श्यामसुंदर दास के उद्धरण
भाषा के बिना काव्य की कल्पना नहीं की जा सकती और न भाव-जगत् के अभिव्यक्ति के अतिरिक्त, भाषा का कोई दूसरा प्रयोजन जान पड़ता है।
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वैज्ञानिक वर्तमान युग बनाते हैं और कवि उनके भूत और भविष्य की आलोचना करते हैं—इसी मार्मिक और चुभने वाली आलोचना को कविता कहते हैं।
मनुष्य-स्वभाव की एक और विशेषता यह है कि वह अपने को प्रकट किए बिना नहीं रह सकता। असभ्य से असभ्य जंगली लोगों से लेकर, संसार के अत्यंत सभ्य लोगों तक में—अपने विचारों और मनोभावों को प्रकट करने की प्रबल इच्छा प्रस्तुत रहती है।
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जो देश अथवा जाति; जितनी अधिक परिष्कृत तथा सभ्य होगी, उसकी कला-कृतियाँ उतनी ही अधिक सुंदर और सुष्ठु होंगी।
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साहित्य की वेगवती सरिता, नियमों की अवहेलना कर स्वछंदतापूर्वक बहने में ही प्रसन्न रहती है।
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उन अनोखे आलोचकों की तो बात ही कहना व्यर्थ है, जो पद्म में प्रकट किए गए शुष्क से शुष्क बुद्धिग्राह्य सिद्धांत को तो काव्य मानते हैं, और शेष सभी प्रकार की साहित्यिक अभिव्यक्तियों को काव्य-बाह्य मानते हैं।
तर्कशास्त्र की विविध प्रणालियाँ और प्रक्रियाएँ, कला की श्रेणी में नहीं आ सकतीं। कला का संबंध नियमों से नहीं है, वह तो रूप की अभिव्यक्ति मात्र है।
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कविता में सत्यता से अभिप्राय उस निष्कपटता से है और उस अंतर्दृष्टि से है; जो हम अपने घावों या मनोवेगों का व्यंजन करने में, उनका हम पर जो प्रभाव पड़ता है, उसे प्रत्यक्ष करने में तथा उनके कारण हममें जो सुख-दु:ख, आशा-निराशा, आश्चर्य-चमत्कार, श्रद्धा-भक्ति आदि के भाव उत्पन्न होते हैं—उनको अभिव्यक्त करने में प्रदर्शित करते हैं।
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जब हम किसी काव्य की आलोचना करते हैं, तब यह जानना चाहते हैं कि कवि अपने मनोभावों को व्यक्त करने में कहाँ तक असमर्थ हुआ हैं।
भारतीय साहित्य और कलाओं के मूल में जो स्थायी भाव माने गए हैं, वे केवल विक्षिप्तों की विवेक भावनाएँ नहीं हैं—उनके साथ ज्ञान-शक्ति का भी समन्वय है।
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किसी पुस्तक को हम साहित्य या काव्य की उपाधि तभी दे सकते हैं; जब जो कुछ उसमें लिखा गया है, वह कला के उद्देश्यों की पूर्ति करता हो।
काव्य-जगत् में आकर प्रत्येक शब्द हमारे उन भावों को जागृत करता है, जो वासना रूप में हममें निहित रहते हैं।
विज्ञान में जो बुद्धि है, दर्शन में जो दृष्टि है—वही कविता में कल्पना है।
कवि अपनी कल्पना के इंगित से सहस्रों वर्षों तक—अमित काल पर्यंत—संसारव्यापी समाज के मन पर शासन करता है।
किसी जाति के काव्य-समूह या साहित्य के अध्ययन से; हम यह जान सकते हैं कि उस जाति या देश का मानसिक जीवन कैसा था, और वह क्रमशः किस प्रकार विकसित हुआ।
कलाओं की जो उपादेयता मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में है, वही समाज के लिए भी है। यदि कवि, गायक तथा दूसरे कलाकार न हुए होते, तो सभ्य मानव-समाज की मानसिक वृत्तियाँ इतनी तीव्र और सुसंस्कृत न हुई होतीं।
किसी प्राकृतिक दृश्य को देखक; कलाकार के हृदय में जो भावना जितनी तीव्रता अथवा स्थायित्व के साथ उदय होगी, वह यदि उतनी ही वास्तविकता (सच्चाई) के साथ उसे व्यक्त करने में समर्थ हो, तो उस अभिव्यक्ति के दर्शक, श्रोता अथवा पाठक समाज की भी उतनी ही तृप्ति हो सकती है।
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नाटक के रस का संबंध अभिनेता-रूपी मध्यस्थ से उतना ही है, जितना काव्य के रस का संबंध उसकी छपी हुई प्रति से है।
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यह मनुष्य की शक्ति के अंतर्गत है कि वह केवल भिन्न-भिन्न प्राकृतिक चित्रों को ग्रहण कर उनका उद्घाटन ही न करें, वरन् उनके संबंध में अपना मत, सिद्धांत अथवा नियम भी प्रकट करें।
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मनुष्य की भावनाओं का जहाँ तक विस्तार है, वह सब कला का विषय है और यह तो विदित ही है कि मानव-भावनाओं का विस्तार—विराट् और प्रायः सीमा रहित है।
जब रूपक-काव्य; अभिनय द्वारा अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं, तब हमें यह मानना चाहिए कि काव्य अपने प्रकृत क्षेत्र से बाहर जाकर—दूसरे उपकरणों को उधार ले रहा है।
कवि जितना बड़ा होगा, वह उतना ही गंभीर विचार करने वाला तत्त्वज्ञ या दार्शनिक होगा।
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अपनी आदिम अवस्था में मनुष्य की इच्छा-शक्ति के साथ लोकहित का संबंध चाहे न रहा हो, पर समाज की सभ्यता की वृद्धि होने पर तो उसकी इच्छाएँ लोक-मंगल की ओर अवश्य उन्मुख हुईं।
संगीत और काव्य का सम्मिलित स्वरूप कलाओं के लिए हितकर अवश्य हुआ है, किंतु उसका सीमा से अधिक आग्रह करने से उससे हानि भी हुई है।
यदि कलाएँ मनुष्य के अंत:करण का सच्चा प्रतिबिंब है, तो अवश्य ही वे सत् की ओर प्रवृत होंगी।
प्रत्येक कलाकार अपनी रूचि अथवा शक्ति के अनुसार, सत तथा असत की धारणाएँ रखता है। जिन्हें वह अपनी कलाकृति में प्रकट करना चाहे तो प्रकट कर सकता है, पर इसके लिए वह बाध्य नहीं है।
इस संसार में जो कुछ हम ज्ञान हम प्राप्त करते हैं, वह भावों ही के द्वारा होता है।
दिव्य-दृष्टि-संपन्न कवि तुलसीदास ने ‘भावभेद रसभेद अपारा’ कहकर, रामायण के आरंभ में ही काव्य की वास्तविकता की दिशा इंगित की है।
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जब कवि अथवा कलाकार के हृदय में उसकी भावना स्पष्ट नहीं हो पाती, अनुभूति की कमी रहती है—तब भी वह अपनी शब्दशक्ति अथवा कारीगरी से काव्य अथवा कलावस्तु का निर्माण कर डालता है, परंतु इससे उसकी असफलता प्रकट हो जाती है।
प्रतिभाशाली ग्रंथकार या कवि; अपने काल, जाति और स्थिति की प्रकृति द्वारा निर्मित ही नहीं होता, वह उसका निर्माण भी करता है। वह केवल उनसे प्रभावान्वित होने वाला ही नहीं, उन पर प्रभाव डालने वाला भी है।
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ऐतिहासिक दृष्टि से रस सर्वप्रथम अभिनय के संबंध में ही माना गया था और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में पहले-पहल इसका निरूपण हुआ था।
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काव्य के सत्य से हमारा अभिप्राय यह होता है कि काव्य में उन्हीं बातों का वर्णन नहीं होना चाहिए और न होता ही है, जो वास्तविक सत्यता की कसौटी पर कसी जा सकती हैं, वरन् उनका भी वर्णन होता है और हो सकता है—जो सत्य हो सकती हैं।
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मनुष्य केवल कलाकार ही नहीं होता, वह दार्शनिक भी होता है।
ऐतिहासिक चरित्र-चित्रण में यद्यपि कल्पना का पुट किसी-न-किसी मात्रा में रहता है, पर कलाओं की भाँति इतिहास में कल्पना की अबाध गति नहीं पाई जाती।
भारतीय काव्य-विवेचन में कविता और कला का अधिकांश विवेचन—रस का आधार लेकर किया गया है।
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भाव या मानसिक चित्र ही वह सामग्री है, जिसके द्वारा काव्य-कला विशारद दूसरे के मन से अपना संबंध स्थापित करता है।
चयन और सुसज्जित—प्रत्येक काव्य की प्राथमिक विशेषताएँ हैं।
काव्य की भूमि मानव-कल्पना की भूमि है।
जब मानव-मन किसी रागमयी कल्पना से उद्वेलित होकर अभिव्यक्त हो उठता है, तब वह अभिव्यक्ति प्रायः गीतरूप में होती है। जब उक्त उद्वेलन चित्त की किसी महान् तथा स्थायी प्रेरणा से उत्पन्न होता है, अथवा बाह्य संसार की कोई उदात्त घटना इसका कारण होती है—तब महाकाव्य का उद्गमन होता है।
लौकिक आनंद इसी लोक में—हमारे इसी स्थूल शरीर और इंद्रियों के लोक में—मिलता है, पर अलौकिक आनंद सूक्ष्म मानस-लोक में और कभी-कभी उससे भी ऊपर उठने पर प्राप्त होता है।
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जिस प्रकार चेतन मनुष्य पर बाह्य सृष्टि की विविध वस्तुओं की छाप पड़ती है, उसी प्रकार उसमें अनेक भिन्न-भिन्न प्रभावों को अभिव्यक्त करने की शक्ति का भी उन्मेष होता है।
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यह मानना ही पड़ेगा कि संसार में रूचि-वैचित्र्य भी कोई वस्तु है, और इसे मान लेने पर यह कहना असंभव हो जाएगा कि सभी बड़े-बड़े कवियों से हमारी सहानुभूति होनी चाहिए।
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साहित्य का उद्देश्य केवल मनुष्य के मस्तिष्क को संतुष्ट करना नहीं है, वह तो मनुष्य-जीवन को अधिक सुखी और सुंदर बनाने की चेष्टा करता है।
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प्रसिद्ध कलाशास्त्री क्रोचे का कथन है कि न तो कलाशास्त्र की दृष्टि से, और ना दार्शनिक दृष्टि से कलाओं का श्रेणी विभाग किया जा सकता है।
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मनुष्य की ज्ञान-शक्ति उसकी भावनाओं को चैतन्य बनाती, और उसकी इच्छा-शक्ति उन भावनाओं को शृंखलित तथा संयमित रखती है।
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जिस काल में जो गुण या विशेषत्व प्रबल रहता है, वही उस काल की प्रकृति या भाव कहलाता है।
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सच्चा प्रतिभाशाली लेखक पुराने से पुराने पिष्टपोषित विषय को भी, इस ढंग से अपने पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर सकता है कि उममें नवीनता और मौलिकता झलकने लगती है।
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