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विषधारी मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है

बचपन में पिता की टेबल पर जिन किताबों से मेरा साबका पड़ता था, उनमें शेक्‍सपियर के कंपलीट वर्क्‍स के साथ मुक्तिबोध की ‘भूरी-भूरी खाक धूल’, नामवर सिंह की ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के अलावा रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं का संकलन ‘चक्रवाल’ भी एक था। शेक्‍सपियर की सरल अँग्रेज़ी में लिखा कहानीनुमा नाटक कोर्स में भी चलता था, जिसे मैं रट गया था। 

पिता अँग्रेज़ी शिक्षक थे, इसलिए इससे छुट्टी भी नहीं थी। साथ ही मैं चोरी-चोरी शेक्‍सपियर की मूल किताब से ‘द रेप ऑफ़ ल्‍यूक्रिस’ (The Rape of Lucrece)—या ऐसा ही कुछ नाम था उस नाटक का—को पढ़ा करता था। नामवर सिंह की किताब में जो कवितांश होते थे, बस उन्‍हें पढ़कर कुछ समझने की कोशिश करता था। मुक्तिबोध उस समय तक समझ में आते नहीं थे। बस रामधारी सिंह दिनकर की दर्जनों रचनाएँ कंठस्‍थ थीं। 

एक बटोही कविता थी जिसकी पंक्तियाँ मैं तब गाता फिरता था—“पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले”। रश्मिरथी का तो बड़ा हिस्‍सा याद था। फिर दिनकर की ‘व्‍याल-विजय’ कविता तो मैं छत पर रातों में ज़ोर-ज़ोर से अपनी फटी आवाज़ में गाया करता था।

तब आज-सा सघन शहर नहीं था और पिता ज़िला स्‍कूल में प्रिंसिपल थे तो उनके रसूख़ का फ़ायदा उठाकर, मैं इस तरह अपनी हेकड़ी जताया करता था। यूँ भी क़्वार्टर के सामने का विशाल खेल का मैदान और चाँदनी रातें सहज गाने को प्रेरित करती थीं। बड़े ही रोब से मैं कनफटी आवाज़ में गाता—

“विषधारी! मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है
कृष्‍ण आज लघुता में भी साँपों से बहुत बड़ा है।” 

लेकिन वस्‍तुस्थिति यह थी कि तब मैं बहुत डरपोक था। इंटर में पढ़ता था और शरीर से इतना कमज़ोर कि सोचता आगे कैसे ज़िंदगी कटेगी। दो-तीन नाख़ूनों पर नेल-पॉलिश कर उसमें चाँद बनाया करता। एकाध नाख़ून रंगने की आदत काफ़ी बाद तक थी। एक बार आलोकधन्‍वा ने टोका कि यह क्‍या है मुकुल? तुम तो साँप पकड़ते हो। यह मउगों वाली आदत। शायद उसी के बाद से यह आदत छोड़ी थी।
 
उस समय शनिवार की छुट्टी में गाँव जाता तो प्‍लास्टिक के जूते पहनता था कि रात में दिशा-मैदान जाते हुए साँप ना काट ले। मेरे गाँव में साँप भी बहुत निकलते थे। वह भी सब गेहुँअन और दिन में विशालकाय धामिन। खेतों में जाते कभी-कभी तो विचित्र दृश्‍य दिखता, कि एक साँप दूसरे को निगल रहा है। आधा उसके मुँह के भीतर है आधा बाहर। ऐसे में हम ईंट फेंकते तो साँप इधर-उधर छिप जाता। 

अक्‍सर रात में कुछ सी-सी की आवाज़ आती, तो दादी-चाची बोलती यह साँप बोल रहा है। कभी-कभी कमरे में चूहे के बिल में साँप रहता तो हम टार्च से देख सहम जाते कि बाप रे! ऐसा होता है गेहुँअन। एक बार एक नट ने गेहुँअन पकड़ा तो उसे छूकर देखा, वह ठंडा था।

फिर भी डर की स्थिति यह होती है कि बहुत देर तक हम किसी को डराए नहीं रख सकते, क्‍योंकि किसी को डराए रखने में उससे ज़्यादा शक्ति ख़र्च होती है जि‍तना कि सामने वाले के डरे रहने में, जिससे जल्‍द ही शक्ति संतुलन बिगड़ जाता है। डराने वाला अकड़ जाता है। बंदूक़ ताने-ताने और एक समय ऐसा आता है, जब वह सरेंडर कर जाता है। इसी तरह जीवन में भी कोई डर लगातार नहीं टिक सकता। 

ब्‍लड कैंसर से अपने पिता की मौत देखकर कवि पंकज सिंह ने एक अच्‍छी कविता लिखी है, जिसकी पहली पंक्ति है—“समय को गुज़रने देना चाहिए।” अब वह कितना भी बुरा हो, उसे गुज़रना ही है। डर कितना भी बलवान हो उसे भी मिटना ही है और अक्‍सर बाज़ी पलटती है। 

बाहुबलियों में कई के क़िस्‍से हमने पढ़े अख़बारों में जिनके साथ बचपन में अत्‍याचार किया गया। वे आगे बाहुबली कहलाए। मेरा साँपों के प्रति डर भी और अन्‍य डर भी समय के साथ गुज़र गए। फिर उल्‍टा मैं ज़्यादा निडर होता गया। 

बी.ए. में जाते-जाते साँपों से डरने की जगह मैं उन्‍हें पकड़ना सीख चुका था। अक्‍सर मैं छोटे साँप पकड़ता। उन्‍हें मैं पहचानता भी था। बायोलॉजी के छात्र होने के नाते। डर को दूर करने में ज्ञान की बड़ी भूमिका होती है। वैसे हाथ भर के ऐसे साँपों को जिन्‍हें मैं ठीक-ठीक नहीं पहचानता था उन्‍हें मैं आसानी से खींचकर दूर फेंक देता था और लोग मुझे बहादुर कहते। 

यह इंटर में कमज़ोर माने जाने का परिणाम था कि एक बार जब मैं सहरसा में फ़ुटबॉल खेल रहा था तो एक काला-सा साँप निकला। मैंने उसे एड़ी से कुचलकर मार डाला। उस समय मेरी फ़ूर्ती का जवाब नहीं था। गाँव के डहंडल कहाने वाले लड़के भी मेरे मुक़ाबले नहीं टिकते थे तब। 

मेरे मुक़ाबले मेरा छोटा भाई आता था, लेकिन वह चालाक़ी का प्रयोग कर अक्‍सर बॉल को आउट कर देता। इस पर मुझे बहुत गुस्‍सा आता। बैकी के रूप में जब मैं गेंद लेकर आगे बढ़ता तो गोल करके चीखता वापस आता था। ऐसे में साँप ससुरे की क्‍या बिसात... बेचारा।

लेकिन इस सब पर विचार करने का दौर भी तब आरंभ हो चुका था। मैं जानता था कि यह सही नहीं है। साँप निरीह होते हैं और उन्‍हें मारना बहादुरी नहीं है। तब ‘वीरता’ शीर्षक कविता में मेरा यह भाव प्रकट भी हुआ था, जिसकी पहली पंक्ति थी—

“सर्प-सर्प की चिल्‍लाहट सुन 
लोग चारों ओर भागे
कुछ कायरों के अंदर
तब वीरता के भाव जागे।”

यह कायर मैं ही था। हंस में पिछले सालों छपी लंबी कविता ‘घर तो यह मेरा है’ में भी साँपों के बारे में है उसमें यह भाव व्‍यक्‍त हुआ है।

तो साँपों को पकड़ने की आदत मेरी हीनता ग्रंथी का ही नतीजा थी और सारे बहादुर इसी तरह की हीनता ग्रंथी के शिकार होते हैं। एक बार एक पत्रकार-मित्र और पड़ोसी श्रीकांत के घर के बाहर मैंने एक हरहरा ग्रास-स्‍नेक देखा तो उसे पूछ से उठाकर उनके कमरे में चला गया तो वह चिल्‍ला पड़े जोर से। मुझे भागकर बाहर आना पड़ा और इस क्रम में उस साँप के काटे जाने से बचते हुए उसे फेंक दिया।

इसी तरह जब एक बार मदन कश्‍यप के यहाँ साइकिल से जा रहा था, तब रास्‍ते में एक सँपोले को पकड़कर अपने छोटे से बैग में डाल लिया। चेन चढ़ा कराकर, उसे कैरियर में दाब लिया, लेकिन वहाँ निकालने पर उसे मरा पाया।

सोचता हूँ तो पाता हूँ कि इंटर के डरपोक लड़के के डर को किस तरह ताक़त में बदलता गया। असल में साँपों को देख मेरे भीतर भी एक साँप सनसनाता हुआ, अपने फन काढ़ खड़ा हो जाता है और इस तरह जहर, जहर को काट देता है। 

फिर भी ऐसा नहीं है कि साँपों को पकड़ने के क्रम में मैं सचेत नहीं रहता था। एक बार गाँव में आँधी में आम चुनने भागा गया था, तब साथ पानी भी पड़ा। आम तो काफ़ी चुने झोले भर, लेकिन चलने लगा तो सामने के खेत में खड़े पीपल की ओर जाता एक बडा-सा गेहुँअन भागा जा रहा था। मैं उसके पीछे लपका और उसने मेरी आवाज़ सुन जब हाथ भर ऊँचा फन खड़ा कर दिया, तब मेरी हिम्‍मत जवाब दे गई। मैं भागकर मेड़ पर आ गया। 

बाद में चाचा के लड़के प्रभात ने बताया कि उस सूखे पीपल पर यह साँप सालों से रहता है। उसी समय एक बिलगोह दिख गया पास से गुज़रता। तब साँप से डर कर जो शर्म पैदा हो गई थी, उसे धोने के लिए मैं हुँ-ले-ले करता उसके पीछे भागा...

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