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ड्रैगन फ़्रूट, कीवी के ज़माने में सिंघाड़ों का सुख

शीत की साग-सब्ज़ियों से अटी पड़ी सब्ज़ी मंडियों के बाहर अत्यक्त भाव से बिकते सिंघाड़ों को देखकर जी करुणा से भर आया। ऐसे सरस फल को कैसे इतनी जल्दी बीते दिनों की बात बना हम आगे बढ़ गए।

कार्तिक महीने तक तो कितनी धूम थी इन हरे और लाल सिंघाड़ों की लेकिन अब जब पौष विदा हो रहा है तो उसके साथ ही विदा हो रहे हैं—यथेष्ट स्वाद सुख के साथी सिंघाड़े। प्रस्थान की इस बेला में सिंघाड़ों के कुछ एक ही ढेर दिख रहे हैं और वह भी तन्हा और क़द्रदानों की एक-एक नज़र को मोहताज।

सिंघाड़ों को देखते ही स्मृति में भर आते हैं गाँव के ताल तलैया और गड़ैया। कोहरे से ढके पोखरों के शीतल जल में हरे पात और पीले फूलों वाली लताओं से झूलते सिंघाड़ों के गुच्छ को उघारे बदन बड़े-बड़े दो मटकों की डोंगी पर सवार होकर तोड़ते जलपुत्रों को तो शीत जैसे छूती ही न हो।

वहीं ताल किनारे धधक रही भट्टी पर टीन के कनस्तर में उबल रहे सिंघाड़ों को पैर में फँसे हँसुआ से छील रही बूढ़ी अजिया की यंत्रवत चलती उंगलियाँ सिंघाड़ों को ऐसी सफ़ाई से एक-एक कर खाँची में जमा करती जाती जैसे कोई मोती चुनकर ओट में धर रहा हो। बक्कल खुलते ही धुएँ के अंबर में लिपट कर बाहर आते हैं दूधिया सफ़ेद सिंघाड़े। कुछ वैसे ही जैसे—सीप से मोती।

बाह्य आवरण में तीन काँटो वाला यह फल भीतर से एकदम संत हृदय है। जल में जन्मा है तो जिह्वा पर चढ़ते ही पुनः जल बन उदर में उतरता है। मानो मीठे पानी का घूँट। इस कृतघ्न संसार ने इसके बाह्य कंटक देखकर ही इसे शृंगाटक पुकारा जबकि इसके कलेजे की मिठास को वह चुपचाप पी गया। 

अब स्वार्थी मनुष्यों द्वारा नामकरण के षड्यंत्र का यह कोई पहला शिकार तो है नहीं। पुत्रकामेष्टि जैसे यज्ञ जिसके पुण्यफल राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसे पुत्र थे, ऐसे पुनीत यज्ञ के पुरोहित और संबंध में ब्रह्मस्वरूप राम के बहनोई ऋषि को भी इस संसार ने शृंगी कहकर पुकारा क्योंकि जन्म के समय उनके सर पर सींग थी जो कि बाद में विलुप्त भी हो गई।

वक्ष के आकार का होने भर से इस मृदु जलफल को ‘वाटर चेस्टनट’ कहकर अँग्रेज़ों ने भी अपनी सभ्यता का परिचय बख़ूबी दे दिया। नाम में क्या रखा है पूछने वाले कवि को कोई बताता कि नाम में कुछ रखा हो अथवा न लेकिन नाम रखते वक़्त चंट मनुष्यों द्वारा अपनी कुटिल बुद्धि क्षण भर को भी किनारे न रखी जा सकी।

सिंघाड़ा फल है अथवा सब्ज़ी यह भले ही भोज वैज्ञानिकों के लिए शास्त्रार्थ का विषय हो किंतु इतना तो तय है कि सिंघाड़ा ही रसोई में इकलौता सहज प्राप्त फल है जिसकी सब्ज़ी और रोटी दोनों बनाई जा सकती है।

आग में भुनकर, उबलकर, तलकर, कुटकर, पिसकर, सिककर भी इस उपकारी फल ने जो चीज़ देनी सीखी है वह है—तृप्ति, जायका, रसानुभव और लुत्फ़। विदाई की इस बेला में मैं तुम्हारे स्वाद सुख की अनुभूति कर तुमसे कहता हूँ : “प्रिय! तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी।”

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