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कवि कर्णपूर

1524 | नादिआ, पश्चिम बंगाल

कवि कर्णपूर के उद्धरण

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सभी जंतु अपने-अपने कर्म के अनुसार जन्म लेते हैं, कर्मानुसार ही मरते हैं और कर्मानुसार ही विद्यमान रहते हैं। जो व्यक्ति जब जैसा कर्म करता है, वही देवता है।

पवित्र नदियाँ, बिना स्नान किए, अपने दर्शनमात्र से ही दर्शक का मन पवित्र कर देती हैं।

क्रोध से अंधा हुआ व्यक्ति ही परमांध होता है क्योंकि उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। केवल नेत्र से अंधा हुआ मनुष्य अंधा नहीं होता।

सुकवि के वचन अर्थादि का विचार किए बिना ही आनंदमग्न कर देते हैं, पुण्यमयी नदियाँ स्नान के बिना ही दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देती हैं।

उपासनीय कौन है? जो सरस है सरस कोन है? जो प्रेम का स्थान है। प्रेम क्या है? जिसमें वियोग हो। वह वियोग कौन सा है? जिससे प्रेमी जीवित नहीं रहते।

हे कमलनयनी! मूर्ख व्यक्ति शोक से पीड़ित होकर दुःखी होते रहते हैं परंतु बुद्धिमान लोग अज्ञान को दूर करके आनंदित होते हैं।

अलग-अलग बिखरे हुए शब्द तभी तक निर्दोष रह पाते हैं जब तक कवि उन्हें अपनी जिह्वा रूपी सुई से गूँथ नहीं देता (अर्थात् काव्य का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है)।

जिनका मन श्रीकृष्ण के प्रेम से रहित है उनके क्रिया-नैपुण्य को धिक्कार है, उदारता (दानशीलता) को धिक्कार है, अधिक पढ़ी हुई विद्या को धिक्कार है, आत्मज्ञता को धिक्कार है, शील को धिक्कार है, यज्ञ आदि की रचना को धिक्कार है, पुरुषार्थ को तथा बुद्धि को धिक्कार है; ध्यान, आसन, धारणा को धिक्कार है, मंत्र-तंत्र की जानकारी को धिक्कार है, जन्म को तथा जीवन को धिक्कार है।

उत्कंठित व्यक्तियों की उत्कंठा समय की अपेक्षा करके नहीं होती।

संसार में अपना मत ही बहुत सम्मानित वस्तु लगता है।

प्रियतम के द्वारा भोगा हुआ गुण ही गुणत्व (गुण का भाव) को प्राप्त करता है।

भाग्य का लेख कौन टाल सकता है?

मधु स्वयं ही मत्त नहीं होता अपितु अपना पान करने वाले सभी जनों को मदमत्त कर देता है।

स्वाभाविक भाव छिपाया जाने पर भी छिपाया नहीं जा सकता।

प्राणी मात्र का सुकृत एव दुष्कृत फल से ही प्रगट हो जाता है।

प्राणी मात्र को अपनी आत्मा प्यारी लगती है, इसलिए स्वरचित ग्रंथों में उसकी दोषदृष्टि नहीं होती।

दुष्ट लोग नख और केश के समान ही हैं। जिनके कट जाने पर व्यथा का लेश भी नहीं रहता, जबकि बढ़ने पर सभी दुःखी होते हैं। कौन स्वतंत्र व्यक्ति इनका परित्याग नहीं करते?

हे दुष्ट की जिह्वा रूपी झाड़ू! यद्यपि तुम निरन्तर फेंके हुए मल के द्वारा भुवनतल को निर्मल करती रहती हो, फिर भी तुम्हारे स्पर्श में भय ही होता है।

जो लोग स्वभाव से ही दुष्ट होते हैं उनका ज्ञान भी विरुद्ध ही होता है।

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