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श्रीमद् राजचंद्र

1867 - 1901 | गुजरात, पंजाब

जैन कवि, दार्शनिक और विद्वान। महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु।

जैन कवि, दार्शनिक और विद्वान। महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु।

श्रीमद् राजचंद्र की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 34

जो जीव अपने पक्ष को छोड़कर सद्‌गुरु के चरण में समर्पित होता है, वह जीव निज शुद्धात्मा के आश्रय से परमपद को पाता हैं।

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आत्मभ्रांति के समान कोई रोग नहीं है। सद्‌गुरु के समान कोई वैद्य नहीं है। सद्‌गुरु की आज्ञा के समान कोई उपचार नहीं हैं। विचार और ध्यान के समान कोई औषधि नहीं है।

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मतार्थी जीव को आत्मज्ञान नहीं होता है।

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श्री वीतरागी भगवान ने ऐसा जो विनय का मार्ग कहा है, उस मार्ग के मूल आशय को कुछ ही सौभाग्यशाली जीव समझते हैं। यदि असद्‌गुरु उस विनय का दुरुपयोग करे, तो महामोहनीय कर्म के फल में भवसागर में डूबता है।

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भूतकाल में जो ज्ञानी हुए, वर्तमान जो ज्ञानी है एवं भविष्य में जो ज्ञानी होंगे—उनके ज्ञानी होने में कोई मार्गभेद नहीं है।

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