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सुभाष चंद्र बोस

1897 - 1945 | कटक, ओड़िशा

सुभाष चंद्र बोस के उद्धरण

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यदि मातृभूमि के कल्याण के लिए मुझे जीवन भर कारागार में रहना पड़े, तब भी मैं अपना क़दम पीछे नहीं हटाऊँगा।

आज मैं देश से बाहर हूँ, देश से दूर हूँ, परंतु मन सदा वहीं रहता है और इसमें मुझे कितना आनंद अनुभव होता है।

धूमधाम से क्या प्रयोजन? जिनकी हम पूजा करते हैं, उन्हें तो हृदय में स्मरण करना ही पर्याप्त है। जिस पूजा में भक्तिचंदन और प्रेमकुसुम का उपयोग किया जाए, वही पूजा जगत् में सर्वश्रेष्ठ है। आडंबर और भक्ति का क्या साथ?

दुःख सहन किए बिना मनुष्य कभी भी हृदय के आदर्श के साथ अभिन्नता अनुभव नहीं कर सकता और परीक्षा में पड़े बिना मनुष्य कभी भी निश्चित रूप से नहीं बता सकता कि उसके पास कितनी शक्ति है।

जेल में रहते-रहते आत्मनिष्ठ सत्य एक हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो भाव और स्मृति सत्य में परिणत हो गए हैं। मेरा भी ऐसा ही हाल है। भाव ही इस समय मेरे लिए सत्य है। इसका कारण भी स्पष्ट है—एकत्व-बोध में ही शांति है।

भक्ति और प्रेम से मनुष्य निःस्वार्थी बन सकता है। मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है।

जगत् में सब कुछ क्षण-भंगुर है, केवल एक वस्तु नष्ट नहीं होती और वह वस्तु है भाव या आदर्श, हमारे आदर्श ही हमारे समाज की आशा हैं।

काम पर विजय प्राप्त करने का प्रमुख उपाय है सब स्त्रियों को मातृरूप में देखना और स्त्रियों जैसे दुर्गा, काली, भवानी का चिंतन करना। स्त्री-मूर्ति में भगवान या गुरु का चिंतन करने से मनुष्य शनैः शनैः सब स्त्रियों में भगवान के दर्शन करना सीखता है। उस अवस्था में पहुँचने पर मनुष्य निष्काम हो जाता है। इसीलिए महाशक्ति को रूप देते समय हमारे पूर्वजों ने स्त्री मूर्ति की कल्पना की है। व्यावहारिक जीवन में सब स्त्रियों को माँ के रूप में सोचते-सोचते मन शनैः शनैः पवित्र हो जाता है।

प्राकृतिक सौंदर्य के साथ अपने हृदय को एकाकार करना, मन को संयत करके, प्रकृति की भाषा समझने का प्रयास करना, कष्टसाध्य अवश्य है, परंतु सामान्य रूप में यदि कोई यह कर सके तो उसका हृदय आनंद से ओत-प्रोत हो जाएगा।

धर्म और देश के लिए जीवित रहना ही यथार्थ जीवन है।

आशंका यह है कि समाज या देश के जीवन-स्रोतों से अपने आपको दूर हटाकर रखने से मनुष्य पथभ्रष्ट हो सकता है और उसकी प्रतिभा का एकपक्षीय विकास होने के कारण वह समाज से भिन्न अतिमानव के समान और कुछ बन सकता है। दो-चार असाधारण प्रतिभासंपन्न यथार्थ साधकों की बात तो अवश्य ही भिन्न है परंतु अधिकांश लोगों के लिए तो कर्म या लोकहित ही साधना का एक प्रधान अंग है।

आदर्श की प्राप्ति समर्पण की पूर्णता पर निर्भर है।

इस जीवन में हरि का नाम-स्मरण करना ही जीवन की सार्थकता है।

मनुष्य की आत्मा सत्य है, उसका जीवन सत्य है और मनुष्य के साथ मनुष्य का संबंध भी सत्य है। इस जीवन के समाप्त होने पर भी जीवन का अंत नहीं होगा, जीवन के संबंधों का अंत नहीं होगा। पार्थिव शक्ति हमें कारागार में डाल सकती है, हमारा सर्वस्व अपहरण कर सकती है, परंतु जीवन का अंत नहीं कर सकती। जीवन के पवित्र संबंधों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।

हमारे विचार या आदर्श अमर होंगे, हमारे भाव जाति की स्मृति से कभी नहीं मिटेंगे, भविष्य में हमारे वंशधर की हमारी कल्पनाओं के उत्तराधिकारी बनेंगे, इस विश्वास के साथ मैं दीर्घ काल तक समस्त विपदाओं और अत्याचारों को हँसते हुए सहन कर सकूँगा।

हम माँ का स्तनपान करके बड़े होते हैं, इसलिए माँ के उपदेश और शिक्षा जितना प्रभाव डाल सकते हैं, उतना अन्य बातें नहीं।

परंतु कभी-कभी ऐसा लगता है कि जाने यहाँ कितने युगों से हूँ। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह मेरा अपना घर है; कारागार से बाहर की बात तो स्वप्नवत् प्रतीत होती है। ऐसा जान पड़ता है कि इस जगत में यदि कुछ सत्य है तो केवल लोहे की सलाखें, गारद और जेल की पत्थर की दीवारें। वास्तव में यह भी अपने किस्म का एक राज्य है। कभी-कभी सोचता हूँ कि जिसने जेल नहीं देखी, उसने जगत में कुछ नहीं देखा।

उस शिक्षा को धिक्कार है जिसमें ईश्वर का नाम नहीं और उस व्यक्ति का जन्म निरर्थक है जो प्रभु का नाम स्मरण नहीं करता।

मनुष्य जीवन में एक स्थान ऐसा चाहता है जहाँ तर्क, विचार और विवेचना रहे, रहे केवल श्रद्धा। संभवतः इसी कारण माँ का सृजन हुआ होगा।

जिसके पास भगवद्-भक्ति, भगवद्-प्रेम है—वही इस संसार में धनी है। ऐसे व्यक्ति के समक्ष महाराजाधिराज भी दीन भिक्षुक के समान है।

भारतवर्ष भगवान का बहुत ही प्रिय स्थान रहा है।

हमारे भीतर अनन्त शक्ति निहित है। उस शक्ति का बोध करना पड़ेगा। पूजा का उद्देश्य है मन में शक्ति का बोध करना।

भारत में सब कुछ है—प्रचंड गर्मी, प्रबल शीत, अधिक वर्षा, मनोहर शरद् और वसंत।

मनुष्य की जिस प्रकार की भावना होती है, उसी प्रकार की सिद्धि उसे प्राप्त होती है।

पागल बने बिना कोई महान नहीं हो सकता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक पागल व्यक्ति महान होता है।

त्याग और उपलब्धि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

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