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गमछा : एक नमीदार सहचर

जब भी मैं किसी थके हुए आदमी को देखती हूँ, जिसकी गर्दन पर पसीने से भीगा गमछा रखा होता है, मुझे सोबरन कक्का याद आते हैं। उनके माथे का पसीना उसी में उतरता, खेत की मिट्टी उसी से झाड़ी जाती और जब वह चुप होते, तो वही गमछा उनके कंधे पर से लटकता हुआ उनकी चुप्पी का अनुवाद करता।

गमछा कोई एक चीज़ नहीं है। वह थका हुआ तौलिया है, वह माथे की छाँव है, वह मुँह ढकने की आदिम कोशिश है। उसे हम शॉल नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें कोई सजावटी बड़प्पन नहीं है। न ही वह टॉवेल है, क्योंकि उसमें एक अंतरंगता है, जो टॉवेल की नहीं हो सकती। वह कभी-कभी अपनी ही गाँठ में, गाँठ बाँध लेता है और सिर पर बाँध लिया जाए, तो गर्मी की ख़बर छिपा लेता है।

गमछा समाचारों में नहीं होता, पर वह हमेशा घटनास्थल पर पाया जाता है, किसी प्रदर्शन में, किसी जनसभा में, किसी कंधे पर, किसी शव के ऊपर या किसी पालतू कुत्ते की पीठ पर... गमछा हर जगह है, लेकिन किसी ख़बर में उसका नाम नहीं।

गमछा कोई राजनीतिक झंडा नहीं है, लेकिन उसमें विरोध और समर्थन दोनों की छाया रहती है। वह अपने रंग नहीं बदलता, पर हर रंग के साथ निभा लेता है। उसकी लकीरें, उसकी धारियाँ, उसकी घिसी हुई कोरें... ये सब समय की भौगोलिक रेखाएँ लगती हैं, जैसे मानचित्र की झुर्रियाँ।

फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ में गमछा है, जो आदमी की ग़रीबी ढकता नहीं, बस उसकी इज़्ज़त को थामे रखता है। प्रेमचंद के ‘होरी’ के पास शायद एक ही गमछा रहा हो, जो कभी उसकी पीठ, कभी बैल की पीठ पर रहा हो।

गमछा डाले लोग मुझे तकल्लुफ़ की हद तोड़ते नज़र आते हैं। गमछा आदमी में एक अपनापा लाता है। कुर्ता जिस तरह संवाद में औपचारिकता घटा देता है, गमछा भी तनाव की पसीनेदार परत को मिटा देता है।

जब सौरभ द्विवेदी गले में गमछा लपेटे आते हैं, तो लगता है—जैसे उनके चमचमाते मंच और शब्दों के आभिजात्य में ‘ज़मीनी’ दिखने का यही आख़िरी रास्ता बचा हो कि कंधे पर एक गमछा डाल लिया जाए। यानी गमछा प्रमाणपत्र है, विनम्रता का। वहीं योगेंद्र यादव जब गमछे की गलबहियाँ धरते हैं, तो उसमें उनके उच्चारण की नफ़ासत वाली सधी हुई भंगिमा दिखती है।

राकेश रोहित की एक कविता याद आती है—

गमछे जो जितनी जल्दी हमें सुखाते,
उतनी ही जल्दी ख़ुद सूख जाते,
और यात्रा पर चलते हुए
चुपचाप साइड पॉकेट में सिमट जाते।

गमछे ऐसे ही होते हैं, अपने सरलपन और सहजता में अंतिम पंक्ति के मनुष्य के मूक साथी।

गली के छोर की कोई पुरानी दुकान हो, या किसी बेंच के कोने में बैठा कोई थका हुआ आदमी... कुर्ते की जेब में छिपे बीड़ी-बुड़दक की तरह, गमछा हर दृश्य के सादे सौंदर्य में बसा मिलता है। दूसरी तरफ़, कोई नेता भाषण से पहले गमछा लटका ले, तो लगता है वह ख़ुद को वह दिखाना चाहता है, जो वह है नहीं।

कभी-कभी गमछों को देखा है, वे अपने आदमी से रिश्ता जोड़ लेते हैं। फिर उन्हें बाहर जाते समय वही गमछा चाहिए होता है और वे उन्हें तरह-तरह के संबोधनों के साथ ढूँढ़ते हैं, “अरे, जो अभी गाडरवारा में ख़रीदा था...”, “वही, अभी परसों मट्टी से आकर तो धोया था...”। दस बित्ते के इस कपड़े में एक प्रकार की अनुभूति रहती है—कोई कोना जो पुराना पड़ चुका है, कोई किनारा जो अब भी बात करता है।

अपने सरल ताने-बाने में गमछा बहुत कुछ ढकता है, बहुत कुछ सोखता है, पर बोलता कम है। वह किसी बड़े मंच का वस्त्र नहीं है, वह घर के कोने, चबूतरे और आँगन के पास रहता है। मेरे पिता भी गमछा रखते हैं, अब भी। बैंक जाते हुए, डॉक्टर के यहाँ, यात्रा में... उनका हाथ हमेशा गमछे की तरफ़ जाता है, जैसे कोई आदत नहीं, स्मृति हो। शायद वही कभी मेरी चोट पर बाँधा गया होगा। माँ बताती हैं कि मेरी दादी के गुज़रने पर वह रोए नहीं थे, कुछ दिन बाद पानी की टंकी पर बैठे—अकेले—गमछे से आँखें पोंछते रहे देर तक।

क्या आपने ‘सिनेमा पैराडीसो’ फ़िल्म देखी है? एक पुराना फ़िल्म प्रोजेक्टर-ऑपरेटर, अल्फ्रेडो, सिनेमा से जुड़ी हर चीज़ को जैसे अपनी देह का विस्तार मानता है। उसके लिए फ़िल्म की रीलें कोई धातु नहीं, स्मृतियाँ थीं। जाने क्यों लगता है कि अगर वह भारत में होता, तो गमछा ज़रूर रखता। रील के डिब्बों से धूल झाड़ने के लिए नहीं, आँखें पोंछने के लिए और लंच बॉक्स में इरफ़ान का किरदार बिल्कुल गमछे जैसा है... चुप्पा, धीरे-धीरे जीवन को सोखता हुआ, भीतर बहुत कुछ झेलता हुआ। उसकी सादगी, थकावट, अपनापन, सब उसमें है।

गमछा वस्त्रों की भीड़ में एक अकेली सादगी है। जैसे बापू की धोती थी, वैसे ही यह देश का आम आदमी है, जिसे कोई बहुत ध्यान से नहीं देखता, पर जो हर किसी के पास कभी न कभी रहा होता है।

आज जब सूट-बूट, टाई और ब्रांडेड स्टोल्स की दुनिया में लोगों के चेहरे छिपते जा रहे हैं, गमछा अब भी वही है; खुला, हवादार और भरोसेमंद संगी। जनाना दुपट्टों के बीच इसने अपनी मर्दानगी बचा रखी है।

गमछा अब भी पसीना पोंछता है, अब भी बच्चों की नाक साफ़ करता है, अब भी किसी थके हुए कंधे को सहारा देता है। शायद यही उसका धर्म है; थोड़ा गीलापन अपने हिस्से लेना, ताकि बाक़ी सूखा रह सके।

मेरे साथ कॉलेज में पढ़ने वाला एक लड़का, साइकिल पर चलते हुए गमछे को लहराकर चिल्लाता, “मैं आ गया!” अपने बाँकपन में गमछा कभी भी घोषणा में बदल सकता है। कोई बूढ़ा रिक्शावाला जो दुपहर में गमछे से मुँह ढक कर नींद लेता है; गमछा तब एक छत है। किसान के लिए यह तिजोरी की चाबी है, पसीने से गीले सिक्के उसी में बँधे होते हैं। एक मज़दूर का गमछा बिछा था, ज़मीन पर। अपने बीमार बच्चे को गोद में लेने के लिए, उसने वही गमछा बिछा दिया था। डॉक्टर के क्लिनिक में लपेट दिया ताकि बच्चे को ठंड न लगे। गमछा तब चादर बन गया था। कभी-कभी गमछे स्त्रियों की तरह हो जाते हैं, ममतालु और फ़िक़्र में डूबे हुए।

तेज़ और आक्रामक वक्ताओं के बीच एक आदमी चुपचाप गमछा सिर पर डाले बैठा है, जानिए, वह कुछ सोच रहा होता है।

शुरू में रंगीन, फिर धीरे-धीरे फीका, पतला, पारदर्शी और अंत में रसोई में गर्म रोटी रखने का कपड़ा बन जाता है। पर गमछा जाता कहीं नहीं। वह एक छोटा कपड़ा है, पर बहुत बड़ा सहारा। गमछा आज भी देश के सबसे सस्ते और सबसे आत्मीय प्रतीकों में से एक है।

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