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क़स्बाई ज़िंदगी की तिकड़मों का लुत्फ़

हिंदुस्तान क़स्बों और नगरों से भरा देश है। अगर हिंदुस्तान से क़स्बे निकाल दिए जाएँ, तो बस धूल-खाते, मिलों के शोर से भरे इलाक़े, बजबजाते हुए नाले, एक दूसरे से उलझने को तैयार गाड़ियाँ और आसमान की कोख में घुसने को तैयार इमारतें ही बच जाएँगी। यह भी हो सकता है कि नक़्शे पर क्रंकीट की एक मोटी परत ही बच जाए। इसी क्रंकीट की परत से हिंदुस्तान के नक़्शे को बचाने की कोशिशें करने वाले लोग ही वो लोग हैं, जो क़स्बों में बसते हैं। दुनिया की किसी भी भाषा में आप को क़स्बे के लिए एक सुंदर कविता मिल ही जाएगी। हर कवि ने, हर साहित्यकार ने अपने गाँव, अपने क़स्बे के लिए कोई-न-कोई पंक्ति दर्ज करते हुए अपना दिल खोल कर रख ही दिया होगा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि क़स्बे हिंदुस्तान की रूह हैं।

मार्क टली की किताब ‘अपकंट्री टेल्स : वंस अपऑन अ टाइम इन द हार्ट ऑफ़ इंडिया’ हिंदुस्तान की इसी रूह की कहानी कहती है। बीबीसी के प्रख्यात पत्रकार रहे मार्क टली की निगाह 50 से अधिक सालों तक हिंदुस्तान की नब्ज़ पर बनी रही है। इस किताब में संकलित सात कहानियाँ, पूर्वांचल के सात अलग-अलग क़स्बों की कहानियों पर बात करती हैं। मूल रूप से अँग्रेज़ी की इस किताब का अनुवाद प्रभात सिंह ने ‘धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर’ के नाम से हिंदी में किया है।

भारत के दक्षिण में एक रेल चलती है—मेट्टुपलायम ऊटी-नीलगिरि पैसेंजर ट्रेन। इसके बारे में कहा जाता है कि यह इतने धीमे चलती है कि एक साइकिल सवार भी इसे पीछे छोड़ सकता है। मार्क टली की यह किताब उत्तर भारत की ऐसी ही पैसेंजर ट्रेन है, जिसे पढ़कर पाठक भी पीछे छूट जाता है। यह ट्रेन पाठक को उसके अपने क़स्बे की स्मृतियों के स्टेशन पर उतारती चलती है।
इस संग्रह के पहले क़िस्से का नाम है—‘टीले वाला मंदिर’। इस क़िस्से में भारत के गाँवों-क़स्बों की नस-नस में बसे जातिवाद और राजनीति की शर्मिंदा कर देने वाली झलकियाँ हैं। इस क़िस्से का केंद्रीय पात्र बुधराम, जो जाति से दलित है, अपने समुदाय के लिए संत रविदास का मंदिर बनाना चाहता है। गाँव की दूसरी जातियों के लोग, गोसाईं और पंडित किस तरह उसे मंदिर बनाने से रोकने के लिए षड्यंत्र रचते हैं, उसे पढ़कर लगता है कि यह हमारे अपने गाँव, अपने क़स्बे की कहानी है। किस तरह प्रशासन और व्यवस्था की दृष्टि हिंदुस्तान के हाशिए के वर्गों के लिए आज भी हिक़ारत भरी है, यह इस क़िस्से को पढ़कर जाना जा सकता है।

इस संग्रह का दूसरा क़िस्सा ‘मिलनपुर में क़त्ल’, कुछ-कुछ किसी जासूसी उपन्यास का हिस्सा लगता है। कभी-कभी महसूस होता है कि आप लिखत में कोई 90 के दशक की फ़िल्म देख रहे हैं, जिस में एक रॉबिनहुडिया पुलिस इंस्पेक्टर, निर्दोष को बचाने के लिए अपने आला अधिकारियों को भी ठेंगा दिखा देता है। मिलनपुर क़स्बे के रसूख़दार ठाकुर के क़त्ल से शुरू हुआ यह क़िस्सा, आख़िर में मुजरिम को पकड़ने पर जाकर समाप्त होता है। क़ातिल को पकड़ने की इस भागा-दौड़ी में क़स्बों में निम्न-वर्गीय लोगों की स्थिति कितनी दयनीय है, इसका भी पता चलता है।

इस संकलन का तीसरा क़िस्सा—‘हलवाहे का संताप’,  एक ऐसे हलवाहे की कहानी कहता है, जो अपने बैलों की जोड़ी से जी-जान से लगाव रखता है। आधुनिक होते समय में जब उसके गाँव के बाक़ी लोग खेती-किसानी के लिए ट्रैक्टर ला रहे हैं, वह बैलों से ही किसानी करना चाहता है। बैलों के लिए प्यार और प्रकृति से जुड़ाव किस तरह, वैश्वीकरण के स्थानीय संकेतक ट्रैक्टर के लिए नफ़रत में बदलता जाता है, यह इस क़िस्से में देखा जा सकता है। छोटे किसानों के सामने आने वाली परेशानियाँ, गाँव-क़स्बों में अपनी जड़े जमाए महाजनी तंत्र और रिश्तों की राजनीति के नग्न संदर्भ इस क़िस्से में नज़र आते हैं। गाँवों में जातिगत समीकरण, जाति विशेष होने की झूठी ऐंठ के चलते एक ग़रीब किसान तीरथपाल यादव को जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, उनसे यह क़िस्सा और भी रोचक बन पड़ता है।

इस किताब का चौथा क़िस्सा—ख़ानदानी धंधा, राजनीति के जोड़-घटाव पर आधारित क़िस्सा है। सुरेश नाम का युवक, अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद इंग्लैंड से अपने देश वापस लौटता है और अपने सांसद पिता की विरासत को सँभालने का निश्चय करता है। सांसद बनने और इलाक़े में पहचान बनाने के लिए अपने पिता के सहयोगी मदनलाल के साथ मिलकर वह ऐसी-ऐसी जुगतें भिड़ाता है, जो पाठकों में हास्य के साथ खीझ और निराशा भी उत्पन्न करती हैं। ज़मीनी स्तर पर गाँवों की स्थिति, जाति से जुड़े राजनैतिक संदर्भ और गाँवों-क़स्बों में विकास की स्थिति के बिंब इस क़िस्से में दृष्टिगोचर होते जाते हैं। महिलाओं के समूह से कामिनी की बातचीत और भरी सभा में सुरेश की बेइज़्ज़ती के दृश्य हास्यास्पद तो हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ये हम सब के गाँव-क़स्बे में कभी न कभी हुआ ही होगा।

इस संग्रह का पाँचवा क़िस्सा—एक गांधीवादी की प्रेमकथा, एक साथ कई चीज़ों पर तीखे सवाल उठाता नज़र आता है। एक दुबले-पतले लड़के अजीत को अपने माता-पिता से ही अपनी क़द-काठी को लेकर नस्लीय श्रेष्ठता के तीरों की मार खानी पड़ती है। जातिगत पूर्वाग्रह की बानगी उस समय इस क़िस्से में दिखाई पड़ती है, जब अजीत के शिक्षक उसे मेधावी छात्र जानकर मुफ़्त में ट्यूशन पढ़ाने का निश्चय करते हैं। जब यह बात अजीत के पिता रणवीर सिंह को पता लगती है, तो उनके शब्द होते हैं—“नाम तिवारी है, तो शर्तिया वह मक्कार ब्राह्मण होगा। ये ब्राह्मण हमेशा हम जाटों को नीचा दिखाने की कोशिशों में लगे रहते हैं।” स्कूल से निकलकर जब वह दिल्ली विश्वविद्यालय में पहुँचता है, तो उसकी दोस्त अदित्री से होने वाली राजनैतिक बहस और इतिहास की बख़िया-उधड़ाई में अजीत एक नया युवक दिखाई देता है। शहरों में रहने वाले और कॉलेज जाने वाले युवक-युवतियों के मध्य संबंधों के जटिल गणित के बिंब भी इस क़िस्से में दिखाई देते हैं। विचारधाराओं के टकराव और विश्वविद्यालय की राजनीति की अंदरूनी पड़ताल भी यह क़िस्सा करता नज़र आता है।

इसी कड़ी का छठा क़िस्सा है—‘धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर’। यह क़िस्सा एक दैनिक पैसेंजर ट्रेन की कहानी है, जिसके इंजन का नाम अक़बर है और ड्राइवर अँग्रेज़ है। मुग़ल-अँग्रेज़ एकता का यह उदाहरण बहुत ही हास्यापद परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। फ़रीदपुर के सांसद संजय सिंह राय, जिनकी बसों को इस पैंसेंजर ट्रेन के चलते सवारियाँ नहीं मिलतीं। वह जुगाड़ लगाकर इस रेल को बंद कराने की कोशिश करते हैं, लेकिन एक पूर्व प्रधानाध्यापिका अरुणा जोशी उस की कोशिशों पर पानी फेर देती हैं। इसी गहमागहमी के बीच होने वाली घटनाओं, मोर्चों और बहसों से गुज़रते हुए यह क़िस्सा एक ऐसे मोड़ पर पहुँचता है, जहाँ रेल और बस के बीच एक प्रतियोगिता कराई जानी तय की जाती है। रेल के ड्राइवर पैट थॉमस, अकबर इंजन जिनका पसंदीदा स्टीम इंजन है और सांसद संजय सिंह राय की बस के बीच होने वाले इस मुक़ाबले में, रोचक घटनाक्रम से गुज़रते हुए पैट थॉमस अपने ‘अकबर’ की बदौलत मुक़ाबला जीत जाते हैं। सांसद की बस के डीज़ल को भ्रष्ट छुटभैए नेता पी जाते हैं, जिससे वह गंतव्य से पहले ही बंद हो जाती है। आख़िरकार रेल तो बंद नहीं हो पाती, मगर आख़िरी बचे कुछ स्टीम इंजनों में से ‘अकबर’ की छुट्टी कर दी जाती है। इसी क़िस्से के नाम पर इस पूरे संग्रह का नाम भी है। बस और रेल के बीच मुक़ाबले में होने वाले रोचक घटनाक्रमों में क़स्बाई हास्य का पुट पाठकों के मन में विनोद जागृत कर देता है।

इस किताब के सातवें और अंतिम क़िस्से का नाम है—‘क़िस्सा एक भिक्षु का’। यह उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर बसे बलरामपुर गाँव के रहने वाले दलित युवक राम भरोसे की कहानी है। गाँव के अहीरों से विवाद होने पर रिपोर्ट लिखाने गए उसके पिता रामचंद्र, सिख थानेदार की सलाह पर उसे स्कूल में भर्ती करा देते हैं। स्कूल में जातिगत भेदभाव के चलते उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। जिसके बाद वह अपना नसीब आज़माने के लिए दिल्ली चला आता है और उसे एक अँग्रेज़ के बँगले पर सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी मिल जाती है। नौकरी करते हुए, हैलिडे नाम के अँग्रेज़ मालिक से उसकी बातचीत का वर्णन ऐसा है, जैसे दो धर्म के विद्वान बातचीत कर रहे हों। अपने छोटे भाई मैपाल की बेटी स्नेहा की मृत्यु से राम भरोसे के मन में आए भूचाल का वर्णन पाठकों को विह्वल कर देता है। नौकरी छोड़कर ग़ायब हुए रामभरोसे का पाँच साल बाद अचानक हैलिडे के पास फ़ोन आता है, तो पता लगता है कि वह बौद्ध भिक्षु बन गया है। हैलिडे की उससे मुलाकात पर उसके बौद्ध भिक्षु बनने के कारणों का पता लगता है, तो समझ में आता है कि उसकी भिक्षु बनने की यात्रा किन-किन मोड़ों से गुज़री है। राम भरोसे के दलित से बौद्ध बनने के विवरण कहीं-कहीं असहज करते हैं, तो कहीं-कहीं मन पर चोट करते हैं। इस पूरी यात्रा में आए विघ्नों, भतीजी की मौत के बाद जन्मे वैराग्य, पारिवरिक दबाव से पार पाते हुए राम भरोसे किस प्रकार सफल बौद्ध भिक्षु बनता है, यही इस क़िस्से का सार है।

इस किताब की भाषा की बात करें, तो इसकी भाषा क़स्बाई संदर्भों और शब्दावली से युक्त है। एक पाठक के रूप में यह किताब पढ़ते हुए कहीं-कहीं ठहरने के लिए, तो कहीं रुककर अपने पढ़े हुए के चित्र को मस्तिष्क में फैलाने के लिए मजबूर कर देती है। मार्क टली, एक मँझे हुए क़िस्सागो हैं, सो क़िस्से को बाँधने के लिए वह जो जुगतें लगाते हैं, वह रोचक लगती हैं। पूर्वांचल की ग्राम्य पृष्टभूमि के बिंब, प्राकृतिक सौंदर्य और स्थानीय मुहावरों का प्रयोग इसे और बेहतर बनाता है। इन सातों क़िस्सों में एक बात हर क़िस्से में मौजूद है—वह है, हिंदुस्तान के देहात में पोर-पोर में बसा जातिवाद। जातिवाद, जाति की राजनीति, जातिगत भेदभाव का कुछ-न-कुछ अंश आप को हर क़िस्से में मिल जाएगा।

अनुवाद की दृष्टि से देखने पर प्रभात सिंह एक कामयाब अनुवादक हैं, इसकी पुष्टि होती है। प्रभात लंबे समय तक अख़बार से जुड़े रहे हैं, तो अख़बारनवीसी के शब्दों से खेल ही जाते हैं।

एक पाठक के तौर पर कहूँ, तो अगर आप क़स्बे से आते हैं, तो ‘धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर’ पढ़ते हुए आपको बहुत सारी जगह लगेगा कि आपके अपने क़स्बे की बात हो रही है। कई जगह आप चौंक उठेंगे कि अरे! ऐसा तो मेरे क़स्बे में भी हुआ है। कुल-मिलाकर कहा जा सकता है कि यह ऐसी किताब है, जिसे क़स्बाई ज़िंदगी की तिकड़मों का लुत्फ़ लेने के लिए पढ़ा जा सकता है।

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