूर्ण है, जो सम-विषम की रूढ़ि से मुक्त है।

हिंदी क्षेत्र में अभी सामंती मूल्यों और रूढ़ियों का जितना अधिक प्रभाव है, उतना देश के किसी अन्य भाग में शायद ही कहीं हो। इसलिए यहाँ स्त्रियों का जैसा शोषण, दमन और उत्पीड़न है—वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।

भक्तिकाव्य का प्रेम, भक्ति आंदोलन की विभिन्न धाराओं को आपस में मिलाता है। वह वैष्णवों को सूफ़ियों से और निर्गुण संतों को सगुण भक्तों से जोड़ता है। कहीं वह सामाजिक मूल्य है, तो कहीं सामाजिक कर्त्तव्य।

भक्ति आंदोलन के विकास में तीन मुख्य सहायक तत्त्व है : उस काल के सामाजिक जीवन के नए परिवर्तन, आचार्यों का दार्शनिक चिंतन और भक्त कवियों की सृजनशीलता।

रूढ़ियाँ केवल शास्त्र की ही नहीं होतीं, लोक की भी होती हैं।

सूर को कबीर की तरह वात्सल्य और माधुर्य की अभिव्यक्ति के लिए; बालक तथा बहुरिया बनने की आवश्यकता नहीं है, और जायसी की तरह प्रेम की अलौकिक आभा दिखाने की चिंता भी नहीं।

सूरसागर में कृष्ण के चरित्र में मनोवैज्ञानिक विश्वसनीयता और रहस्यात्मकता का पुट है, मानवीय चरित्र तथा दिव्य लीला का सामंजस्य है।

सूर के काव्य में प्रेम, कबीर से अधिक स्वाभाविक और जायसी से अधिक लौकिक है।

कवि, परंपरा से प्राप्त विषयवस्तु को आत्मानुभूति, चिंतन और मनन द्वारा काव्यवस्तु बनाता है।

काव्यशास्त्र में जिसे श्रृंगार रस कहा जाता है, वही भक्तिशास्त्र में मधुर रस या उज्ज्वल रस माना जाता है।

हिंदी में ऐसे आलोचकों का अभाव नहीं है; जो कहते हैं कि कविता की व्याख्या में समाज को लाना—कविता के साथ अत्याचार है। लेकिन जिस कविता में समाज होगा, उसकी व्याख्या सामाजिक चिंता के बिना कैसे होगी?

कबीर ऐसे कवि हैं, जिन्हें किसी तरह की सांप्रदायिकता और कट्टरता तो अपना बना सकती है और पचा सकती है।

सूरसागर का गोपीकृष्ण-प्रेम, स्वछंद प्रेम है। इस प्रेम की दूसरी विशेषता है, उसका सहज क्रमिक विकास। गोपीकृष्ण-प्रेम के स्वाभाविक विकास क्रम को, सूर ने अत्यंत सतर्कता से चित्रित किया है।

भक्तिकाव्य की एक विशेषता हिंदी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है।

सूरदास की सौंदर्य-चेतना और नैतिक चेतना में कोई अंतराल नहीं है। उनका काव्य, नैतिकता के उपदेश का काव्य नहीं है।

हिंदी आलोचना में सबसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संतों के विरुद्ध सगुण भक्तों को खड़ा किया। उन्होंने निर्गुण संतों को लोक-विरोधी और सगुण भक्तों को लोक-संग्रही घोषित किया।

कारीगर कबीर के जीवन की कला ही, उनकी कविता की कला बन गई।

युग-युगांतर से रति काव्यसृजन का केंद्रीय विषय रहा है।

सूरदास के काव्य में प्रेम के तीन प्रकार है—मानवीय, ईश्वरीय और प्राकृतिक।

हिंदी साहित्य में महात्मा सूरदास को तो बहुत सम्मान मिला है, लेकिन महाकवि सूरदास के महत्त्व की व्याख्या करने वाला आलोचनात्मक विवेक विरल ही है।

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