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आधुनिक युग के अत्यंत लोकप्रिय, प्रभावशाली और विवादास्पद विचारक।

आधुनिक युग के अत्यंत लोकप्रिय, प्रभावशाली और विवादास्पद विचारक।

ओशो के उद्धरण

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तुम्हारे पास क्या है; उससे नहीं, वरन् तुम क्या हो उससे ही तुम्हारी पहचान है।

शांति को चाहो। लेकिन ध्यान रहे कि उसे तुम अपने ही भीतर नहीं पाते हो, तो कहीं भी नहीं पा सकोगे। शांति कोई बाह्य वस्तु नहीं है।

आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं है। वह संकल्प भी है। क्योंकि जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या होना बराबर ही है।

धर्म भय से ऊपर उठने का उपाय है; क्योंकि धर्म जीवन को जोड़ने वाला सेतु है।

अस्पर्श में प्रतिष्ठित हो जाने का नाम ही संयम है। और, संयम सत्य का द्वार है।

जब किसी की निंदा का विचार मन में उठे तो जानना कि तुम भी उसी ज्वर से ग्रस्त हो रहे हो। स्वस्थ व्यक्ति कभी किसी की निंदा में संलग्न नहीं होता।

शरीर एक बदलता हुआ प्रवाह है और मन भी। उन्हें जो किनारे समझ लेते है, वे डूब जाते है।

श्री अरविंद का वचन है: ‘सम होना या'नी अनंत हो जाना।’ असम होना ही क्षुद्र होना है और सम होते ही विराट को पाने का अधिकार मिल जाता है।

ज्ञान का कोई पक्ष नहीं है। सभी पक्ष अज्ञान के है। ज्ञान तो निष्पक्ष है।

जीवन-पथ पर चलने में जो असमर्थ हैं, वे राह के किनारे खड़े हो दूसरों पर पत्थर ही फेंकने लगते हैं।

लोग मुझसे पूछते हैं : योग क्या है? मैं उनसे कहता हूँ : ‘अस्पर्श’ भाव। ऐसे जियों कि जैसे तुम जहाँ हो वहाँ नहीं हो।

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स्मरण रहे कि महत्वाकांक्षा अशांति का मूल है। जिसे शांति चाहनी है, उसे महत्वकांक्षा छोड़ देनी पड़ती है। शांति का प्रारंभ वहाँ से है, जहाँ कि महत्वाकांक्षा का अंत होता है।

जीवन की समस्तता और समग्रता के प्रति स्वीकार का पा लेने का नाम ही सम भाव है।

अपने अंतरतम की गहराइयों में इस प्रश्न को गूँजने दो: 'मैं कौन हूँ?' जब प्राणों की पूरी शक्ति से कोई पूछता है, तो उसे अवश्य ही उत्तर उपलब्ध होता है।

शरीर तट है, मन है। उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, द्रष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है। जो अपनी नौका की उस तट से बाँधते है, वे अमृत को उपलब्ध होते है।

विचारों को छोड़ों और निर्विचार हो रहो, पक्षों को छोड़ो और निष्पक्ष हो जाओ—क्योंकि इसी भाँति

वह प्रकाश उपलब्ध होता है, जो कि सत्य को उद्घाटित करता है।’’

भय ही अधर्म है; क्योंकि जीवन को जानने के अतिरिक्त और क्या अधर्म हो सकता है?

ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

भीतर इतनी गहराई हो कि कोई तुम्हारी थाह ले सके। अथाह जिनकी गहराई है, अगोचर उनकी ऊँचाई हो जाती है।

मनुष्य प्रभु को पाने का मार्ग है, और जो मंज़िल को छोड़ मार्ग से ही संतुष्ट हो जावें, उनके दुर्भाग्य को क्या कहें?

सत्य की आकांक्षा है तो स्वयं को छोड़ दो।

जिसके चित्त में ‘नहीं’ है, वह समग्र से एक नहीं हो पाता है। सर्व के प्रति ‘हाँ’ अनुभव करना जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है क्योंकि वह ‘स्व’ को मिटाती है और ‘स्वयं’ से मिलाती है।

मैं कौन हूँ? जो स्वयं इन प्रश्न को नहीं पूछता है, ज्ञान के द्वार उसके लिए बंद ही रह जाते हैं।

‘मैं’ को भूल जाना और ‘मैं’ से ऊपर उठ जाना सबसे बड़ी कला है।

जन्म का अंत है, जीवन का नहीं। और मृत्यु का प्रारंभ है, जीवन का नहीं। जीवन तो उन दोनों से पार है। जो उसे नहीं जानते हैं, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं हैं। और जो उसे जान लेते हैं, वे मर कर भी नहीं मरते।

स्वयं के भीतर जो है, उसे जानने से ही जीवन मिलता है। जो उसे नहीं जानता वह प्रतिक्षण मृत्यु से और मृत्यु भय से ही घिरा रहता है।

जो स्वयं की मृत्यु को जान लेता है, उसकी दृष्टि संसार से हटकर सत्य पर केंद्रित हो जाती है।

जीवन का अज्ञान ही मृत्यु का भय है।

जो ऐसे जीता है कि जैसे मृत है, वह जीवन में भी सारभूत है, उसे अवश्य ही जान लेता है।

जीवन क्या है? जीवन के रहस्य में प्रवेश करो। मात्र जी लेने से जीवन चुक जाता है, लेकिन ज्ञात नहीं होता।

पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुतः तो वे हमारे अंतःकरण के सोये होने या जागे होने की सूचनाएँ हैं।

शरीर से बीमार ही नहीं, मन से बीमार भी दया के पात्र है।

स्वयं को खोकर कुछ करो, तो उससे ही स्वयं को पाने का मार्ग मिल जाता है।

जन्म का अंत है, जीवन का नहीं। और मृत्यु का प्रारंभ है, जीवन का नहीं। जीवन तो उन दोनों से पार है जो उसे नहीं जानते है, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं है। और जो उसे जान लेते हैं वे मर कर भी नहीं मरते।

अहंकार एकमात्र जटिलता है। जिन्हें सरल होना है, उन्हें इस सत्य को अनुभव करना होगा।

कुछ पाने की और कुछ होने की आकांक्षा ही दु:ख है। दु:ख कोई नहीं चाहता, लेकिन आकांक्षाएँ हों तो दु:ख बना ही रहेगा।

मनुष्य को प्रतिक्षण और प्रतिपल स्वयं को नया कर लेना होता है। उसे अपने को ही जन्म देना होता है। स्वयं के सतत् जन्म की इस कला को जो नहीं जानते हैं, वे जानें कि वे कभी के ही मर चुके हैं।

आदर्श अंधकार से सूर्य की ओर उठने की आकांक्षा है। जो उस आकांक्षा से पीड़ित नहीं होता है, वह अंधकार में ही पड़ा रह जाता है।

संदेह स्वस्थ चिंतन का लक्षण है और उसके सम्यक् अनुगमन से ही सत्य के ऊपर पड़े पर्दे क्रमशः गिरते जाते हैं और एक क्षण सत्य का दर्शन होता है।

हृदय की इच्छाएँ कुछ भी पाकर शांत नहीं होती है क्यों? क्योंकि हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है।

मृत्यु से भयभीत केवल वे ही होते है जो कि जीवन को नहीं जानते। मृत्यु का भय जिसका चला गया हो, जानना कि वह जीवन से परिचित हुआ है। मृत्यु के समय ही ज्ञात होता है कि व्यक्ति जीवन को जानता था या नहीं?

सत्य को जानना है तो सिद्धांतों को नहीं, प्रकाश को खोजना आवश्यक है।

प्रौढ़ता कल्पनामुक्त दर्शन से ही उपलब्ध होती है।

जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है।

जीवन का वास्तविक परिचय स्वयं में प्रतिष्ठित होकर ही मिलता है, क्योंकि उस बिंदु के बाहर जो परिधि है, वह मृत्यु से निर्मित है।

जीवन उतना ही ऊँचा हो जाता है, जितना कि गहरा हो।

आदर्श संकल्प मात्र भी नहीं है, वरन् उसके लिए सतत् श्रम भी है, क्योंकि सतत् श्रम के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता है।

अंतस् के संगीत पूर्ण हो उठने का नाम हो शांति है।

शरीर को ही जो स्वयं का होना मान लेता है, मृत्यु उसे ही भयभीत करती है।

क्षुद्रतम में भी विराट के संदेश छुपे है। जो उन्हें उघाड़ना जानता है वह ज्ञान को उपलब्ध होता है। जीवन में सजग होकर चलने से प्रत्येक अनुभव प्रज्ञा बन जाता है और जो मूच्छित बने रहते है, वे द्वार आए आलोक को भी वापिस लौटा देते हैं।

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हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

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