श्रीमद् राजचंद्र के उद्धरण
जो जीव अपने पक्ष को छोड़कर सद्गुरु के चरण में समर्पित होता है, वह जीव निज शुद्धात्मा के आश्रय से परमपद को पाता हैं।
आत्मभ्रांति के समान कोई रोग नहीं है। सद्गुरु के समान कोई वैद्य नहीं है। सद्गुरु की आज्ञा के समान कोई उपचार नहीं हैं। विचार और ध्यान के समान कोई औषधि नहीं है।
श्री वीतरागी भगवान ने ऐसा जो विनय का मार्ग कहा है, उस मार्ग के मूल आशय को कुछ ही सौभाग्यशाली जीव समझते हैं। यदि असद्गुरु उस विनय का दुरुपयोग करे, तो महामोहनीय कर्म के फल में भवसागर में डूबता है।
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जो बंधन के कारण हैं, वे बंधन के मार्ग हैं। उनका नाश करने वाली आत्मा की शुद्ध अवस्था मोक्षमार्ग है कि जिससे भवभ्रमण का अंत होता है।
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जो जीव, जहाँ जिस अपेक्षा से कथन किया हो, वहाँ उस अपेक्षा से यथायोग्य अर्थ ग्रहण करता है और यथायोग्य आचरण का पालन करता है—वह जीव आत्मार्थी हैं।
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आत्मा आँख से दिखाई नहीं देती, आत्मा का स्वरूप भी जानने में नहीं आता, आत्मा का दूसरा भी कोई अनुभव नहीं होता, इसलिए आत्मा का अस्तित्व नहीं होता है।
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भूतकाल में जो ज्ञानी हुए, वर्तमान जो ज्ञानी है एवं भविष्य में जो ज्ञानी होंगे—उनके ज्ञानी होने में कोई मार्गभेद नहीं है।
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जो भी संयोग दिखाई देते है, वे आत्मा द्वारा ही अनुभव में आते हैं। उन संयोगों से आत्मा उत्पन्न नहीं होता है। आत्मा नित्य प्रत्यक्ष है।
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संबंधित विषय : आत्मा
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जो त्याग और वैराग्य के विचारों में अटक जाते हैं, वे भी निज शुद्धात्मा के स्वरूप को नहीं पहचानते।
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यदि आप परमपद पाना चाहते हो, तो सत्य पुरुषार्थ करो। भवस्थिति आदि नाम लेकर आत्मतत्त्व की खोज बंद मत करो।
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जिन्हें शरीर होने पर भी, शरीर-रहित दशा वर्तती है, उन ज्ञानी के चरणों में अगणित बार वंदन हो।
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जहाँ सुपात्र जीव को प्रत्यक्ष सद्गुरु का सानिध्य प्राप्त न हो, वहाँ आत्मादि अस्तित्व के निरुपक शास्त्र आधारभूत हैं।
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आत्मज्ञान, वीतरागता, पूर्व कर्म के उदय अनुसार विचरण, अपूर्ववाणी और परम श्रुतज्ञान—ये आत्मानुभवी सद्गुरु के लक्षण हैं।
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किसी भी वस्तु का कभी एकांत से नाश नहीं होता है। यदि आत्मा नष्ट हो जाय, तो किसमें जाकर मिले? तू उसकी खोज कर।
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आत्मा की अपनी शुद्धता मोक्ष है। जिससे वह शुद्धता प्रकट होती है, वह मोक्षमार्ग है।
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शुभ और अशुभ कर्मों के बंधन में अनंत काल बीता है। जब शुभ और अशुभ कर्मों का नाश होता है, तब आत्मा का शुद्ध स्वभाव प्रकट होता है।
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प्रत्येक इंद्रिय को अपने-अपने विषय का ज्ञान होता है, लेकिन आत्मा को पाँचों ही इंद्रियों के विषयों का ज्ञान होता है।
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दया, शांति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य—ये लक्षण मोक्ष की इच्छा वाले मुमुक्षु में सदा ही जागृत होते हैं।
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जिसके अनुभव में उत्पाद और व्यय का ज्ञान होता है, वह उससे भिन्न हुए बिना कदापि ज्ञान नहीं होता।
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आत्मा सर्व अवस्थाओं में सदा ही निराला रहता है। त्रिकाल-प्रकट ऐसा चैतन्य स्वभाव—आत्मा का वास्तविक लक्षण है।
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संबंधित विषय : आत्मा
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जब सम्यक विचारणा प्रकट होती है, तब आत्मज्ञान प्रकट होता है। आत्मज्ञान से मोह का क्षय होता है और आत्मा देहरहित मोक्षपद पाता है।
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यदि देह के प्रति एकत्वबुद्धि छूट जाए, तो तू कर्म का कर्ता या भोक्ता नहीं है—यही धर्म का रहस्य है।
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जिन्हें मोहभाव का क्षय या उपशम हुआ हो, उन्हें ज्ञानी कहते हैं। उनके अतिरिक्त सर्व जीवों को आत्मभ्रांति है।
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जड़ से चेतन की उत्पत्ति होती हो और चेतन से जड़ की उत्पत्ति होती हो—ऐसा अनुभव कभी किसी को नहीं होता।
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जो लोग—बंध और मोक्ष कल्पना है—ऐसा वाणी में बोलते हैं, और मोहावेश में प्रवर्तते हैं—वे शुष्कज्ञानी हैं।
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किस जाति में जन्म लेने पर मोक्ष होता है? कैसे वस्त्र पहनने से मोक्ष होता है? इसका निर्णय नहीं लिया जा सकता, क्योंकि उसके अनेक भेद होना यह दोष है।
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संबंधित विषय : जन्म
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जो संयोगों से उत्पन्न नहीं होता है, वह नष्ट होकर किसी में मिलता भी नहीं है—इसलिए वह सदा ही नित्य है।
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जो लोग मात्र शास्त्र की बातें करते हैं और आत्मा में से मोह नहीं छूटा है; वे पामर जीव, ज्ञानी का मात्र अनादर करते हैं।
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संबंधित विषय : आत्मा
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जब सारा जगत झूठन समान अथवा स्वप्न समान जानने में आए, तब ज्ञानीपना प्रगट हुआ—ऐसा कहा जाता है। इनके अतिरिक्त सभी को कहने मात्र का ज्ञान है।
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आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है, कर्म ही कर्म का कर्ता है अथवा कर्मबंध सहज स्वभाव है, अथवा कर्मबंध होना आत्मा का धर्म है।
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संबंधित विषय : आत्मा
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ईश्वर को कर्म का फल देने वाला माना जाये तो भोक्तापना सिद्ध होता है। परंतु ऐसा कहने से तो ईश्वर का ईश्वरपना ही छूट जाता है।
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संबंधित विषय : ईश्वर
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जिस प्रकार नींद से जागने पर करोड़ों वर्षों से चलता स्वप्न भी छूट जाता है, उसी प्रकार आत्मज्ञान प्रकट होते ही अनादिकाल का विभाव दूर हो जाता है।
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संबंधित विषय : आत्मज्ञान
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