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शहर पर कविताएँ

शहर आधुनिक जीवन की आस्थाओं

के केंद्र बन गए हैं, जिनसे आबादी की उम्मीदें बढ़ती ही जा रही हैं। इस चयन में शामिल कविताओं में शहर की आवाजाही कभी स्वप्न और स्मृति तो कभी मोहभंग के रूप में दर्ज हुई है।

बनारस

केदारनाथ सिंह

सफ़ेद रात

आलोकधन्वा

ट्राम में एक याद

ज्ञानेंद्रपति

शहर

अंजुम शर्मा

ज़रूर जाऊँगा कलकत्ता

जितेंद्र श्रीवास्तव

महानगर में कवि

केदारनाथ सिंह

शहर फिर से

मंगलेश डबराल

आदमी का गाँव

आदर्श भूषण

अजनबी शहर में

संजय कुंदन

महानगर में प्यार की जगह

घनश्याम कुमार देवांश

उसी शहर में

ध्रुव शुक्ल

इलाहाबाद

संदीप तिवारी

भटक रही है आग भयानक

ओसिप मंदेलश्ताम

गाँव में सड़क

महेश चंद्र पुनेठा

बहुत बुरे हैं मर गए लोग

चंडीदत्त शुक्ल

कानपूर

वीरेन डंगवाल

कूफ़ा

सादी यूसुफ़

चौराहा

राजेंद्र धोड़पकर

गुमशुदा

मंगलेश डबराल

तुम्हारा होना

राही डूमरचीर

जड़ें

राजेंद्र धोड़पकर

नदी और नगर

ज्ञानेंद्रपति

उगाए जाते रहे शहर

राही डूमरचीर

संदिग्ध

नवीन सागर

कानपुर

केदारनाथ अग्रवाल

शिमला

अखिलेश सिंह

वापसी

यानिस रित्सोस

वर्षा की दुपहर

सेसर वायेखो

सफ़र

निलय उपाध्याय

छाता

प्रेम रंजन अनिमेष

मेट्रो से दुनिया

निखिल आनंद गिरि

एक कम क्रूर शहर की माँग

देवी प्रसाद मिश्र

मेट्रो में रोना

अविनाश मिश्र

शहर की हवा

शाम्भवी तिवारी

दिल्ली के कवि

कृष्ण कल्पित

रोम

एज़रा पाउंड

तुम देखते हो...

अलेक्सांद्र ब्लोक

नदी

जॉन एशबेरी

इक लावारिस सवाल

रमेश क्षितिज

असंभव

ऑलॉदार लास्लोफ़्फ़ी

सफ़ेदी

चेस्लाव मीलोष