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श्यामसुंदर दास

1875 - 1945 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

समादृत आलोचक, भाषा विज्ञानी, संपादक और निबंधकार। ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ और ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के संस्थापक।

समादृत आलोचक, भाषा विज्ञानी, संपादक और निबंधकार। ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ और ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के संस्थापक।

श्यामसुंदर दास के उद्धरण

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वैज्ञानिक वर्तमान युग बनाते हैं और कवि उनके भूत और भविष्य की आलोचना करते हैं—इसी मार्मिक और चुभने वाली आलोचना को कविता कहते हैं।

भावों की अभिव्यक्ति की शैली ही कविता और कलाओं का रूप धारण करती है।

कवि अपनी कल्पना के इंगित से सहस्रों वर्षों तक—अमित काल पर्यंत—संसारव्यापी समाज के मन पर शासन करता है।

विज्ञान में जो बुद्धि है, दर्शन में जो दृष्टि है—वही कविता में कल्पना है।

कविता में सत्यता से अभिप्राय उस निष्कपटता से है और उस अंतर्दृष्टि से है; जो हम अपने घावों या मनोवेगों का व्यंजन करने में, उनका हम पर जो प्रभाव पड़ता है, उसे प्रत्यक्ष करने में तथा उनके कारण हममें जो सुख-दु:ख, आशा-निराशा, आश्चर्य-चमत्कार, श्रद्धा-भक्ति आदि के भाव उत्पन्न होते हैं—उनको अभिव्यक्त करने में प्रदर्शित करते हैं।

नाटक के रस का संबंध अभिनेता-रूपी मध्यस्थ से उतना ही है, जितना काव्य के रस का संबंध उसकी छपी हुई प्रति से है।

कवि जितना बड़ा होगा, वह उतना ही गंभीर विचार करने वाला तत्त्वज्ञ या दार्शनिक होगा।

संगीत और काव्य का सम्मिलित स्वरूप कलाओं के लिए हितकर अवश्य हुआ है, किंतु उसका सीमा से अधिक आग्रह करने से उससे हानि भी हुई है।

ऐतिहासिक दृष्टि से रस सर्वप्रथम अभिनय के संबंध में ही माना गया था और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में पहले-पहल इसका निरूपण हुआ था।

काव्य की भूमि मानव-कल्पना की भूमि है।

भारतीय काव्य-विवेचन में कविता और कला का अधिकांश विवेचन—रस का आधार लेकर किया गया है।

यह मानना ही पड़ेगा कि संसार में रूचि-वैचित्र्य भी कोई वस्तु है, और इसे मान लेने पर यह कहना असंभव हो जाएगा कि सभी बड़े-बड़े कवियों से हमारी सहानुभूति होनी चाहिए।

जिस प्रकार मनुष्य से उसके विचार अलग नहीं हो सकते, उसी प्रकार विचारों को व्यक्त करने का ढंग भी उनसे अलग नहीं हो सकता।

काव्य के गुण और अन्य सुंदर विशेषताएँ, उस रस का उत्कर्ष करती हैं और उसके दोष (स्खलन) उसका अपकर्ष करते हैं।

भाषा की लक्षणा, व्यंजना आदि शक्तियों को उद्बुद्ध और पुष्ट करके उन भावों को रसमय बना देना—यह साहित्य के कला-पक्ष का काम है।

जैसे-जैसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता गया, गद्य का प्रयोग भी बढ़ता गया।

भाषा का प्रयोग तो सभी लोग करते हैं, पर प्रतिभावान की भाषा कुछ निराले ढंग की ही होती है।

कविता कल्पनाओं और मनोवेगों के रूप में जीवन की व्याख्या है; तो उसका महत्त्व उस शक्ति का महत्त्व है, जो वह जीवन के महत्त्वपूर्ण और स्थायी विषयों के वर्णन में—ऐसी वस्तुओं के वर्णन में, जिनका संबंध हमारे विशेष अनुभव और अनुराग-विराग से होता है—प्रदर्शित करती है।

कविता की कला अधिक सूक्ष्म और मोहिनी है।

वर्तमान काल में अधिकांश काव्य-साहित्य गद्य में प्रकाशित हो रहा है और यह आशा करना अनुचित होगा कि भविष्य में गद्य का ही अधिकाधिक प्रयोग किया जाएगा।

बिना भाषा के भाव नहीं रह सकता।

कुछ विद्वान भी, जो दार्शनिक रुचि के होते हैं अथवा जो मस्तिष्क की प्रबल शक्ति लेकर उत्पन्न होते हैं—पद्य के विपक्ष में गद्य को अधिक आदर देते हैं।

किसी कवि की कृति को अच्छी तरह समझने के लिए यदि उस कवि के प्रति श्रद्धा नहीं, तो कम-से-कम सहानुभूति तो अवश्य ही होनी चाहिए। बिना श्रद्धा के कवि के अंतस्तल या आत्मा तक पहुँचकर, उससे अवगत होने और उसके गुण-दोष जानने में मनुष्य समर्थ नहीं हो सकता।

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