
दर्शन तर्क-वितर्क कर सकता है और शिक्षा दे सकता है, धर्म उपदेश दे सकता है और आदेश दे सकता है; किंतु कला केवल आनंद देती है और प्रसन्न करती है।

बुद्धिमान् पुरुष ज्ञानवान होने पर भी बिना पूछे या अन्यायपूर्वक पूछने पर किसी को कोई उपदेश न करे, जड़ की भाँति चुपचाप बैठा रहे।

उपदेश करो अपने लिए, तभी तुम्हारा उपदेश सार्थक होगा। जो कुछ दूसरों से करवाना चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो; नहीं तो तुम्हारे नाटक के अभिनय के सिवा और कुछ भी नहीं है।

शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक पुकार-पुकार कर उपदेश देते हैं।

गुरु का उपदेश निर्मल होने पर भी असाधु पुरुष के कान में जाने पर उसी प्रकार दर्द उत्पन्न करता है जैसे जल।

सहृदयों की उक्तियाँ तर्कों से युक्त, उपदेशों से परिपूर्ण और स्वानुभूति से अन्यों को भी परिचित करा देने में समर्थ होती हैं।

प्रायः बुद्धिमान ही उपदेश के योग्य होते हैं, मूर्ख नहीं।

हम माँ का स्तनपान करके बड़े होते हैं, इसलिए माँ के उपदेश और शिक्षा जितना प्रभाव डाल सकते हैं, उतना अन्य बातें नहीं।

यथार्थवाद भले की उपेक्षा करके बुरे के चित्रण को नहीं कहा जा सकता, फिर वह चित्रण कितना भी यथार्थ क्यों न हो। इसी प्रकार उस चीज़ को आदर्शवाद नहीं कह सकते जो केवल रूढ़ि समर्पित सदाचार के उपदेश का नामांतर है।

अन्य किसी वस्तु को हम इतनी अनिच्छा से नहीं स्वीकारते जितना उपदेश को।