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ग्लोबल विलेज के शोर में पुरबिया गाँव

यह संस्मरण भूमंडलीय पीढ़ी का देहाती क़िस्सा है। गाँव-देहात को इसलिए नहीं याद कर रहा हूँ कि मेरे पास कुछ कहने के लिए कुछ यादें हैं, बल्कि इसलिए याद कर रहा हूँ कि मेरी पीढ़ी ने बदलावों को इतने तीव्र गति से देखा है कि मानो कोई चीज़ कल थी और आज नहीं है। तीस साल में ही चीज़ें तीन घंटे के सिनेमाई अंदाज़ में बदल चुकी हैं। एक पूरी पीढ़ी ढंग से जवान भी नहीं हुई कि मानो जैसे पूरी एक सदी ही गुज़र गई हो।

हिंदुस्तानी गाँव अब इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हैं। वस्तुत: हिंदुस्तानी शहरों की ओर पलायित पीढ़ी के पास गाँव अब एक नॉस्टेल्जिया है। सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में गाँवों की सामुदायिकता और भौगौलिक संरचना में उसकी बसावट की स्मृतियाँ अक्सर अनहद नाद की तरह गूँजती है। यह अनहद नाद भारत की एक बड़ी आबादी के पास है। गाँवों में जिनकी पैदाइश आज़ादी के पहले हुई है, उनमें से भी अनेक लोग आज जीवित हैं। उनके मानस या कहें उनकी आत्मा में जो गाँव हैं, उनका तो पूरी तरह कायांतरण हो चुका है। यद्यपि वर्ष 1990 के बाद वाली पीढ़ी के पास भी ऐसा ही कुछ है—गाँव की आत्मा का सुखाड़।

मेरी पैदाइश बीसवीं सदी के अंतिम दशक की है। 1990 के बाद उत्तर प्रदेश के पुरबिया इलाक़े के मऊ ज़िले एक गाँव अहिलाद में हमने आँखें खोली थीं। उसी दौर में भारत में नई आर्थिक नीतियाँ लागू हुई थीं। मंडल कमीशन और अयोध्या में राम मंदिर का बवंडर उठा हुआ था। हिंदुस्तानी नक़्शे पर मंडल, मंदिर और मार्केट का त्रिभुज बन गया था। देश के नीति-नियंताओं के यहाँ ग्लोबल विलेज की अवधारणा उफान मार रही थी। बावजूद उसके हम लोगों के यहाँ ख़ासकर मेरे गाँव में ग्लोबल विलेज का शोर नहीं पहुँचा था। हाँ! उसका असर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक दिखने लगा।

ग्लोबल विलेज के लिए जिस मुक्त बाज़ार की सैद्धांतिक सहमति इस देश में बन गई थी, उसने अपना असर दिखना शुरू कर दिया था। कैसे ख़ासकर मेरे गाँव में? इसे जैसा देखा, वैसे ही तो नहीं, लेकिन बेतरतीबी से ज़रूर दर्ज कर रहा हूँ। उसे नॉस्टेल्जिया या अतीत-राग के रूप में नहीं समकाल के सवाल के रूप में दर्ज कर रहा हूँ।

हिंदुस्तान में विगत तीस साल तीव्र रफ़्तार की है। यह रफ़्तार इतनी तेज़ है कि बदलाव असामान्य ढंग से सामने है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में पैदा हुई पीढ़ी पारंपरिक जीवन मूल्यों और भौतिकतावादी रेस के संक्रमण में साँस ले रही है। बमुश्किल तीस साल के भीतर ही देखते ही देखते मिट्टी के घर ज़मीन-दोज़ हुए। झोपड़ियाँ ख़ाक हुईं। पक्के मकान बने। हल-बैल बिक गए। ट्रैक्टर आ गया। ट्रैक्टर से खेती आसान तो हुई, लेकिन उसने तमाम छोटे-छोटे खेत-मालिकों को मज़दूर की पहचान में नत्थी कर दिया। दूसरी ओर बाग़-बग़ीचे लगभग उजड़ गए। नतीज़ा यह हुआ है कि गर्मी बेहिसाब बढ़ी है। गाँवों में भी कूलर, एसी दबे पाँव घुस आया है। ताल-तलैया, छोटी नदियाँ पूरी तरह सूख गईं। ताल-तलैया, छोटी नदियाँ सूखीं तो पानी का स्तर घट गया। गाँव बेपानी होने लगे।

मेरे गाँव के उत्तर में एक बहुत घना बग़ीचा था। मेरे बाबा रामकृत सिंह बताते थे कि यह इतना घना था कि सूरज की रोशनी बड़ी मुश्किल से आती थी। इस बाग़ में ज़्यादातर पेड़ राजपूत परिवार के थे। इस बाग़ में ज़्यादातर आम के पेड़ थे। कुछ जामुन और महुआ के भी। मैं और मेरा भाई बाबा-दादी के साथ यहाँ भोरे-भोरे महुआ बीनने जाते थे। ख़ैर, जब भी हम इस बाग़ के बारे में बाबा से पूछते; वह मुझसे बताते थे कि लोगों ने बड़े-बड़े मटकों में पानी भरकर, कंधे पर लादकर इन पेड़ों को बड़ा होने तक सींचा था। तब जाकर यह बाग़ इतना घना था। एक बाग़ मेरे गाँव के दक्षिण पश्चिम के कोने में भी था। वह भी घना था। वहाँ एक पोखरा भी था। ख़ैर, अब दोनों बाग़ लगभग उजड़ चुके हैं।

गाँव में पहले बाँस के झुरमुट भी ख़ूब थे। अब वह भी लगभग ख़त्म हो चुके हैं। बाँस से निर्मित वस्तुओं की अब गाँव में कोई पूछ तो है नहीं। न झोपड़ी बन रही है और न उसकी ज़रूरत। शादी-विवाह में मंडप भी अब रेडीमेड हैं। हवा के लिए बाँस के पंखे और कुछ रखने-फटकने के लिए भी बाँस की ज़रूरत रही नहीं। अब सब प्लास्टिक की वस्तुओं से रिप्लेस होता चला जा रहा है। बहरहाल, पैसे के लालच में निर्मोही गाँव वाले जब हरे पेड़ों को कटवाने लगे तो मेरे बाबा और उनके जैसे तमाम लोग बड़े दुःखी थे। मेरे गाँव के एक पंडित जी थे। संभवत: वर्ष 2002 से लगभग 2007 तक गाँव के हरे पेड़ों को ख़ूब कटवाया गया। पैसे के लालच में गाँव वाले भी इसमें शामिल हुए। पंडित जी का एक पंद्रह-सोलह साल का इकलौता बेटा पहले विकलांग हुआ और फिर कुछ सालों के बाद उसकी मृत्यु हो गई। लोक-चर्चा हुई कि पंडित जी को हरे पेड़ कटवाने का पाप-दोष लगा है। वैसे भी जनश्रुति है कि हरे पेड़ों को कटवाने से पुत्र-हानि होती है।

गाँवों में जलाशयों की बात करें तो उनकी भी कहानी है। पहले पोखरा-तालाब कोई जेसीबी मशीन नहीं खोदती थी। मनरेगा के मजदूर भी नहीं थे। यह सब सामूहिक प्रयास था। तालाब के बारे में ज़्यादा जानने के लिए अनुपम मिश्र की एक किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ सबको पढ़नी चाहिए। आज से क़रीब अठारह वर्ष पूर्व की बात है। मेरे गाँव में एक लोग छोटा-सा पोखरा खुदवाना चाहते थे। जेसीबी मशीन आई और लौट गई। एक कारण यह था कि उसमें चेवन (अनगढ़ नुकीले पत्थर) बहुत ही ज़्यादा थे, लेकिन जिनके यहाँ वह तालाब खुदना था; उस घर के एक स्वस्थ बुज़ुर्ग सुदर्शन सिंह (करीमन) ने कुदाल, गैइता और बड़ा-सा भगोना लेकर रात-दिन मेहनत करके लगभग चार-पाँच महीने में ख़ुद ही वह तालाब खोद डाला। अब तो जलाशयों की जो दुर्गति है; वह किसी से छिपी नहीं, या तो वे निरर्थक हो चुके हैं या क़ब्ज़ा लिए गए हैं। मेरे गाँव में जिस तालाब की किनारे छठ पूजा होती थी, मेरी स्मृति में उसमें इतना पानी होता था कि लोग वहाँ नहाते थे, लेकिन विगत कई वर्षों से छठ-पूजा के लिए तालाब में कृत्रिम व्यवस्था से पानी भरना होता है।

मेरे गाँव की सांस्कृतिक संरचना की स्मृति यह है कि विवाह आदि के अवसर पर समूचे गाँव की भागीदारी होती थी। किसी के यहाँ से चौकी/तख़त और किसी के यहाँ से अन्य सामान (बिस्तर, बर्तन आदि)। हलवाई गाँव का होता था और श्रमदान करने के लिए गाँव के नौजवान उपलब्ध होते थे। भोजन के लिए बफ़र सिस्टम नहीं था। ज़मीन पर पंक्तिबद्ध होकर खाना होता था। उत्साही नौजवान-बच्चे बड़े प्रेम से खिलाते थे। जैसे गाँव के किसी के भी घर का आयोजन ख़ुद की ज़िम्मेदारी हो। ठंड के मौसम में गाँव के हर घर के बाहर कउड़ा (अलाव) जलता था। वहाँ दुनिया जहान की बातें होती थीं। गाँव घर पर किसी मेहमान या मुसाफ़िर के आने पर पानी के साथ गुड़, मट्ठा, दही-चूड़ा आदि आता था। अब तो गाँव के दुकान से दौड़कर पैकेटबंद बिस्किट-नमकीन-कोल्डड्रिंक चला आता है।

मुझे याद है कि मेरे टोले के नौजवान लोग एक दूसरे के खेत में गेहूँ या धान कटवाने साथ में निकलते थे। एक दूसरे का सहयोग करने के लिए एक दूसरे का साथ देते थे। मेरे चाचा इस कार्य के अगुआ थे। गाँव की कुछ स्त्रियाँ खादी भंडार से रूई लेकर आती थीं, और कच्चा धागा बनाकर कुछ पैसा अर्जित कर लेती थीं। वहाँ से सस्ते दर पर धागा कातने वाली मशीन मिल जाती थी। कुछ लोग बिजली से चलने वाली मशीन रखे हुए थे। जमकर पशुपालन होता था। लगभग हर घर के दरवाज़े पर एक गाय या एक भैंस होती ही थी। कई लोग तो बहुत जानवर रखते थे। हम लोगों ने सिवान (गाँव-देहात का बाहरी घासयुक्त ख़ाली स्थान) में ख़ूब गाय-भैंस चराई हैं।

गाँव के सरकारी प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों का बड़ा रुआब और रुतबा होता था। कभी कभी हम वहाँ भी जाते थे। यद्यपि मेरी प्रारंभिक शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर से हुई। वहाँ के शिक्षक दो-तीन वर्षों तक हम लोगों को घर पर भी आकर पढ़ा जाते थे। बदले में कोई आर्थिक उपार्जन नहीं, बल्कि घर पर ही एक वक़्त का भोजन करते थे। गाँव में पूँजी का प्रवाह और चमक-दमक बहुत नहीं थी। गाँव में प्राइवेट स्कूलों में भी नहीं। मेरी सातवीं से दसवीं तक की शिक्षा बग़ल के गाँव के एक अनुसूचित जाति से संबंधित व्यक्ति के निजी स्कूल से हुई। वह लोग न्यूनतम दर पर शिक्षा देते थे। वहाँ पंद्रह रुपए महीने की फ़ीस थी। वह भी हम लोग समय से नहीं दे पाते थे। फिर भी शिक्षा चलती ही थी। निजी स्कूल होने के बावजूद वहाँ भवन के नाम पर झोपड़ी थी। उसी में हम लोग पढ़ते थे। मेरे गाँव से लगभग पंद्रह से बीस लोग वहाँ पढ़ने जाते थे। घर से विद्यालय लगभग दो से तीन किलोमीटर था और हम लोग कभी-कभी दो-दो फेरा लगा देते थे। दुपहर में खाने भी घर आ जाते थे। वस्तुत: गाँव-देहात की सुंदर सामूहिक चेतना, सामाजिक दायित्व से प्रेरित मानवीय सरोकार, प्राकृतिक साहचर्य और श्रमशील जीवन का पाठ पिछले तीस सालों में ही तेज़ी से नष्ट हो चला है। अब तो जैसे यह सब दिखना ही गुनाह हो गया हो।

इवेंट मैनेजमेंट का पूँजीवादी मैनेजर गाँव नहीं पहुँचा था। पहुँच चुका है। दिखावे का प्रकोप गाँव से दूर था। गाँव में भी घुस आया है। हल्दी और मेहँदी के लिए भी अलग स्टेज। अलग-अलग रंग-ढंग के अलग-अलग कपड़े। आभासी दुनिया (इंटरनेट के ज़रिए फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ऑनलाइन वीडियो गेम आदि) ने अधिकांश युवाओं को अपने नक़ली जीवन-शैली के प्रदर्शन का सुनहरा मौक़ा दे दिया है। अमूमन अब सब अपने सौंदर्य, रूप और भौतिक संसाधनों को ही दिखाने में लगे हुए हैं। काले भी गोरे दिखने को बेताब हैं। मोबाइल के हाइटेक कैमरे, फ़ोटो-फ़िल्टर तकनीक और रील बनाने के कारोबार ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। नशे के चपेट में नौजवान आते जा रहें हैं। उज्जड, लहकट और अधकचरे ज्ञान से लैस किशोर युवाओं की फ़ौज तैयार हो चुकी है... और ये सब कुछ मेरे गाँव में भी हो रहा है।

गाँव में पहले फ़ास्ट-फूड का चलन नहीं था, अब वह भी बहुत तेज़ी से बढ़ा है। देहात में देसी खाद्य वस्तुएँ विलुप्त होती जा रही हैं। श्रम की चोरी भी बढ़ती जा रही है। लाई-चना भुजने वाले भी इस काम से भाग रहे हैं। महीने का महीने नग़द मुद्रा की चाह में नौजवान खेती-किसानी के बजाय फ़ैक्ट्रियों में जाना पसंद कर रहे हैं। छोटे किसानों के लिए वैसे भी किसानी केवल मरजाद का सवाल हो सकता है, जीविका का नहीं। मेरे गाँव से बड़ी संख्या में नौजवानों के पलायित होने से ही गाँव की रामलीला-कमेटी टूट गई। इसके टूटने के कारण कुछ और भी हैं, लेकिन मुख्य यही है। मेरे गाँव में रामलीला पुनः साल 2002 में शुरू हुई थी। मैंने शुरुआती चार साल सीता का रोल किया और उसके बाद बी.ए. तृतीय वर्ष तक राम का अभिनय। गाँव के लगभग सभी लोग इकट्ठा होते थे। होली के आगमन से बीस दिन पहले से ही ढोलक, झाल, हारमोनियम और मजीरा से फगुआ का गीत-गँवनई शुरू हो जाता था। एक पूरी तरह सकारात्मक सामूहिक चेतना सक्रिय थी। अब तो किशोर युवा डीजे पर फूहड़ भोजपुरी गीतों के साथ झूमते हुए गाँव-मुहल्ले में निकलते हैं। मानो अब इस पूरी चेतना का ही अपहरण हो गया है।

अभी पंद्रह-बीस साल पहले तक सौ-पचास किलोमीटर यात्रा के लिए स्थानीय रेलवे स्टेशन और पैसेंजर रेलगाड़ी ही पर्याप्त थी। तब लगभग हर घर में बाइक नहीं थी। सड़कों पर सैकड़ों मोटरगाड़ियाँ नहीं थीं। अपने गाँव के छोटे-से रेलवे स्टेशन का एक क़िस्सा बता रहा हूँ। साल 2019 में इलाहाबाद से अपने गाँव आया था। इस बार इलाहाबाद जाने के लिए अपने ज़िले के मुख्य स्टेशन पर न जाकर गाँव के नज़दीकी स्टेशन पिपरीडीह चला गया। यहीं से पैसेंजर गाड़ी पकड़कर पहले बनारस, फिर वहाँ से इलाहाबाद जाना था। इस स्टेशन को देखकर पूरा बचपना चलचित्र की तरह ज़ेहन में उतरने लगा। गाँव से बाहर पहली बार इसी स्टेशन से बनारस गया था। पहली बार ट्रेन में यहीं बैठा था। यहीं पर पहली बार दोस्तों के साथ रेल की पटरी पर चला था और चलते-चलते रेल की पटरी पर दौड़ने का भी खेल किया। पटरी पर बिछा पत्थर का टुकड़ा रेल की पटरी पर रखा था। ट्रेन के पहिये के नीचे दब उसे पिसान होते देखा था।

पिपरीडीह। खेत-खेत, मेड़-मेड़ से आने पर गाँव से दूरी बमुश्किल तीन किलोमीटर। पिपरीडीह में मेरे गाँव का स्थानीय बाज़ार भी है और रेलवे स्टेशन भी। बचपन की कुछ प्यारी जगहों में से एक। छोटा-सा स्टेशन। पैसेंजर गाड़ियाँ रुकती हैं। स्टेशन के बाहर छपरे में छोटी-छोटी चाय की दुकानें। भट्टी पर गरम पकौड़ी निकलती रहती थी और उसी भट्टी के बग़ल चाय की केतली गरम होती रहती। तब दो रुपए की चाय थी। पाँच रुपए में ढेर पकौड़ी मिलती थी। अख़बार पढ़ते ही रहते कि हाथ वाली घंटी की आवाज़ सुनाई देने लगती... यानी ट्रेन आने वाली है। सावधान हो जाते लोग। पारले बिस्कुट की साइज़ और लगभग उसी के रंग का दफ़्ती वाला टिकट मिलता था। मेरे जनपद मऊ से पिपरीडीह के बीच का किराया केवल तीन रुपए होता था। ट्रेन हॉर्न देती तो पापा स्टेशन से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर होते। हॉर्न सुनते ही साइकिल एकदम तेज़-तेज़ चलाने लगते। जैसे-तैसे ट्रेन में बैठ पाते। ऐसा बहुत लोग करते।

पहली बार इसी स्टेशन पर किसी परदेशी को परिवार सहित स्टेशन पर उतरते और चहकते देखा था। पारिवारिक आयोजन प्रयोजन में गाँव से हम लोग स्टेशन लेने आते थे। पता लगता था कि बुआ और फूफा भरी दुपहरिया में पैदल ही चले आ रहे हैं। स्टेशन का प्लेटफ़ॉर्म ऊँचा नहीं था। प्लेटफ़ॉर्म पहले ईंट से बनी हुई सड़क थी। ट्रेन आने पर बाबा और दादी बड़ी मुश्किल से ट्रेन में चढ़ पाते थे। अब प्लेटफ़ॉर्म और स्टेशन बड़ा हो रहा है। विगत बीस वर्षों में ही बहुत कुछ बदला और तेज़ी से बदला। दृश्यों में चमक और धमक का ख़ुमार हर स्तर पर चढ़ा हुआ है। मेरे बचपन की यादों का स्टेशन भी अब बहुत बदल गया है। बहुत-बहुत सारी यादें हैं। गुदगुदादती, हँसाती, रुलाती। एक कसक। एक लगाव।

गाँव-देहात के स्थानीय बाज़ार-हाट भी अब संकुचित होते जा रहे हैं। मेरे गाँव के पूरब पिपरीडीह क़स्बे में बुधवार और शनिवार को और पश्चिम दिशा में इटौरा गाँव में सोमवार और शुक्रवार को बाज़ार लगता आ रहा है। पहले ये बाज़ार बड़े होते थे, अब बहुत सीमित हो गए हैं। इतना कि अब कोई जाना नहीं चाहता। लगभग हर घर में बाइक है, सब मऊ शहर जाते ही रहते हैं। बाज़ार वहाँ से हो जाता है। छोटे-छोटे घरेलू और वस्त्र आदि को लेकर रही सही कसर फ़्लिपकार्ट और अमेज़ॉन पूरा कर दे रहे हैं। हर घर में एक स्मार्टफ़ोन जो है। मुझे याद है कि आज के लगभग बीस-बाईस साल पहले मेरे गाँव में एक ‘नवयुवक मंगल दल’ का गठन हुआ था। उसके तमाम सामाजिक क्षेत्र में लक्षित कार्यों में एक था कि अपने भी गाँव में बाज़ार लगवाना। उसके लिए गुरुवार और रविवार का दिन तय हुआ था, हालाँकि कुछ ही दिन बाद वह फ्लॉप हो गया।

और हाँ! ऐसा भी नहीं है कि गाँव-देहात के बदलाव केवल कसक या पीड़ा के रूप में है, इस दौर के गाँवों में लोकतंत्र की स्थापना भी मज़बूती से हुई है। वह इस रूप में कि हमारे बाबा और पापा के पीढ़ी के लोग बताते हैं कि बाबूसाहब के सामने पड़ने पर गाँव की छोटी जातियाँ खटिया-मचिया छोड़कर उठ खड़े होते थे। बाबूसाहब के दुआर पर वह ज़मीन पर बैठते थे। मैंने भी ऐसा कई बार देखा था। अभी भी कुछ पुराने लोग गाहे-बगाहे ऐसा करते हैं, लेकिन छोटी समझी और कही जाने वाली जातियाँ या कहें संविधान में दर्ज पिछड़ी, अनुसूचित या अनुसूचित जातियों की नई पीढ़ी ऐसा नहीं करती। ख़ासकर पिछड़ी कही जाने वाली जातियाँ तो ज़रूर ही। वास्तव में इन जातियों के लोग अब जातिगत भेदभाव के शिकार न के ही बराबर हैं—पिछड़ी जातियों से संबंधित लोग—कम से कम मेरे गाँव में तो ज़रूर ही।

गाँवों में भी पिछड़ी, अनुसूचित या अनुसूचित जातियों के लोग अब आर्थिक दृष्टि से सशक्त हुए हैं। सरकारी नौकरियों में आए हैं। उनके घरों के बच्चे भी अब बनारस, इलाहाबाद और दिल्ली पढ़ रहे हैं। सिविल सेवा, इंजीनियरिंग और मेडिकल आदि की तैयारी कर रहे हैं। सक्रिय राजनीति में हिस्सा ले रहे हैं। प्रधानी के चुनाव में तो जमकर चुनौती देने लगे हैं। पूर्वांचल में पिछड़ी जातियों से संबंध रखने वाले यादव, मौर्या, पटेल ही नहीं चौहान, राजभर और निषाद जाति के प्रतिनिधि भी अब मुख्यधारा की राजनीति में दिखने लगे हैं। इस दौर के गाँव भी अब जाति-धर्म के भेदभाव और तमाम सवालों से सीधे टकरा रहे हैं। प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं। अब यह नकार का नहीं, बहस का विषय है। बहुत कुछ छूट रहा है। टूट रहा है। उसे फिर कभी... अभी ताहिर अज़ीम का एक शे’र है :

शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ज़ेहन में पर गाँव का नक़्शा रखा है

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