किताब एक स्त्री की आत्मा का घर है
रवीन्द्र व्यास
23 अप्रैल 2025

चमत्कार घटित होते हैं।
एक दिन अप्रत्याशित ढंग से उसके काँधे पर एक कोमल और प्रेमिल स्पर्श इस क़दर हल्का आकर उतरता है कि उसके काँधे हमेशा के लिए उचक जाते हैं। वह स्पर्श ताउम्र उसके जीवन में एक फूल बनकर उसके जीवन को महकाए रखता है। स्पर्श की विरल, अलौकिक और अविस्मरणीय स्मृति! फूल की तरह ताज़ादम। अनंत काल तक।
किसी किताब के काँधे पर भी ऐसा ही कोमल और प्रेमिल स्पर्श चाहिए, इसकी प्रतीक्षा में वह साँस रोके, अधनींद में साँसें लेती रहती है।
क्या किताब के पास जाना एक स्त्री देह के पास जाने जैसा है! यह बहुत ही रोमांचक और उत्तेजित करने वाला अनुभव है। घातक, जोखिम भरा, आत्मघाती, हिंसक और स्वप्निल, रहस्यमय, कोमल, करुणा की अजस्र धारा में बहता, अँधेरे-उजाले में डोलता भरा-पूरा संसार है।
एक असाध्य बीमारी में पत्तों की तरह झरते लोगों के बीच से गुज़रते, ऊँचाए काँधे लिए प्रेम में डूबे अनवरत विह्वल।
देह भी एक शरण-स्थली है और किताब भी।
प्रेम में टूटकर, धोखा खाकर, अपमानित और पराजित होकर आप यहाँ सिर टिका सकते हैं। जैसे आपके माथे पर उभर आए ज़ख़्मों पर गीली पट्टी या रूई का फाहा रखा है।
स्त्री की तरह ही किताबों में सदियों की करवटें सोई रहती हैं। एक प्रेमिल निगाह और आत्मीय स्पर्श पाकर, वे करवटें अपनी तमाम बेचैनियों के साथ अपना चेहरा आपकी ओर करती हैं।
लगभग पत्थर हो चुकी उसकी आँखें, आपको एक नाउम्मीदी से टकटकी लगाए देख रही होती हैं। वह विरल व्यक्ति होगा जो स्त्रियों के पास जाते हुए उसकी आत्मा पर पड़ी सदियों की खरोंचों पर धीरे-धीरे अपनी उँगलियाँ फेरता है और पाता है कि उसकी समूची देह वह प्रेमिल स्पर्श पाकर एक लय में काँप रही है—दुनिया का सबसे अलौकिक कंपन।
उन खरोंचों में मवाद है। वहाँ सूख चुकी मृत चमड़ी की महिन परतें हैं, लेकिन उसके नीचे अब तक सदियों में मिले असंख्य घाव हैं। वे अब तक ताज़ा हैं, अपने हरेपन में छिपते हुए। जैसे वे सदियों पुराने नहीं, बस कल रात के ही हों।
और उँगली फिराते हुए कोई सूखी चमड़ी की परत उखड़ती है और वहाँ बिना किसी चीख़ या आह के घाव उघड़ जाते हैं, और रक्त की सहसा उछल आई बूँद में बदल जाते हैं।
बस यहीं और यहीं एक देह भी और इस तरह एक किताब भी यह महसूस करती है कि यही है वह प्रेमिल स्पर्श जिसने मुझे ऐसे छुआ है। इसके पहले कभी किसी ने नहीं छुआ था। और उसकी आत्मा के चंद्रमा से सदियों से जो सफ़ेद, महिन बुरादा झर रहा था, वह अचानक एक दूधिया उजाले में अपनी पूरी पवित्रता के साथ झिलमिलाने लगता है।
आप उसको छूते हैं, वह कोमल हाथों से आपको छूती है।
एक देह इसी पवित्रता में अपना कायांतरण इस तरह करती है कि सदियों से चट्टान के नीचे दबे बीज अँगड़ाई लेकर हरेपन के अनंत में अपनी नीली-पीली कोमलता में खुलते-खिलते हुए चमकने लगते हैं।
उसकी आँख से देखे गए स्वप्न दुनिया के सबसे सुंदर स्वप्न हैं। उसकी आँख से देखे गए दृश्य सबसे सुंदर दृश्य हैं। उसकी आँख से देखा गया संसार सबसे सुंदर संसार है।
किताब के पास जाना एक स्त्री के पास जाना है। यह आपके स्पर्श करने के कौशल पर निर्भर करता है कि उसी देह को आप कैसे एक नई देह में बदलते हैं। यदि इस स्पर्श में यांत्रिकता और रोज़मर्रा का उतावलापन है, तो हो सकता है—आप वही देह पाएँगे जो आपको लगभग निर्जीव-सा अनुभव देगी। तब शायद आप उस दुःख के आईने में नहीं झाँक पाएँगे जिनमें दुनिया के झिलमिलाते अक्स हैं।
किताब एक स्त्री की आत्मा का घर है
जिसमें देह का रोना भी सुनाई देता है
रोना एक स्वप्न है
जिसमें बहुत सारी हिचकियाँ रहती हैं
हिचकियाँ एक चादर है
जिसके रेशों में दुःख का रंग है
दुःख एक आईना है
आईने में दुनिया के तमाम अक्स हैं।
किताब के पास जाना सचमुच एक स्त्री के पास जाना है। वहाँ अपने अकेलेपन में, अपनी ही धुरी पर घूमती पृथ्वी की आवाज़ एक आलाप की तरह सुनाई देती है।
वहाँ अमावस्या और पूर्णिमा के बीच एक बेचैन चीख़ की आवाजाही है, जिसका कोई ठौर नहीं, कोई ओर नहीं, कोई छोर नहीं। वह अनंत में अंतहीन है। ज्वार-भाटे का एक अनंत सिलसिला। अँधेरे की अंतहीन छाया, उजाले का कोमल गांधार।
आप उसे छूएँगे तो वहाँ आपको उजाड़ का धूसर और भूरापन भी मिलेगा और वसंत का नीला और पीलापन भी। वहाँ आपको बारिश की विलंबित लय भी मिलेगी और सूखे का चारों ओर गूँजता सन्नाटा भी। वहाँ रक्त को जमा देने वाली शीत ऋतु भी मिलेगी तो आपको ग्रीष्म का वह ताप भी मिलेगा जो आपकी आत्मा में पैठ चुकी प्राचीन सीलन को सुखाकर भाप की तरह उड़ा देगा।
आँख में ख़ंजर उतार दिया जाता है। लाइब्रेरी में आग लगा दी जाती है। पीठ में और सीने में। रक्त गलियों-चौराहों से होता हुआ बहते किसी के पैरों से लिपट जाता है। कोई पैरों में पत्थर बाँध नदी में उतर जाता है। एक दिन हम ओल्ड मैन के पिस्तौल से निकली मृत्यु आवाज़ सुनते हैं। कोई किताबों के ढेर पर खडा होकर रस्सी पर झूल जाता है।
‘चीड़ों पर चाँदनी’ चमकती रहती है, ‘धुंध से कोई धुन’ उठती रहती है।
एक पांडुलिपि के लिए आग लगा दी जाती है। रक्तरंजित ज़मीन पर ‘ख़ाली नाम गुलाब का’ चमकता रहता है।
कितना कुछ सहकर, कहाँ-कहाँ से गुज़रकर वह हमारे पास आती है या हम उसके पास जाते हैं।
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूँ, तो लगता है एक स्त्री को छू रहा हूँ। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, स्वप्न में और यथार्थ में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है।
…और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है—धीरे-धीरे—एक विलंबित लय में।
उसमें ग़ज़ब का धैर्य है। वह आँखें बंद किए, साँस रोके सोई रहती है... लेकिन उसकी धड़कनों में किसी प्रेमिल स्पर्श की अनंत प्रतीक्षा है।
सूर्य के प्रकाश से उज्ज्वल, चंद्रमा की चाँदनी से भी धवल।
यह प्रतीक्षा किसी भी सिम्फ़नी से अधिक मार्मिक और मधुर है।
अपनी देह और अपने पन्नों में सिमटी।
एक देह में रुके समय को बहने के लिए और एक किताब में रुके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।
शायद हर घर, हर लाइब्रेरी, किसी निर्जन कोने में कोई किताब हमेशा बची रहती है, जिसके काँधे एक प्रेमिल स्पर्श से उचके रहते हों... या क्या पता किसी किताब का स्पर्श हमारे काँधे पर आकर उतरा हो, इतना हल्का जैसे तितली उतरी हो और हमें पता न हो...
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
14 अप्रैल 2025
इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!
“आप प्रयागराज में रहते हैं?” “नहीं, इलाहाबाद में।” प्रयागराज कहते ही मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है, अगर मैं बोलने की
08 अप्रैल 2025
कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान
शिल्प और कथ्य जुड़वाँ भाई थे! शिल्प और कथ्य के माता-पिता कोरोना के क्रूर काल के ग्रास बन चुके थे। दोनों भाई बहुत प्रे
16 अप्रैल 2025
कहानी : चोट
बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जाँच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतज़ार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहाँ वह बैठा था, उसके ठी
27 अप्रैल 2025
रविवासरीय : 3.0 : इन पंक्तियों के लेखक का ‘मैं’
• विषयक—‘‘इसमें बहुत कुछ समा सकता है।’’ इस सिलसिले की शुरुआत इस पतित-विपथित वाक्य से हुई। इसके बाद सब कुछ वाहवाही और
12 अप्रैल 2025
भारतीय विज्ञान संस्थान : एक यात्रा, एक दृष्टि
दिल्ली की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी के बीच देश-काल परिवर्तन की तीव्र इच्छा मुझे बेंगलुरु की ओर खींच लाई। राजधानी की ठंडी सुबह