सेक्टर 36 : शहरों की नहीं दिखने वाली ख़ौफ़-भरी घटनाओं का रियलिस्टिक थ्रिलर
गार्गी मिश्र
22 सितम्बर 2024
कभी-कभी सिनेमा देखने वालों को भी तलब होती है कि ऐसा कोई सिनेमा देखें जो उनके भीतर पनप रहे कोलाहल या एंग्जायटी को ऐसी ख़ुराक दे जिससे उनके दिल-ओ-दिमाग़ को एक शॉक ट्रीटमेंट मिले और वह कुछ ज़रूरी मानवीय मूल्यों के बारे में सोचने को मजबूर हो जाएँ। हाल ही में, मैं भी एक शॉक ट्रीटमेंट से गुज़री। मैंने नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म—सेक्टर 36 देखी।
फ़िल्म सेक्टर 36 एक ऐसी क्राइम थ्रिलर है, जो आपको कई तरह की भावनाओं से गुज़रने पर मजबूर कर देगी। घृणा, डर, गुस्सा और शायद हैरानी भी कि इंसान कितने ख़तरनाक हो सकते हैं। यह फ़िल्म इमोशन के मामले में सेंसिटिव लोगों को बेहद परेशान कर सकती है, लेकिन अगर आपको गहरे-स्याह मुद्दे पसंद हैं, तो आपको यह फ़िल्म दिलचस्प लगेगी।
फ़िल्म विक्रांत मैसी और दीपक डोबरियाल मुख्य भूमिकाओं में हैं। विक्रांत, जो अक्सर साधारण, कॉमन मैन जैसे किरदार निभाते हैं, यहाँ बिल्कुल अलग तरह की भूमिका में दिखे हैं। एक सीरियल किलर के रूप में उन्हें देखना बिल्कुल ही नया अनुभव है। और फिर दीपक डोबरियाल, जो एक भ्रष्ट पुलिस अफ़सर के किरदार में हैं, कई बार विक्रांत को भी मात देते नज़र आते हैं। दोनों की दमदार परफॉर्मेंस इस फ़िल्म को (ज़रूर) देखने लायक बनाती है।
कहानी : ख़ौफ़ और बेपरवाही का मिश्रण
फ़िल्म के शुरुआती दृश्यों से ही आपको पता चल जाएगा कि सेक्टर 36 आपको एक अँधेरी, ख़ौफ़नाक दुनिया में लेकर जा रही है। यह 2006 के निठारी हत्याकांड से प्रेरित है, जिसमें अपराधी बस्तियों में रहने वाले ग़रीब परिवारों के बच्चों का अपहरण करता था और फिर कुछ समय बाद उनके जिस्म के कटे हुए हिस्से मिलते थे।
फ़िल्म में विक्रांत मैसी, ‘प्रेम’ का किरदार निभा रहे हैं जो कि एक सीरियल किलर है। वह न सिर्फ़ हत्या करता है, बल्कि वह एक पीडोफाइल है (एक मनोवैज्ञानिक विकार जिसमें एक वयस्क, बच्चों के बारे में यौन कल्पनाएँ करता है या वह उसके साथ यौन कृत्यों में संलग्न होता है) और कैनिबल (नरभक्षी/आदमख़ोर) भी है। यह जितना सुनने में डरावना लग रहा है, उतना ही वीभत्स उसे फ़िल्म में देखना भी है।
फ़िल्म समाज की उस बेरुख़ी को दिखाती है जो ऐसे अपराधियों को पनपने का मौक़ा देती है, जिनकी क़ीमत ग़रीब चुकाते हैं। जब ग़रीब परिवारों के बच्चे ग़ायब होते हैं, तो कोई ध्यान नहीं देता क्योंकि ये बच्चे समाज के निचले तबक़े से होते हैं। और फिर जब एक बड़े व्यापारी का बच्चा ग़ायब होता है, तब पुलिस तंत्र जाग जाता है।
यही फ़िल्म का सबसे बड़ा सामाजिक संदेश है : समाज में सत्ता और पैसा यह तय करता है कि न्याय किसे मिलेगा और किसे नहीं।
किरदार : विपरीत दिशाओं में दो लोग
विक्रांत मैसी का किरदार ‘प्रेम’ एक ठंडे दिल का आदमी है, जिसकी आत्मा मर चुकी है। विक्रांत को फ़िल्म में इस तरह के ख़तरनाक इंसान की भूमिका निभाते देखना बेहद चौंकाने वाला है, जबकि पिछली फ़िल्मों में उनकी भूमिकाएँ बिल्कुल अलग हैं। उनका किरदार बेहद चुप्पा लेकिन बेहद ख़ौफ़नाक है। अभिनय इतनी गहराई से किया गया है कि आप हर सीन में उनकी चुप्पी और फिर दरिंदगी को महसूस करते हैं। आप अपने आस-पास पसरे डर को महसूस करेंगे।
दीपक डोबरियाल ने इंस्पेक्टर पांडेय का किरदार निभाया है जो कि एक ऐसा पुलिसवाला है, जिसे ग़रीब बच्चों के ग़ायब होने से कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता। जब तक कि यह मामला उसके ख़ुद के परिवार तक नहीं पहुँचता और उसकी ख़ुद की बेटी के ग़ायब होने कि नौबत नहीं आ जाती। जब वह इस डर को क़रीब से महसूस करता है, तब जाकर वह बच्चों के गुमशुदा होने के केस को गंभीरता से लेता है।
पांडेय का सफ़र, जहाँ वह धीरे-धीरे एक निष्क्रिय इंसान से एक जुनूनी पुलिसवाले में तब्दील होता है, देखना दिलचस्प है।
मंथर गति से बढ़कर एक रफ़्तार पकड़ती फ़िल्म
फ़िल्म की शुरुआत धीमी है। पहले हिस्से में आपको ज़्यादा एक्शन या सस्पेंस नहीं मिलेगा, और कई लोगों को यह खिंचा हुआ लग सकता है। लेकिन फ़िल्म का दूसरा हिस्सा जब रफ़्तार पकड़ता है, तो यह आपको पूरी तरह दृश्यों में बाँध लेता है। इस दौरान फ़िल्म में प्रयोग हुई— परिवारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अंतर और भी गहराई से उभरकर सामने आता है, ख़ासकर ग़रीब और अमीर के बीच के जीवन के महत्त्व की एक बहुत बड़ी खाईं।
फ़िल्म का दूसरा हिस्सा वह है, जहाँ असली कहानी सामने आती है। पुलिस जब केस की गंभीरता को समझती है, तो फ़िल्म की टोन और भी स्याह हो जाती है। लेकिन फ़िल्म का अंत काफ़ी ओपन-एंडेड है। अगर आप उम्मीद कर रहे हैं कि अंत में सब कुछ हल हो जाएगा, तो आपको थोड़ी निराशा हो सकती है। पर यही इसका संदेश भी है—असली ज़िंदगी में सबकुछ इतना सरल नहीं होता, और न्याय हमेशा नहीं मिलता।
सामाजिक संदेश
सेक्टर 36 सिर्फ़ एक क्राइम थ्रिलर नहीं है। यह समाज पर एक तीखी कमेंट्री है, जहाँ ग़रीबों की आवाज़ें दबा दी जाती हैं और न्याय का पलड़ा अमीरों के पक्ष में झुका रहता है। फ़िल्म यह भी दिखाती है कि मीडिया किस तरह से न्याय-व्यवस्था को प्रभावित कर सकती है। जब तक मीडिया इस केस को उजागर नहीं करती, तब तक कोई कार्रवाई नहीं होती। यह एक कड़वा सच है कि कई बार न्याय सिर्फ़ तभी मिलता है, जब गुनाह और गुनाहगार टीवी स्क्रीन पर दिखाई देते हैं।
फ़िल्म यह बार-बार कहती है कि समाज अपनी कमज़ोरियों को कैसे अनदेखा कर रहा है। फ़िल्म का अंत आपको बेचैन कर सकता है, लेकिन यही इसकी ख़ासियत है। यह उन अपराधों की कहानी है जिनका सुखद अंत नहीं होता, और सेक्टर 36 आपको यह कभी नहीं भूलने देती।
अंतिम फैसला : अगर हिम्मत है तो ज़रूर देखें
क्या आपको सेक्टर 36 देखनी चाहिए?
अगर आपको गहरे, धीमे, ख़ून-ख़राबे और तीखे क्राइम ड्रामा पसंद हैं, तो ज़रूर। लेकिन ध्यान रखें, यह फ़िल्म देखना आसान नहीं है। यह हमारे और आपके शहरों में हुई सच्ची घटनाओं की कहानी है। हमारे रोज़मर्रा के जीवन के बीच घटित होती घटनाओं का ब्यौरा—जब हम महसूस करते हैं कि आस-पास सब सही है, हम तो क्राइम से अछूते हैं।
फ़िल्म को लेकर एक बात तो तय है कि विक्रांत और दीपक की दमदार परफ़ॉर्मेंस और फ़िल्म का सामाजिक संदेश आपको लंबे समय तक सोचने पर मजबूर करेगा। हालाँकि फ़िल्म की धीमी शुरुआत और अंत में कुछ सवालों का अनसुलझा रह जाना, कुछ लोगों को खटक सकता है, लेकिन फिर भी अगर आप अँधेरी और कड़वी सच्चाइयों से डरते नहीं हैं, तो सेक्टर 36 आपको निराश नहीं करेगी।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
25 अक्तूबर 2025
लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में
हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी
06 अक्तूबर 2025
अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव
एक पहलवान कुछ न समझते हुए भी पाँड़े बाबा का मुँह ताकने लगे तो उन्होंने समझाया : अपने धर्म की व्यवस्था के अनुसार मरने के तेरह दिन बाद तक, जब तक तेरही नहीं हो जाती, जीव मुक्त रहता है। फिर कहीं न
27 अक्तूबर 2025
विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना
दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है।
31 अक्तूबर 2025
सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके स
18 अक्तूबर 2025
झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना
मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना ह