भामह के उद्धरण

‘यह सुरक्षित कुसुम ग्रहण करने योग्य है; यह ग्राम्य है, फलतः त्याज्य है; यह गूँथने पर सुंदर लगेगा; इसका यह उपयुक्त स्थान है और इसका यह’—इस प्रकार जैसे पुष्पों को भली-भाँति पहचानकर माली माला का निर्माण करता है, उसी प्रकार सजग बुद्धि से काव्यों में शब्दों का विन्यास करना चाहिए।

कवित्व-शक्ति से विहिन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान धनहीन के दान के समान, नपुंसक के अस्त्रकौशल के समान तथा ज्ञानहीन की प्रगल्भता के समान निष्फल होता है।
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सत्यकाव्य का प्रणयन पुरुषार्थचतुष्टय एवं कलाओं में निपुणता, आनंद और कीर्ति प्रदान करता है।
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दिवंगत होने पर भी सत्काव्यों के रचयिताओं का रम्य काव्य-शरीर; निर्विकार ही रहता है और जब तक उस कवि की अमिट कीर्ति पृथ्वी और आकाश में व्याप्त है, तब तक वह पुणयात्मा देव-पद को अलंकृत करता है।
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सन्निवेश के वैशिष्टय के कारण कभी-कभी सदोष कथन भी सुंदर बन जाता है—जैसे फूलों की माला के मध्य गूँथे हुए हरे पत्ते।
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गुरु के उपदेश से तो मंदबुद्धि व्यक्ति भी शास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं, लेकिन काव्य तो किसी प्रतिभाशाली को कभी-कभी ही (सदा-सर्वदा नहीं) स्फुरित होता है।
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माधुर्य और प्रसाद गुण चाहने वाले सुधी कवि, अधिक समस्त (समासयुक्त) पदों का प्रयोग नहीं करते। कुछ कवि जिन्हें ओज की अभिव्यक्ति ही वांछित है, अत्यधिक समस्त पदों का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ ‘मंदारकुसुमरेणुपिञ्जरितालका’ अर्थात मंदार वृक्ष के पराग से पीली अलकों वाली नायिका।
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अनुप्रास, यमक, रूपक, दीपक और उपमा-वाणी (काव्य) के ये पाँच अलंकार ही दूसरों द्वारा कहे गए हैं।
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यदि क्रमशः उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बताया जाए, तो उसे उपमेयोपमा कहा जाता है।
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वैशिष्टय-प्रदर्शन के लिए किसी गुण या क्रिया के विरुद्ध, अन्य क्रिया का वर्णन हो उसे विद्वान् लोग विरोध अलंकार कहते हैं।
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शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य कहलाते हैं। यह काव्य दो प्रकार का होता है : गद्य और पद्य। संस्कृत, प्राकृत और इनसे भिन्न अपभ्रंश—भाषा के आधार पर यह तीन प्रकार का होता है।
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अनुप्रास अनेक अर्थों वाले होने चाहिए, लेकिन उनके अक्षर भिन्न नहीं होने चाहिए, अर्थात् समान ही होने चाहिए। इस मध्यम युक्ति (मार्ग) से कवियों की वाणी रम्य बनती है।
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यमक पाँच प्रकार का कहा गया हैः आदियमक, मध्यान्तयमक, पादाभ्यासयमक, आवलीयमक, और समस्तपादयमक।
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धर्मशास्त्रों तथा उनके द्वारा स्थापित मर्यादा को आगम कहते हैं। उन धर्मशास्त्रों तथा उनके द्वारा स्थापित लोकमर्यादा के आचरण के अतिक्रमण से आगमविरोधी दोष होता है।
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हे धैर्यशील! रमणीय भोगों में भी तुम्हारी बुद्धि आसक्त्त नहीं होती। ये रमणियों से संबद्ध भोग (ऐंद्रिक आनंद) मुनियों का भी मन हर लेते हैं, अर्थात् उन्हें भी साधना—पथ से विमुख कर देते हैं, लेकिन तुम उनमें भी नहीं रमते।
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काव्यप्रणयन के लिए व्याकरणशास्त्र, छंदःशास्त्र, शब्दकोश, व्युत्पत्ति-शास्त्र, ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं, लोकव्यवहार, तर्कशास्त्र और कलाओं का मनन करना चाहिए।

जिसके शब्द लोकप्रसिद्ध (लोकप्रचलित) हो; पदों की संधियाँ भली प्रकार से मिली हुई हों; जो ओजस्वी, प्रसाद गुणसंपन्न तथा सहज उच्चार्य हो, वही विदग्ध कवियों का वांछित यमक है, अर्थात् विद्वान ऐसे यमक की ही प्रशंसा करते हैं।
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वह शब्द नहीं, वह अर्थ नहीं, वह न्याय नहीं, वह कला नहीं, जो काव्य का अंग न बनती हो। कवि का दायित्व कितना बड़ा है!



जिसका अर्थ विद्वानों से लेकर स्त्रियों और बच्चों (जनसाधारण) तक, सभी को प्रतीत हो जाए, वह प्रसाद गुण कहलाता है।
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पृथ्वीलोक की स्थितिपर्यंत कीर्ति चाहने वाले व्यक्ति को, सभी ज्ञातव्य विषयों को जानकर काव्य प्रणयन का यत्न करना चाहिए।
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विनय के बिना संपत्ति से क्या लाभ? चंद्रमा के बिना रात्रि की क्या शोभा? सत्कवित्व के बिना वाग्विदग्धता कैसी।
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धर्म, अर्थ और काम के प्रतिपादक शास्त्रों तथा दंडनीति को न्याय कहते हैं। जहाँ इनका विरोध हो, वहाँ न्यायविरोधी दोष कहलाता है।
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काव्य के स्वादिष्ट रसों में मिश्रित कर शास्त्र का भी उपयोग किया जाता है। पहले मधु का स्वाद लेने वाले कटुभेषज भी पी जाते हैं।
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सत्काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में प्रवीणता, कलाओं में प्रवीणता, आनंद व यश प्रदान करती है।

शब्दालंकार शब्द के शोभाधायक होते हैं और अर्थालंकार अर्थ के। चूँकि शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य होते हैं, इसलिए हमें तो शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही इष्ट हैं।

रमणी के नयनों में लगे काले अंजन के समान कभी-कभी आश्रय (आधार) के सौंदर्य के कारण भी दोष शोभा को धारण कर लेता है।
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जिसका अर्थ ओझल हो गया हो, उसे अपार्थ दोष कहते हैं। वह अर्थ पद और वाक्य दोनों में रहता है।
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विशेषता बताने की इच्छा से इष्ट वस्तु का निषेध-सा करना आक्षेप अलंकार कहलाता है।
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साधु, साधारणत्व आदि गुण यहाँ भिन्न हैं, किंतु उपमेय और उपमान के परस्पर भिन्न होने पर भी वह गुणासाम्य का प्रतिपादन कराता है।
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जिस देश में किसी द्रव्य की जैसी उत्पत्ति कही गई है, अथवा नहीं कही गई है, उसके स्वभाव को ध्यान में रखकर, उसके विपरीत वर्णन को देशविरोधी दोष कहा गया है।
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संबंधित विषय : देश
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गुरु या लघु वर्णों का अस्थान में सन्निवेश तथा उनकी न्यूनता या अधिकता भिन्नवृत्त दोष कहलाता है।
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काव्यप्रणयन न करने से न तो अधर्म होता है, न कोई व्याधि या रोग होता है और न ही किसी प्रकार के दंड की प्राप्ति होती है, अर्थात् किसी भी स्थिति में काव्यप्रणयन ऋणात्मक कार्य नहीं है जो सामाजिक को उसे करना विवशता हो, लेकिन असतकाव्य (सदोष कविता) को विद्वान् लोग साक्षात् मृत्यु कहते हैं।
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विशेष गुणासाम्य बताने की इच्छा से, विशिष्ट के साथ न्यून की भी समान कार्यकारिता प्रतिपादित करना तुल्ययोगिता कहलाता है।
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छंद में प्रयुक्त्त शब्दों का जो विचार है, यह यति कहते हैं। उससे रहित यति-भ्रष्ट कहलाता है।
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आसाधारण (महा)—कवियों के काव्यरूपी प्रयोगों के अनुरूप ही काव्यों को ले चलना चाहिए। पूर्ण सादृश्य कहीं देखा गया है, जैसा ‘रादमित्र’ में कहा गया है।
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किसी कारणवश लोकोत्तर अर्थ का बोध कराने वाला जो वचन है, चमत्कारिक होने के कारण उसे अतिशयोक्त्ति कहा जाता है।
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संबंधित विषय : अलंकार
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जो काव्य सुनने में कर्णसुखद हो और जिसमें अधिक समस्त पद प्रयुक्त्त न हो, वह मधुर कहलाता है।
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संबंधित विषय : कविता
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छः ऋतुओं के भेद से, मानो समय ही छः रूपों में विभक्त्त है। उसमें विपर्यय होने से कालविरोधी दोष होता है।
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साधारण धर्मों के सुने जाने और विशेष धर्मों के अनुद्घाटित होने से जो ज्ञान अनिश्चित रह जाए, उसे संशय कहते हैं। अतः उस संशय के उत्पादक वचन को ससंशय कहेंगे।
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संबंधित विषय : धर्म
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अर्थवान् वर्णसमूह ही पद कहा जाता है। व्याकरण में सुबंत और तिङन्त को पद कहा जाता है।
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संबंधित विषय : अर्थ
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जहाँ एक ही समय में दो क्रियाएँ दो वस्तुओं में संपन्न हों, किंतु उनका कथन एक ही शब्द से होता हो—वहाँ सहोक्त्ति अलंकार होता है।
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संबंधित विषय : अलंकार
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परस्पर साकांक्ष पदों का समूह ही वाक्य कहलाता है जो स्वयं निराकांक्ष तथा एक अर्थ का बोधक होता है।
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संबंधित विषय : अर्थ
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इस निस्सार संसार से भयभीत साधु पुरुष, क्लेशों का समापन करके, संन्यासरूपी शांति के मार्ग पर चलता है। यदि तुम उन्नयन चाहते हो तो अन्याय का परित्याग कर, दुर्दम्य व्याधियों के अधीन इस जन्म को काट डालो, अर्थात् जन्म के कारण ही अनेकानेक व्याधियाँ सहनी पड़ती हैं। फलतः ऐसा कर्म करो कि पुनर्जन्म ही न हो, जिससे व्याधियों से मुक्ति मिल जाए।
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उपदेश के अनुसार क्रमशः निर्देश को ही काव्यशास्त्र में क्रम कहते हैं। उसमें विपर्यास से क्रम का मिट जाना अपक्रम दोष कहलाता है।
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