गार्गी मिश्र के बेला
नाऊन चाची जो ग़ायब हो गईं
वह सावन की कोई दुपहरी थी। मैं अपने पैतृक आवास की छत पर चाय का प्याला थामे सड़क पर आते-जाते लोगों और गाड़ियों के कोलाहल को देख रही थी। मैं सोच ही रही थी कि बहुत दिन हो गए, नाऊन चाची की कोई खोज-ख़बर नहीं
1988 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश
नई पीढ़ी की कवयित्री। शोध, गद्य-लेखन और अनुवाद-कार्य में भी सक्रिय।
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