Font by Mehr Nastaliq Web
Agyeya's Photo'

अज्ञेय

1911 - 1987 | कुशीनगर, उत्तर प्रदेश

समादृत कवि-कथाकार-अनुवादक और संपादक। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित।

समादृत कवि-कथाकार-अनुवादक और संपादक। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित।

अज्ञेय के उद्धरण

381
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

अकेले बैठना, चुप बैठना—इस प्रश्न की चिंता से मुक्त होकर बैठना कि ‘क्या सोच रहे हो?’—यह भी एक सुख है।

साहित्य तुम्हारी तुम्हीं से पहचान और गहरी करता है।

एक निगाह से देखना कलाकार की निगाह से देखना नहीं है।

कपड़े पहनने ही के लिए नहीं हैं—उतार कर रखना भी होता है कि धुल सकें।

किसी को ठीक-ठीक पहचानना है तो उसे दूसरों की बुराई करते सुनो। ध्यान से सुनो।

कोई भी मार्ग छोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है : पथ-भ्रष्ट होना कुछ नहीं होता, अगर लक्ष्य-भ्रष्ट हुए।

सोचने से ही सब कुछ नहीं होता—न सोचते हुए मन को चुपचाप खुला छोड़ देने से भी कुछ होता है—वह भी सृजन का पक्ष है। कपड़े पहनने ही के लिए नहीं हैं—उतार कर रखना भी होता है कि धुल सकें।

नंगा होने, नंगे हो जाने, नंगा करने में फ़र्क़ है। गहरा फ़र्क़। शिशु और जंतु का नंगा होना सहजावस्था है; आदमी जब नंगा हो जाता है तब वह ग्लानि अथवा अपमान की स्थिति होती है। स्त्री जब नंगी की जाती है तब वह भी अपमान और जुगुप्सा की स्थिति होती है—या आपकी बुद्धि वैसी हो तो हँसी की हो सकती है। स्त्री का लहँगा उतारना, या बंदरिया को लहँगा पहनाना—दोनों इन प्राणियों की प्रकृत परिविष्ट अवस्था को हीन दृष्टि से देखने के परिणाम हैं।

दुःख सबको भाँजता है

और—

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह जाने, किंतु जिनको भाँजता है उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।

नारी जो कहती है वह उसका अभिप्राय नहीं होता, और जो उसका अभिप्राय होता है, वह कहती नहीं, लेकिन जब भी नारी कुछ कहती है तब उसका कुछ अभिप्राय अवश्य होता है।

अमेरिकी स्वप्न में 'छोटा' कुछ नहीं हो सकता। यानी जो छोटा है उसे 'छोटा' कहा नहीं जा सकता। अगर आप चूहा-दौड़ में भी हैं, तो संसार की सबसे बड़ी चूहा-दौड़ में हैं, अगर बौने हैं तो भी विराट बौने हैं।

हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं। पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की माँग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो?’

पश्चिम का कलाकार रूप (फ़ार्म) की खिड़की से देखकर वस्तु को संवेद्य बनाता है, उसका संप्रेषण करता है। भारत का कलाकार प्रतीक की खिड़की से वस्तु को नहीं, वस्तु के पार वस्तु-सत् को संवेद्य बनाता है।

सर्जन एक यंत्रणा भरी प्रक्रिया है।

कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है।

साहित्य तुम्हारी तुम्हीं से पहचान और गहरी करता है : तुम्हारी संवेदना की परतें उधेड़ता है जिससे तुम्हारा जीना अधिक जीवंत होता है और यह सहारा साहित्य दे सकता है; उससे अलग साहित्यकार व्यक्ति नहीं।

कवि का काव्य ही उसकी आत्मा का सत्य है।

कला में वही यथार्थ है जिससे संबद्ध, संपृक्त हुआ जा सके—संबद्ध यथार्थ ही कला का यथार्थ है।

कला संपूर्णता की ओर जाने का प्रयास है, व्यक्ति की अपने को सिद्ध प्रमाणित करने की चेष्टा है।

क्रांति दूसरों को बाँध कर नहीं होती, अपने को मुक्त करके होती है।

जो साहित्य या काव्य अपने समय की चिंताओं को, संदेहों को व्यक्त करता है, मूल्यों का संकट पहचान कर उन नए मूल्यों को पाने को छटपटाता है जो इस संकट के पार बचे रह सकते हैं, वही आज का साहित्य है।

अगर मैं अपने से बड़े किसी विचार, आदर्श, आइडिया के लिए जीता हूँ तो स्पष्ट है कि मेरा जीवन एक यज्ञ है : उस विचार या आदर्श के लिए अर्पित आहुति मैं हूँ।

कविता शब्दों में उतनी नहीं होती जितनी शब्दों के बीच विरामों में होती है।

जिस जीवन को उत्पन्न करने में हमारे संसार की सारी शक्तियाँ, हमारे विकास, हमारे विज्ञान, हमारी सभ्यता द्वारा निर्मित सारी शाखाएँ या औजार असमर्थ हैं, उसी जीवन को छीन लेने में, उसी का विनाश करने में, ऐसी भोली हृदयहीनता—फाँसी।

किसी भी समाज को अनिवार्यतः अपनी भाषा में ही जीना होगा। नहीं तो उसकी अस्मिता कुंठित होगी ही होगी और उसमें आत्म-बहिष्कार या अजनबियत के विचार प्रकट होंगे ही।

नकार के मौन में तूफ़ान की-सी गडग़ड़ाहट हो सकती है!

यह रोज़ का क़िस्सा है। मंत्री महोदय अपनी गणना में यह भूल गए हैं कि उनकी अपनी मीयाद बँधी है।

हम भाषा को नहीं बनाते, भाषा ही हमको बनाती है। थोड़े से प्रयोजनीय शब्द गढ़ लेना भाषा बनाना नहीं है, वह केवल अपनी सुविधा बनाना है।

भाषा कल्पवृक्ष है। जो उससे आस्थापूर्वक माँगा जाता है, भाषा वह देती है। उससे कुछ माँगा ही जाए, क्योंकि वह पेड़ से लटका हुआ नहीं दीख रहा है, तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता।

वह क्यों चीज़ों को बाहर से छुए जो उनके भीतर से धधक कर उन्हें दीप्त कर देता है?

अभिनंदन उस सलीब का होता है जो प्रतीक बन चुका है। और प्रतीक की ढुलाई करने वाला बस उतना ही है—यानी प्रतीक की ढुलाई करने वाला। यह बिल्कुल ‘डिस्पेंसेबल’ है—उसकी जगह कोई दूसरा ले सकता है, क्योंकि प्राणवत्ता तब प्रतीक में जा चुकी है, भारवाही में नहीं।

दुःख उसीकी आत्मा को शुद्ध करता है जो उसे दूर करने की कोशिश करता है। शुद्धि दूसरे के साथ दुःखी होने में नहीं; दूसरे के स्थान पर दुःखी होने में है।

दुःख संसर्ग-जन्य है, वह उदात्त और शोधक भी है। दुःख का संसर्ग परवर्ती को भी शुद्ध और उदात्त बनाता है।

Recitation