गुरु नानक के उद्धरण
जो मनुष्य गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम सिमरन की विद्या प्राप्त करता है, सीखता है, वह उस विद्या को पढ़-पढ़ कर जगत में आदर हासिल करता है, नामामृत को पाकर वह अंतर्मन में प्रकाश अनुभव करता है। उसका आत्मिक जीवन रौशन हो जाता है, उसके मन से अज्ञानता का अँधेरा दूर हो जाता है। उस मनुष्य को आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिल जाता नाता।
सतिगुरु जीव को मुक्ति प्रदान करता है और परमात्मा के ध्यान में लगाता है। इस प्रकार हरिपद को जानकर जीव प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।
कोई मनुष्य जितना किसी विद्या को लिखना-पढ़ना जानता है, उतना ही उसे अपनी विद्या पर घमंड होता है। इसलिए ईश्वर के दर पर स्वीकार होने के लिए विद्या ज़रूरी नहीं है।
जो मनुष्य रूखे वचन, कटु बोलता रहे तो उसका तन और मन दोनों फीके हो जाते हैं, मनुष्य के अंदर से प्रेम ख़त्म हो जाता है।
जो मानव अहंत्व और ममत्व की भावना को मन से दूर कर देता है, वह अपनी दुविधा को मिटाकर ईश्वर का ही रूप बन जाता है।
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अति डाह में घना दुःख है, मन, वचन, कर्म—तीनों हो जाते है भ्रष्ट।
ये शरीर स्वयं को अमर जानकर सुख भोगने में ही लगा रहता है, यह नहीं समझता कि यह जगत एक खेल ही है।
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यदि इंद्रिय-निग्रह दुकान हो, धैर्य सुनार बने, मनुष्य की अपनी बुद्धि अहरन हो, उस मति अहरन पर ज्ञान का हथौड़ा चोट करे। यदि अकाल-पुरख का भय धौंकनी हो, मेहनत आग हो, प्रेम कुठाली हो, तो हे भाई! उस कुठाली में अकाल-पुरख के नाम-अमृत को गलाया जाए, क्योंकि ऐसी ही सच्ची टकसाल में गुरु का शब्द गढ़ा जा सकता है। ये कार्य-व्यवहार उन्हीं मनुष्यों के ही हैं, जिन पर कृपा-दृष्टि होती है
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जगत रूपी छल की ओर से वासना से दूर होकर; जगत की वास्तविकता की समझ तभी आती है जब उस वास्तविकता का मालिक ईश्वर, मनुष्य के हृदय में बस जाता है।
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यदि अहं भाव करता हूँ तो हे ईश्वर! तू प्राप्त नहीं होता और यदि तू प्राप्त हो जाता है तो अहं-भाव नहीं रह पाता।
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किसी ने लोगों को आकर्षित करने के लिए धर्म के कई चिह्न धारण किए हुए हैं और कोई अपने शरीर को कष्ट दे रहा है। उसके लिए भी यही कहना ठीक है कि हे भाई! अपने किए कर्मो का दुःख सहन कर। ये वेष धारण करने, शरीर को दुःख देने आदि भी ईश्वर के दर पर स्वीकार नहीं हो सकते।
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हे प्रभु! मेरे अंदर दूसरों का ज़ुल्म सहने का स्वभाव और धैर्य पैदा कर, यही मेरे लिए दुधारू गाय है, ताकि मेरा मन बहुत शांत अवस्था में रहता हुआ शांति का दूध पी सके।
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यदि शरीर के झुकने से कोई विनम्र बनता हो; तो शिकारी जो मृग का शिकार करता है, झुककर दुहरा हो जाता है।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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जगत की असल, प्रभु की समझ तभी आती है, जब मनुष्य ईश्वरीय जीवन जीने की युक्ति जान लेता है।
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यह शरीर साँस के रहते तक नाम सिमरन के योग्य है। यदि अब प्रभु के गुण अपने अंदर ना बसाए, तो ये शरीर किस काम का? अंत में इसने नष्ट होकर राख का ढेर बन जाता है।
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जब तक मनुष्य परमात्मा के साथ साँझ नहीं डालता, उसकी उपासना नहीं करता, उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ है।
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अगर हाथ-पाँव या शरीर मैला हो जाए, तो पानी से धोने पर वह मैल उतर जाती है। अगर कोई कपड़ा, मूत्र आदि से गंदा हो जाए तो साबुन लगाकर उसको धो लेते हैं। पर यदि मनुष्य की बुद्धि पापों से मलिन हो जाए, तो वह पाप अकाल-पुरख के नाम से प्रेम करके ही धोया जा सकता है।
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कुबुद्धि मनुष्य के अंदर मरासणि भाव डोमनी है। हिंसा कसाइन है। परनिंदा अंदर की भगिन है, और क्रोध चांडाल है जिसने जीव के शांत स्वभाव को ठग रखा है। यदि ये चारों भीतर ही बैठी हों, तो बाहर चौका स्वच्छ रखने के लिए लकीरें खींचने का क्या लाभ?
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अहम् भाव दूर करके गुरु के दर पर जाएँ तो ही हृदय को पवित्र करने की सूझ मिलती है।
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अगर पुस्तकें पढ़-पढ़ कर सारी उम्र बिता दी जाए और पढ़-पढ़ के सारे श्वास गुज़ार दिए जाएँ, तो भी ईश्वर के दरबार में कुछ भी स्वीकार नहीं होता है।
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वही मनुष्य पापों के अँधेरे को पार कर पाता है, जिसने अपनी बुद्धि गुरु को सौंप दी हो।
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लोभ, पाप एवं झूठ, ये तीनों ही अपने नायब कामवासना को बुलाकर उसकी सलाह लेते हैं। सभी मिल-बैठकर बुरे दाव-पेंच सोचते हैं।
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ज्यों-ज्यों समय गुज़रता जा रहा है; जीवों के स्वभाव बदल रहे हैं, इसलिए जीवों के जीवन का लक्ष्य और उनके उद्देश्य भी बदल रहे हैं।
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जो मनुष्य मेहनत से कमा कर खाते हैं और उस कमाई का कुछ भाग लोगों को भी देते हैं, ऐसे मनुष्य ही जीवन का सही रास्ता पहचानते हैं।
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मनुष्य की श्वास—जब वह किसी ऐसे उद्यम या कर्म में गुज़रता है, जब परमात्मा उसके मन में नहीं बसता—तो वह श्वास व्यर्थ ही जाती है।
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जो मनुष्य सत्य को चौका स्वच्छ करने की युक्ति बनाते हैं, उच्च आचरण को चौके की लकीरें बनाते हैं। जो नाम जपते हैं और इसको तीर्थ स्नान समझते हैं, जो दूसरों को भी बुरी शिक्षा नहीं देते—वह मनुष्य प्रभु के दरबार में अच्छे माने जाते हैं।
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जिन्होंने अपने अंतर में सांसरिक मोह को त्याग दिया है, वे सतिगुरु से मिलकर मुक्त हो गए।
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जिस मनुष्य पर प्रभु की कृपा दृष्टि होती है, उस मनुष्य को गुरु द्वारा दिन-रात प्रभु-नाम लाभ मिलता रहता है।
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प्रभु ने कहीं पुरुष बना दिए तो कहीं नारियाँ—ये सारे भी छल रूप हैं, जो इस पति-पत्नी वाले संबंध के छल से भ्रमित होकर नष्ट हो रहें।
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यती कहलवाने वाले जीवन की युक्ति को नहीं समझते और व्यर्थ ही घर-बार छोड़ देते हैं।
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सत्य तभी जाना जा सकता है जब जीव गुरु से सच्ची शिक्षा लेकर; उस शिक्षा पर चलते हुए सब जीवों पर दया करता है और ज़रूरतमंदों को कुछ दान देता है।
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जिस मानव शरीर में परमात्मा का सदा-स्थिर रहने वाला नाम नहीं बसता, वह शरीर किसी काम नहीं आता—वह शरीर व्यर्थ ही हुआ समझो।
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गुरमुखों की संगति की इनायत से फिर जहाँ भी जा कर बैठें, वहीं मलाई की बात की जा सकती है और कुकर्मों/बरे विचारों से विमुख होकर, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया जा सकता है।
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अगर पढ़ा-लिखा मनुष्य कुकर्मी हो जाए, तो यह देखकर अनपढ़ मनुष्य को यह सोचकर घबराना नहीं चाहिए कि पढ़े-लिखे का ये हाल तो अनपढ़ का क्या बनेगा, क्योंकि अगर अनपढ़ मनुष्य नेक है तो उसे दंड नहीं मिलता।
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