ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढ़ेगा त्यों-त्यों हम समझते जाएँगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे बैरभाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं, हम उस पर ज़बरदस्ती न करें।
ज्यों-ज्यों मनुष्य उम्र में बढ़ता है; जिज्ञासा पर न केवल आग्रहों और दुराग्रहों के पुंज लदते-चलते हैं, वरन् स्वयं जिज्ञासा भी (शतधा) होती चलती है।
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कुछ लोग वृद्धावस्था को गिरना मानते हैं, लेकिन मैं वैसा नहीं मानता। वृद्धावस्था पका हुआ फल है।
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जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ी, मुझ पर कामू (एल्बर्ट कामू) के ‘द मिथ ऑफ़ सिसीफ़स’ के एक प्रेरणादायक उद्धरण का प्रभाव पड़ने लगा- ‘बंधनों में जकड़े हुए जीवन से दो-दो हाथ करने के लिए इतना बंधनमुक्त हो जाओ कि अपना पूरा अस्तित्व ही विद्रोही साबित हो जाए’।
भक्ति रस का पूर्ण परिपाक जैसा तुलसीदास जी में देखा जाता है, वैसा अन्यत्र नहीं।