राजेंद्र माथुर के उद्धरण
जैसे उपन्यास का सच संसार के सच से ज़्यादा सच्चा होता है, उसी तरह हमारा पुराण-सत्य, हमारा मिथक-सत्य—आपके इतिहास-सत्य से कहीं ज़्यादा ऊँचा है।
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धर्म के बिना तो हिंदुस्तान का या किसी भी देश का काम चल सकता है; लेकिन एक साझा मिथकावली के बिना, किसी देश का काम नहीं चल सकता।
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नेहरू ने अपने देश को सौंदर्य-प्रतीकों, प्रेरणा-प्रतीकों और स्मृति-प्रतीकों में देखा। इन सबने उन्हें बिजली दी। इस बिजली के बग़ैर कोई हिंदुस्तान में रह कैसे सकता है?
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स्मरण और विस्मरण की एक शैली हमारे पास हज़ारों वर्ष से है और यह मानने का कोई कारण नहीं कि आज बीसवीं सदी में वह हमारे साथ नहीं है। इसलिए आज जो शोधकर्ता गाँव में जाकर भारत के लोकगीतों को भविष्य के लिए लिपिबद्ध अथवा टेपबद्ध करना चाहता है, वह मूलतः एक अभारतीय कर्म कर रहा है। कहने को वह कहेगा कि मैं जड़ों से जुड़ रहा हूँ, इत्यादि, लेकिन जड़ों से जुड़ने की यह अवधारणा ही पश्चिमी है।
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समाज-निर्माण का एक अद्भुत साँचा क्योंकि हमारे पास था, इसलिए यह लगभग अनिवार्य था कि किसी और जगह हम बिल्कुल अपंग रह जाएँ।
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आर्यों के ज़माने में भारत स्वयं एक महाकाव्य था, जबकि आज जो हिंदुस्तान हम देखते हैं वह उस महाकाव्य का सड़-बुसा, फफूंद लगा संस्करण है।
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जनसंघ के अंधविश्वासी लोग कहते हैं कि गाय भारतीय संस्कृति की अंग है, तो वह जानते नहीं कि अनजाने में कितनी बड़ी सच्चाई कह गए हैं।
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भारत की समाजेंद्रिय शायद इतनी अधिक विकसित हो चुकी थी कि राज्येंद्रिय को विकसित करने की यहाँ के लोगों को कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई।
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ए.एल. बाशम के अनुसार, प्राचीन भारत में अराजकता और अस्थिरता का सबसे बड़ा कारण यह था कि हर राजा के दिमाग़ में यह कीड़ा घुसा हुआ था कि पड़ोसी पर हमला करना मेरा धर्म है। सबके सब चक्रवर्ती सम्राट् बनकर राजसूय यज्ञ करना चाहते थे। बनते बहुत कम थे, लेकिन लड़ते सब रहते थे। दो गज ज़मीन पर क़ब्ज़ा करते और चारणों से कहलवा लेते कि सारी पृथ्वी आपके भय से काँपती है। भारतीय समाज ने समन्वय, सहिष्णुता और क्रमशः विलय का अद्भुत पाचन-यंत्र विकसित कर लिया था, लेकिन राजाओं के बीच सहअस्तित्व का कोई शास्त्र, प्राचीन भारत ने विकसित नहीं किया। गीता के अर्जुन के बावजूद परंपरा निरंतर युद्धों की थी। अहिंसक और शाकाहारी भारत ने अपने समाज में गृहयुद्धों को वर्जित करने की कोई युक्ति नहीं सोची।
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जो आदमी आज अपनी कलाई पर घड़ी पहनता है; वह उन पुराने युगों की कल्पना नहीं कर सकता, जब एक टिक-टिक करता कांटा, चेतावनी की तरह, चाबुक की तरह, हड़बड़ाने वाले यातना-यंत्र की तरह, क़यामत के पैग़ाम की तरह हमें हाँका नहीं करता था। घड़ी के काँटे ने मनुष्य की चेतना को कितना बदला है, यह आज कोई सोचता भी नहीं। लगभग इतना ही बड़ा परिवर्तन राष्ट्र-राज्य की नई अवधारणाओं ने मनुष्य की चेतना में किया है। राष्ट्र हमारी कलाई पर एक घड़ी की तरह बंधा है और वह चाबुक की तरह, चेतावनी की तरह, हड़बड़ाने वाले यातना-यंत्र की तरह हमें हाँक रहा है। पाँच सौ साल पहले यह घड़ी थी ही नहीं और यदि थी तो वह रेत के कण या सूरज की छाया का इस्तेमाल करने वाली अनगढ़ घड़ी थी।
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उच्चतम न्यायालय का एक बड़ा फ़ैसला आज जितना अर्थगर्भित होता है, उतना पहले सदियों का चिंतन नहीं होता था।
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केवल भारत दुनिया में ऐसा देश है जो अपनी हिंदू नैतिकता क्रमशः खो रहा है, लेकिन जो राज्य-संचालन के लिए ज़रूरी नई नैतिकता नहीं अपना पाया है।
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महाभारत कोई धर्मग्रंथ नहीं है। वह इस ज़मीन के बाशिंदों के अनुभवों का निचोड़ है और होमर या शेक्सपीयर की तरह का सार्वकालिक और पंथ-निरपेक्ष है।
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मध्य युग के यूरोप को काफ़ी स्थिरता सामंतवाद ने दी। सैकड़ों सालों तक सामंतों के ख़ानदान चला करते थे, और राजा प्रायः उन्हें छू नहीं सकता था। राज्य राजा के भरोसे नहीं, बल्कि सामंतों के भरोसे चलता था। लेकिन भारत में ऐसा सामंतवाद कभी रहा ही नहीं। हमारे यहाँ सिद्धांत यह था कि राज्य की सारी ज़मीन का स्वामी राजा है। सामंत की कोई ज़मीन नहीं है। जो है, वह राजा का प्रसाद है। अतः राजा जब चाहे, तब सामंत या रियाया को ज़मीन से बेदख़ल कर सकता है। फिर घटनाएँ प्रायः राजा को भी बेदख़ल कर देती थीं। ऐसे सतत गड़बड़झाले के बीच कोई टिकाऊ राज्य कैसे क़ायम हो सकता था?
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राज्य के दायरे में नागरिकों को नियमित और संचालित करने के लिए भारत के पास कोई समग्र सामाजिक नैतिकता न आज है, न पहले कभी रही। लेकिन गाँव और जाति और कुनबे के दायरे में, हर आदमी की हर साँस को नियमित करने वाली नैतिकता सदियों से हमारे साथ है—उसे राजा भी मानते रहे और दीवान भी।
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ईश्वर के रूप में राम का परित्याग करके भारत का काम चल सकता है, लेकिन एक संस्कृति-पुरुष के नाते, एक काव्य-प्रतीक के नाते, राम का परित्याग करके कैसे काम चल सकता है? एक नास्तिक, विदेशी समाजशास्त्री जितनी संवेदना राम के चरित्र को दे सकता है; यदि उतनी भी हम देंगे, तो क्या राष्ट्र को तोड़ने के पाप के भागी बनेंगे?
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भारत की सभ्यता अद्भुत इस माने में रही है कि इतना स्थिर समाज, इतनी सदियों तक चीन के अलावा और कहीं क़ायम नहीं रहा। लेकिन इस सामाजिक स्थिरता के साथ-साथ; जितनी राज्य-गत अराजकता और अस्थिरता भारत में रही है, उतनी पृथ्वी पर और कहीं नहीं रही।
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आज भी भारत का संविधान पंचायतों का कोई उल्लेख नहीं करता, क्योंकि सूबेदार से नीचे शक्ति-केंद्र स्थापित करना हमारी परंपरा के विपरीत है।
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आज हिंदुस्तान की वही शक्ल है, जो उसकी गायों की है। हम गायों की तरह मरियल हैं और हमारी हड्डियाँ निकल रही हैं। जो हाल आर्य गायों की संतानों का है, वही आर्य पुरुषों की संतानों का भी है।
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गांधी के बावजूद मुस्लिम लीग ने कांग्रेस से पाकिस्तान ले लिया, लेकिन वामपंथी कुछ नहीं ले पाए।
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आर्यों के ज़माने में गाय एक कविता थी, लेकिन भारत के पतन के साथ वह एक धर्म बन गई।
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राष्ट्र को छोड़िए, लेकिन अवचेतन को समाप्त करके कोई व्यक्ति तक होश, समझदारी और पहचान नहीं पा सकता।
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गांधी ने भारत के मर्म को छुआ, लेकिन भारत का मर्म न किसी पार्थिव चीज़ को छूता है, न पता पाता है।
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कांग्रेस क्योंकि पूरी तरह जनाधारित थी, इसलिए वह भारत की जनता की तरह ही परिभाषाविहीन थी। यदि वह एकांगी होती तो कोई लेनिन या माओ उसे ज़रूर मिलता, जो किताब लिखकर उसे रणनीति देता। लेकिन कांग्रेस परिभाषाहीन थी, इसलिए उसे परिभाषा देने की सबसे आज़ादी थी।
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समाज हमारा हिमाचल की तरह अटल रहा, लेकिन राजा और राज्य समुद्र की लहरों की तरह क्षणभंगुर रहे। ऐसा क्यों हुआ? चक्रवर्ती राजा की अवधारणा होते हुए भी सच्चे चक्रवर्ती यहाँ एक हाथ की उंगलियों पर आसानी से क्यों गिने जा सकते हैं? चीन की तरह एक अखंड देश और अखंड समाज हम यहाँ क्यों नहीं बना सके?
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अँग्रज़ों के आने से पहले का हिंदुस्तान अपने-आपके साथ क़िस्म-क़िस्म के राजनीतिक प्रयोग करने वाला हिंदुस्तान नहीं था।
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संसद को संविधान का दुश्मन मानकर आप संविधान की रक्षा कैसे कर सकते हैं? जनता को जनतंत्र का दुश्मन मान लिया जाए, तो फिर जनतंत्र की रक्षा कैसे होगी?
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धर्म और कविता में अंतर स्पष्ट है। कविता हृदय की सहज संवेदना है (इस घिसी-पिटी परिभाषा के लिए पाठक क्षमा करें), जबकि धर्म एक रूढ़ि है।
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धर्म का विनाश संभव है, लेकिन मनुष्य जाति की पुराण-चेतना का विनाश आज तक संभव नहीं हुआ।
जो आदमी पूर्व में असंबद्ध प्रतीत होने वाले तथ्यों के बीच नया रिश्ता जोड़ता है; वह आइन्सटाइन जैसा महान् वैज्ञानिक होता है, अथवा गांधी और लेनिन जैसा सामाजिक क्रांतिकारी।
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गांधी ने भारत की प्रेतभाषा को पढ़ा और प्रेतों से वार्तालाप करके उन्हें मनुष्य जैसा बर्ताव करना सिखाया। लेकिन प्रेतों को याद ही नहीं कि गांधी उनसे मिला था। वे मंत्र के इशारे पर नाचते हैं, लेकिन उच्चार बंद होते ही उन्हें याद नहीं रहता कि मंत्र था।
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जो आप ज़िंदगी में नहीं करते, वह विचार के धरातल पर बहुत साधिकार नहीं कर सकते।
माओ यदि भारत में पैदा होता, तो झख मारकर उसे गांधी बन जाना पड़ता। लेकिन माओ को झख मारनी पड़ती, ऐसा कहकर हम गांधी और हिंदुस्तान की इज़्ज़त क्यों गिराएँ? कहना हमें यह चाहिए कि माओ को चीन में पैदा होकर वह सौभाग्य नहीं मिला, जो गांधी को भारत में मिला था।
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भारत में संविधान का जन्म वैसे ही हुआ जैसे बाइबिल में पृथ्वी का जन्म बतलाया गया है। ईश्वर ने कहा कि संविधान हो और वह हो गया। संविधान की उत्पत्ति के पहले अंधकार था और उस अंधकार का मालिक विदेशी था। वह निराकार ब्रह्म की तरह अंधकार पर छाया हुआ था। तब न सूरज था, न चाँद-सितारे थे, न समुद्र था, न आकाश। तब न प्रधानमंत्री थे, न संसद थी, न चुनी हुई नगरपालिकाएँ थी। 15 अगस्त 1947 के बाद ब्रह्मा ने चाहा कि यह सब हो, और वह हो गया।
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यदि कोई वामपंथी विशेषज्ञ यह नुस्ख़ा सुझाए कि आप महाभारत की कथाओं को अपनी याददाश्त से बाहर निकाल दीजिए और फिर देश बनाइए, तो यह काम ब्रह्मा और विश्वकर्मा मिलकर भी नहीं कर सकते।
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क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हिंदू धर्म ने जिस देश में हर आदमी की हर साँस को हज़ारों साल से क़ायदे-क़ाननों में बाँध रखा है, उस देश में 1947 के बाद ऐसी कोई नैतिकता नहीं पनपी, जो हमारे राज्य को तथा राजनीति को बाँध सके?
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हमारे हिंदू गुणों-अवगुणों को नई दिशा में कौन मोड़ेगा? हमारी एक बाँह को लकवा मार गया है और दूसरी बाँह में रक्त बह रहा है। क्या ऐसा कोई उपाय है, जिसके द्वारा हमारी बेकार बाँह भी रक्तप्रवाह के नियम सीख सके?
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