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कृष्ण बिहारी मिश्र

1936 - 2023 | बलीहार, उत्तर प्रदेश

सुपरिचित लेखक। निबंध, पत्रकारिता-लेखन, संस्मरण और अनुवाद में योगदान।

सुपरिचित लेखक। निबंध, पत्रकारिता-लेखन, संस्मरण और अनुवाद में योगदान।

कृष्ण बिहारी मिश्र के उद्धरण

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लोग समझदार हो गए हैं, इसलिए अविरोध की साधना में लग गए हैं।

मानवीय संवेदना के मूल स्वभाव को ठीक से समझे बिना सब कुछ को ख़ारिज कर देने का औद्धत्य कभी फलप्रसू नहीं होता।

सबको प्रीत करके सबसे मीठ बने रहने की हमारी स्पृहा हमें विरूप और प्रकाशहीन बना देती है।

चेतना और रूचि का फलक बड़ा होना ही चाहिए।

खनखनाते हुए मणिमय मुक्ताहार, सोने के नूपुर, कुंकम के अंगराग, सुगंधित पुष्प, विचित्र मालाएँ, रंगबिरंगे वस्त्र—इन सब चीज़ों की मूर्खों ने नारी में कल्पना कर ली है किंतु भीतर-बाहर विचारने वालों के लिए तो स्त्रियाँ नरक ही हैं।

श्रृंगार जिनका प्रधान है, ऐसे काम के मित्रगण नारी को जीतने से जीत लिए जाते हैं।

मोहित करती हैं, मदयुक्त बनाती हैं, उपहास करती हैं भर्त्सना करती हैं, प्रमुदित करती हैं, दुःख देती हैं। ये स्त्रियाँ पुरुषों के दयामय हृदयों में प्रवेश कर क्या नहीं करती हैं?

शास्त्रों के द्वारा प्रदत्त विवेक विद्वानों के मन में तभी तक प्रभाव दिखलाता है, जब तक वह कमलनयनी सुंदरियों के नेत्रबाणों का शिकार नहीं बनता।

माँ-बाप बड़े हुलास से अपने बच्चों को जो नाम देते हैं, कभी-कभी वह नाम समाज द्वारा बदल दिया जाता है। समाज द्वारा दिया हुआ नाम शक्तिशाली होता है और मूल नाम को धकियाकर अपने द्वारा ही आदमी की पहचान उजागर करने लगता है।

आदमी और आदमी को जोड़ने वाली वह संवेदना, जो लालित्य-उल्लास की जननी है—को किस विषैले धुएँ ने मार दिया?

अवलोकन, संभाषण, विलास, परिहास, क्रीड़ा, आलिंगन तो दूर रहे, स्त्रियों का स्मरण भी मन को विकृत करने में पर्याप्त है।

विवेक-विवर्जित अतिरेक का परिणाम हमेशा अशुभ होता है।

जब कोयल की आवाज़ आदमी के मन में आंदोलित करती है तो कोयल भी आदमी का इशारा कुछ-कुछ ज़रूर समझती होगी।

जब आदमी बेहया बन जाता है, कोई अपकर्म-कुकर्म करते उसे संकोच नहीं होता और धीरे-धीरे उसमें उस ढीठ संस्कार का जन्म होता जो उसे जंगली कानून के राज्य में ले जाता है, जहाँ नाना प्रकार का अन्धकार और संकीर्णताएँ फलती-फूलती हैं।

भली है मैना, जो मोबाइल फोन नहीं रखती, अख़बार नहीं बाँचती, घड़ी की कैद में देर-सबेर के आतंक में नहीं जीती। अन्यथा उसका उल्लास-राग कब का मर गया होता, और वह अनाकर्षक हो गई होती—आज के आदमी की तरह।

व्यक्ति की भोगेच्छा और अनाचार समष्टि के मंगल का संहार कर दे, इस सहज चिंता ने तरह-तरह की आचार-मर्यादा के विधान की प्रेरणा दी।

कर्मकाण्ड साधन है, साध्य नहीं है,...किन्तु साध्य से कम महत्त्वपूर्ण साधन नहीं होता, यह सूझ भारतीय मेधा की स्वकीय विशिष्टता है।

आधुनिकता का प्रभाव बीमारी के रूप में लोगों के मन में घुस गया है। इस बीमारी का पहला दुष्परिणाम यह है कि आदमी जो जीता है, उससे भिन्न रूप दिखाता है।

धर्म की आड़ में क्रियाशील उद्दाम विलास की वह हीन साधना जटिल कर्मकाण्ड से जुड़ी थी।

स्मग्र निसर्ग के प्रति संवेदनशील होकर ‘मानुष्य सत्य’ की रक्षा की जा सकती है।

स्वातंत्र्य की सुरक्षा और संवर्द्धन के लिए भी आत्मानुशासन पहली शर्त है।

मानवेतर सभी प्राणियों के जीवन की चरम सम्भावनाएँ उनकी शरीर-संरचना से मर्यादित हैं।

मित्रों का हृदय अनिष्ट की आशंका ही किया करता है।

हया मनुष्य को उदार, नमनीय और संस्कृत बनाती है। उसके मन की घेरान को तोड़ती है। जब भीतरी घेरान टूट जाती है तब बाहरी घेरान के टूटते समय नहीं लगता। और जब बाहर-भीतर की घेरान टूट जाती है तो मनुष्य को सहज रास्ता मिल जाता है।

अविरोध की साधना उन्हें सुहाती है जिनमें अतिरिक्त स्वार्थ-सजगता होती है।

गाँव से भागती अन्नपूर्णा और मनीषा की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण के चरित्र का आह्वान जरूरी है।

आदमी तो आदमी, बसंत-मुद्रा देखकर काठ भी अँखुआने लगता है।

मनुष्य के रसलोक की रक्षा में पर्वों की अखंड यात्रा की विधायक भूमिका रही है। भारतीय पर्व भारत की स्वकीय पहचान को उजागर करते हैं।

मनुष्य की विकास यात्रा जब कभी अवरुद्ध हुई है, कारण उसका बेहया मन रहा है।

कर्मकाण्ड के अतिरेक का प्रतिरोध हुआ है—मानुष सत्य की रक्षा के उद्देश्य से।

शांत, अनंत, अद्वितीय, अजन्मा, ज्योति को उस-उस गुण के प्रकाश से ब्रह्मा, विष्णु, शिव ऐसे अनेक प्रकार से कहा जाता है। भिन्न-भिन्न तथा अनेक पथों में गतिशील शास्त्रों के द्वारा वही एक ईश्वर कहा जाता है जैसे भिन्न-भिन्न तथा अनेक पथों में गतिशील जल-प्रवाह समुद्र में ही गिरते हैं।

ज्ञान-गुमानियों में काॅमनसेंस और विनोदप्रियता का बराबर अभाव रहा है।

अशुभ है गँवई पहचान को मारकर गाँवों की शोभा बढ़ाना, संवेदना से छूँछ होकर समृद्धि का दंभ ढ़ोना।

स्वातंत्र्य-महत्ता का जिसमें जितना ऊँचा और प्रखर बोध होता है उसी का व्यक्तित्व अनुशासन की पुष्ट भित्ति पर खड़ा होता है।

जनता ग़रीबी से उबरने का रास्ता पूछती है, सरकार उसके हाथ में 'निरोध' का पैकेट थमा देती है।

आदमी में जब तक हया रहती है, वह अपनी संकीर्णता के अनुसार आचरण करने में हिचकता है।

पापविद्ध बयार संवेदना का संहार करने पर आमादा है।

कर्मकाण्ड मनुष्य की लोकयात्रा में अवरोध उत्पन्न करते हैं तब, जब जड़ शैली में मनुष्य उसे ढोने लगता है। मनुष्य पर कर्मकाँड हावी हो जाता है और मानवीय संवेदना उसक नीचे दब जाती है।

आधुनिकतावादियों के उस हठ का इलाज़ नहीं है कि कोई पुरा-व्यवस्था और प्रकृति-उल्लास उन्हें कहीं से स्पर्श नहीं करता।

ब्रज के हवा-पानी में ही वह रस है जो घूँघट का पट विदीर्ण कर देता है।

निहायत वैयक्तिक प्रयोजन से ही पीड़ित रहने वाले की उदासी रचनात्मक ऊर्जा को निरंतर चबाती रहती है।

अपनी असमर्थता से आदमी लजाए या दम्भ के मारे छाती उतान किए रहे, अपनी कमज़ोरी को लाख तिकड़म करके भी छिपा नहीं पाता।

कूपमण्डूकता को भारत के विवेक ने कभी प्रोत्साहन नहीं दिया।

साधन को जब साध्य समझने की भूल की गयी तब साध्य तो दूरस्थ हो ही गया, साधन की भी महत्ता घट गई।

अपने तात्कालिक सुख के लिए अपने मूल राग को छोड़ने की निर्लज्जता आदमी में ही दिखाई पड़ती है।

आधुनिकता यदि धरती की धूल से विलग करती हो, आत्मलीन बनाती हो, उसके स्पर्श से यदि आदमी समाज के साथ हँसना-रोना भूल जाता हो तो मुझे नहीं चाहिए आधुनिकता की ऐसी दुम।

किसी ज़माने में 'अलख' की साधना करने वाले का ज़ोर था, लोक-मन पर 'मसान' जगानेवालों की धाक थी। आज बेहया की धुँई रमाने वाले और अविरोध की साधना करने वाले को लोग अधिक पसंद करने लगे हैं।

आज की भौतिक उपलब्धि यदि मनुष्य को सुख नहीं दे पा रही है, तो सोचना और सन्धान करना जरूरी है कि कहीं हमारा कर्मकाँड प्रदूषित तो नहीं हो रहा है या कि हम सजातीय धरातल से च्युत तो नहीं हो गए हैं?

फगुनी हवा का परस लोक को उत्तेजना देता है और सभ्यता का ओढ़ना लोग उतार फेंकते हैं।

भाव-संपदा की उपलब्धि ही शायद भूमा का सुख है।

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