गाँव पर बेला
महात्मा गांधी ने कहा
था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। आधुनिक जीवन की आपाधापी में कविता के लिए गाँव एक नॉस्टेल्जिया की तरह उभरता है जिसने अब भी हमारे सुकून की उन चीज़ों को सहेज रखा है जिन्हें हम खोते जा रहे हैं।
जौनपुर भड़ैंती उर्फ़ नक़ल : एक ख़त्म होती नाट्य-विधा
कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्वांचल के देहातों-क़स्बों-शहरों की दीवारों पर हिंदुस्तानी, अवधी या भोजपुरी में लिखे सूचना-पट्ट इस तरह के होते थे—कल्लू नक़्क़ाल, बिस्मिल्लाह भाँड, रमपत हरामी मंडली इत्यादि... कि
विषधारी मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है
बचपन में पिता की टेबल पर जिन किताबों से मेरा साबका पड़ता था, उनमें शेक्सपियर के कंपलीट वर्क्स के साथ मुक्तिबोध की ‘भूरी-भूरी खाक धूल’, नामवर सिंह की ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के अलावा रामधारी सिंह दिनक
‘लापता लेडीज़’ देखते हुए
‘लापता लेडीज़’ देखते हुए मेरे अंदर संकेतों और प्रतीकों की पहचान करने वाली शख़्सियत को कुछ वैसा ही महसूस हुआ जो कोड्स की सूँघकर पहचान कर देने वाले कुत्तों में होती है। मुझे लगा कि इस फ़िल्म के ज़ाहिर किए
पिता के बारे में
पिता का जाना पिता के जाने जैसा ही होता है, जबकि यह पता होता है कि सभी को एक दिन जाना ही होता है फिर भी ख़ाली जगह भरने हम सब दौड़ते हैं—अपनी-अपनी जगहों को ख़ाली कर एक दूसरी ख़ाली जगह को देखने। वह जगह