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प्रेत के पत्र

 

तुम्हारे जाने के सोलह दिन बाद...

डियर जिता,

हम कुछ भी हो सकते थे। हम स्कूल से साथ निकलकर अपने-अपने घर जाते हुए थोड़ा-सा बचे रह सकते थे—एक दूसरे के पास! हम उस पहले झगड़े के शब्द बन सकते थे जो हमारे बीच कभी नहीं हुआ। हमारे बीच जो हुआ वो झगड़ा आख़िरी था। हम एक दूसरे को देखते हुए सीख सकते थे अंतर करना—इस दुनिया और अपनी दुनिया में!

हम बात करते हुए आवाज़ हो सकते थे एक दूसरे की, और हो सकते थे हम वृत्त की परिधि कुश्वाहा सर की क्लास में! हम एक साथ हिंदी की उपमा और रूपक हो सकते थे, हम बदल सकते थे—प्रेम-कहानियों का अंत! हम एक दूसरे से बेबाक हो सकते थे, प्रेम का इज़हार करते हुए। हम बन सकते थे लोगों के उपहास के पात्र भी, और हम बद-तमीज़, बेग़ैरत और उद्दंड भी हो सकते थे।

लेकिन इन सबके होने में जो ज़रूरी था, वो था तुम्हारा और मेरा—हम होना। मगर हमारी कहानी में मेरे हिस्से का कुछ न कुछ छूटता रहा। मैं नहीं बन पाया शब्द हमारे पहले या आख़िरी झगड़े का, न ही कर पाया अंतर इस दुनिया और अपनी दुनिया में, मैं अक्षम था वृत्त की परिधि बन पाने में भी। मैं न उपमा हो सका, न हुआ कोई अन्य अलंकार ही! मैं इस कहानी को प्रेम की संज्ञा भी न दे पाया और न हो सका बेबाक कि करता इज़हार, बनता उपहास का पात्र और हो जाता थोड़ा-सा बद-तमीज़, बेग़ैरत और उद्दंड। हम कुछ भी हो सकते थे जिता, पर मुझे अफ़सोस है कि ‘मैं’ खा गया ‘हम’ को!

तुम्हारा प्रेत

~

तुम्हारे जाने के पैंतालीस दिन बाद...

डियर जिता,

आज पुरानी तस्वीरों को उलट-पुलट रहा था। हमारी उन तस्वीरों में कितना ठहराव है! हम वहाँ कितनी सारी बातें, कितने सारे लम्हे यूँ जी रहे हैं, जैसे तुम्हारे पास सारे ब्रह्मांड से चुराकर लाया गया तमाम समय है... और मैं अनेकों अनेक ब्रह्मांड बनते-बिखरते देख सकता हूँ, और तुम जो कि तमाम सदियों की व्यस्तताओं को लिए जैसे समय से भी तेज़ चलना चाहती हो, वहाँ उन तस्वीरों में मेरे साथ समय को गुज़रते देख रही हो, मुस्कुरा रही हो, मैं कि उस मिराज को सच मानकर उसकी माया में खोया, एकटक बस तुम्हें ठहरे हुए देख रहा हूँ। लेकिन फिर मैं वापस अपने कमरे में होता हूँ, जहाँ तुम नहीं हो—बस कुछ समय-यात्राएँ हैं। तुम्हारा आना यूँ हुआ था जिता कि जैसे इतवार की शाम का आना हो। बिना किसी शोर-शराबे के इतने आहिस्ता आई थीं तुम कि कब आईं और यहीं मेरे अंदर कहीं ठहर कर चली भी गईं।

इससे पहले मैं कुछ समझ पाता, दिल को दिलासा दे पाता कि ये है, या ये, कि नहीं कोई नहीं है, तुम मेरे हर ज़र्रे से गुज़र गई थीं, या गुज़रते हुए ठहर गई थीं। लेकिन तुम तो थीं ही नहीं, जैसे इतवार की शाम! एक पल को एहसास होता है कि, ‘है’ और अगले ही पल भरम टूट जाता है। लेकिन जिता वो एक पल में बँटा हुआ पूरा जीवन मेरी आँखों के सामने तैर जाता है।

तुम्हारे शहर की वो नदी जैसे मेरी आँखों मे उतर आती है। आत्मा वहीं पानी में कहीं डोल रही है मेरी, वहाँ गंगा-आरती की धुन पर ख़ुद को विमुक्त कर रही है। गंगा जी में ख़ुद के अस्तित्व को न्योछावर कर रही है, और उनसे कुछ माँग रही है। टपरी पे बैठ चाय पी रही है, गोबर में पैर सान रही है। पानी में खिलखिलाती तुम्हारी आवाज़ जो वहीं कहीं रह गई है, उसके पीछे-पीछे भाग रही है। मेरी आत्मा जो अब पूरी-पूरी मेरी नहीं है, उसका एक हिस्सा अब वहीं रहेगा, क्योंकि नदियों के उस शहर में अब ढेर सारी प्यारी यादों का ज़ख़ीरा होगा और ऐसे अनमोल ज़ख़ीरे को अकेले तो नहीं छोड़ा जा सकता जिता!

तुम्हारा प्रेत

~

तुम्हारे जाने के दो महीने पंद्रह दिन बाद...

डियर जिता,

आज एक तस्वीर पर नज़र पड़ी। चार साल पहले आज ही के दिन की यह तस्वीर, यह जगह, यहाँ की धूप, ये पेड़, इनके फूल, हरेक चीज़ जो इस तस्वीर में नज़र आ रही है, और वे सब जो इस तस्वीर में क़ैद होते-होते रह गईं। जिता, इस तस्वीर में हम अकेले नहीं हैं, बहुत सारे लोग हैं जो मुस्करा रहे हैं। कई लोग कुछ समय बाद अपने नए रास्तों को चुन आगे बढ़ जाने वाले थे, तुम्हारी तरह। कई नए लोग आगे जुड़ने वाले थे, वैसे जैसे तुम आई थीं।

इस तस्वीर से भी बहुत-बहुत पहले, शायद दुनिया के अस्तित्व से भी पहले मिले थे हम-तुम। पर तुमको वो याद नहीं होगा। तुमको हमेशा लगता रहा कि हम देर से मिले। मैंने तुमसे इस बात पर कभी बहस नहीं की, कर नहीं पाया। किसे पता था कि यहाँ इस तस्वीर में दिखाई देता हँसता-मुस्कुराता ये किरदार आगे कितनी कहानियों का हिस्सा बनने वाला है। शायद उस जगह में ही जादू था, ऐसा कि आप उदास रह ही नहीं सकते।

पिछले साल अक्टूबर में एक नया रास्ता चुन ये किरदार भी नई कहानी की ओर बढ़ गया। मुश्किल रहा होगा शायद! या शायद नहीं, क्योंकि कहीं पहुँचने के लिए कहीं से निकलते वक़्त हम दरअस्ल पूरे निकल नहीं पाते, अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ जाते हैं। और जहाँ पहुँचते हैं वहाँ एक नए रूप में पहुँचते हैं। अपने पूरे जीवन में हम न जाने कितने हिस्सों में अलग होते हैं, कितनी जगहों पर रुक जाते हैं। वहीं एक छोटा-सा टाइम लूप बनाकर रोज़ घटित होते हैं। और यह एक सुकूनदेह बात है जिता! मेरे उस समय को कोई मुझसे छीन नहीं सकता, तुम भी नहीं। मैं समय के उस चक्र में अपना एक घर बना चुका हूँ, जहाँ तुम हमेशा मेरे पास रहोगी, और मैं तुम्हारे पास।

उस टाइम लूप में घटित होने वाली दुनिया उतनी ही सच है, जितनी तुम्हारी वो बातें जो तुमने हमारी आख़िरी मुलाकात में कही थीं। “मैं जा रही हूँ...”—तुमने कहा था। मेरी तरफ़ ग़ौर से देखकर और फिर एक प्रश्न : ‘‘तुमको कुछ नहीं कहना?’’ लेकिन वो तुम्हारी आख़िरी मुलाक़ात थी, मैंने तो अपना जवाब अपनी आख़िरी मुलाक़ात तक के लिए बचाकर रख लिया था। आज जब कभी दुबारा पलटकर उस टाइम लूप में घटित होते हुए उन सब पलों को देखता हूँ तो दुनिया उतनी बुरी नहीं लगती। समय पर ग़ुस्सा थोड़ा कम हो जाता है।

तुम्हारे पिछले पत्र में तुमने बताया था, तुम्हारी धरती पर ठंड बढ़ गई है। लोग अच्छे और ख़ुश हैं और तुम भी। लेकिन मुझे तुमको बताना था कि मेरी धरती के लोग बीमार हो रहे हैं, अजीब बीमारी से! यहाँ के लोगों में उमस भर गई है। मुझे पता है कि तुम्हें उमस से भरे लोग पसंद नहीं हैं, तुम वहीं रहना। बता दूँ कि अब यहाँ के लोग वसंत से डरते हैं। हाँ, हाँ वही वसंत जिसमें तुम आकाश की ओर देखा करती थीं और मैं तुम्हें।

तुम्हारा प्रेत

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तुम्हारे जाने के तीन महीने दस दिन बाद...

तुम्हारे पीछे भागते भागते मैं समय मे पीछे लौटता जा रहा हूँ। तुम्हारे बचपन का चेहरा मेरे बुढ़ापे के चेहरे से मेल खाने लगा है जिता! और इस तरह, मेरे जीवन का अंत और तुम्हारा जन्म एक साथ होगा...

~

तुम्हारे जाने के छह महीने बाद...

यह महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं था प्रयोजिता कि तुम्हारी कही हुई सारी बातें अक्षरशः सच होती जा रही थीं, जैसे तुम्हारा यह कहना :

‘‘देख लेना तुम्हारी ये आदतें एक दिन तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेंगी!’’
“न कभी किसी से सीधे मुँह बात करनी होती है तुम्हें। न कभी मुझसे ही दो पल बैठकर हाल-चाल लिया जाता है!”
“न आने का पता है, न जाने का!”
‘‘कोई काम ढंग का नहीं है तुम्हारा, मैं तंग आ गई हूँ तुमसे! और मैं अब अपने ही घर में ग़ैर की तरह नहीं रह सकती।’’

आज से छह महीने पहले अक्टूबर की रात; जब तुमने यह कहा तो नशे की हालत में भी, मैं तुम्हारे शब्दों को ध्यान देकर सुन रहा था। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई थी। मैं मेन हॉल में सोफ़े पर बैठा था। जब तुमने मेरी तरफ़ देखा और कहा : ‘‘जा रही हूँ...’’ और फिर वो आख़िरी आवाज़ आई, दरवाज़ा बंद होने की। उस वक़्त मैं तुमसे कहना चाहता था कि नहीं जिता, ऐसा नहीं है कि मैं तुमसे प्यार नहीं करता या तुमसे बात नहीं करना चाहता या फिर तुम्हें बताना नहीं चाहता कि मैं कल रात या आज की रात इतनी देर तक शराबख़ाने में सिर्फ़ इसलिए था, क्योंकि हमारी शादी के दूसरे ही महीने में मेरी जॉब छूट गई और उसके बाद कितनी ही छोटी-बड़ी नौकरियाँ मिलीं और छूटीं; लेकिन एक भी ठीक-सी नौकरी जिसमें मैं हमारा खर्च चला सकूँ, दुबारा नहीं मिली और शादी के बाद के इन दो सालों में मैं क़र्ज़ के समंदर में डूबे उस ज़ंग लगे जहाज़ जैसा हो गया हूँ; जहाँ सिर्फ अँधेरे समंदर के जीव ही मिल सकते हैं—तुम्हारे जैसी जलपरी नहीं। बस मैं बता नहीं पाया। न तुमको, न और किसी को, कि मैं बस उम्मीद की वो किरण बनकर रह गया हूँ जिसको आत्महत्या से ठीक पहले कोई भी शख़्स छोड़ देता है और जिसके बाद उस किरण का कोई अस्तित्व नहीं रहता। मेरा भी नहीं रहा तुम्हारे जाने के बाद।

उस रोज़ तुम्हारे जाने पर मैं बैचैन हो उठा था, क्योंकि आज तक किसी के भी जाने पर मुझे ‘आता हूँ’ सुनने की आदत हो गई थी। तुम भी तो अक्सर यही कहकर जाती थीं, पर जब तुमने कहा : ‘‘जा रही हूँ...’’ वो आख़िरी उम्मीद की किरण छूट गई। तुमने भी दुबारा पलटकर नहीं देखा। तुम्हारे जाने के बाद के पहले पाँच महीने लोगों से छिपने और शराब में ख़र्च हुए। और यह आख़िरी का महीना ख़ुद को ही हॉल में गिरा हुआ देखते।

आज जब पूरे छह महीने बाद तुम वापस आकर मेरी लाश पर रो रही हो। ये रिश्तेदार और पुलिस वाले जानने-समझने की कोशिश कर रहे हैं—मेरी मौत का कारण! और मैं यहाँ तुम्हारे सामने होकर भी तुम्हारे सामने नहीं हूँ। आज जब मैं सब कुछ बता सकता हूँ, पर कोई सुन नहीं सकता तो तुम्हारी कही बात याद आ रही है और ये महज इत्तिफ़ाक़ नहीं है प्रयोजिता कि तुम्हारी बात आज अक्षरशः सच हो गई है कि मैं कहीं का नहीं हूँ।

तुम्हारा प्रेत

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